यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर लेखिका रुपाली संझा की समीक्षा

On 24 May 2024 by यतीश कुमार

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बचपन के नाज़ुक मन की एक अंगीठी में धीमे-धीमे सुलगते अंगारों को अपनी सबल स्मृतियों की फूंकनी से फूंक मारकर उनकी आँच को फिर से दहकाने और उससे ताप पाने का नाम है ‘बोरासी भर आँच’।

उम्र के पड़ाव पार करते हम जितने आगे बढ़ते जाते हैं,उतने ही पीछे छूटे रास्ते व्यग्रता से हमें याद आते हैं। इसलिए नहीं कि उन रास्तों पर चलकर हम जहाँ आज हैं; वहाँ तक आन‌ पहुँचे,बल्कि इसलिए कि उन रास्तों पर चलते हुए ही हमें अपनी ज़िंदगी के सबसे अहम सीखों के काँटे और हसीन यादों की रसबेरियाँ मिली थीं। जिनकी कड़वाहट और मिठास के मिलजुलपन से हम वो बने,जो हम आज हैं।

आज के इस छोर पर,सामाजिक पैमाने की बंधी बंधाई कसौटी के हिसाब से खरा उतरा सैंतालीस साल का एक भरापूरा व्यक्तित्व कल के उस छोर की तपन से जलकर दग्ध नहीं हुआ वरन अपने हठ के बल पर उसमें तप कर कुंदन की तरह बाहर निकल कर आ गया।

वो जो एक भयाक्रांत,निरीह,निराश,बेचारियों से लदा और अकेलेपन की जहाँ-तहाँ चोट खाता बचपन था,उसने अपने उसी सहज बचपने में उन क्रूरताओं को भी कड़वी गोलियों की तरह निगल लिया।

शुरू में बच्चे के तन मन ने स्वाभाविक और त्वरित विपरीत प्रतिक्रियाएँ भी दीं,लेकिन समय के साथ उनको पचाना सीख गया। धीरे-धीरे उनका आदी होता गया और फिर उनसे अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाना भी सीख गया। वो जो पहले की मजबूरियाँ और हताशाएं थी कालांतर में वो ही उसकी ताकत बनती गई। उसे बनानी पड़ी कि उस कम उम्र में भी वो कमजोर और लाचार मन उन चालाकियों को जानने की ताब पा गया था कि इन विपरीत परिस्थितियों से इसी तरह बचा जा सकेगा। कि आग के चटकों से बचने के लिए उससे दूरी बनाए रखना आवश्यक है।

जलती आग की इस आँच में उसके अपने प्रारब्ध के अलावा उसके माँ बाप भाई बहन मामा मौसी अड़ोस-पड़ोस के लोग,सब शामिल थे। उनसे उसने अपने कोमल हाथ जलवाये भी और ज़रूरत पड़ने पर हाथ सेंककर गर्माहट भी पाई। कि आँच से उसका नाता जुड़ चुका था। वो रिश्तों की डोर से बँधा भी,और उनकी गाँठें भी बाँधी। हालात कुछ ऐसे बने कि रिश्तों को लेकर उसका लिजलिजापन गायब होता गया,संबंधों की कठोरता उस पर हावी होती गई। तभी बाद में बड़ी निर्ममता और साफगोई से वो उनको अपनी सैरबीन से देख सका। उस आग में से मतलब जितनी बोरासी भर आँच सहेज सका।

सामाजिक ताने बाने के फंदे में ना पड़कर उससे बाहर निकल आना और फिर उसे ही मुँह चिढ़ाते हुए दिखाना कि देख रे ऐ जग! और तुम भी ऐ तमाम ज़िंदगियों!! अपनी दोनों हथेलियों की उंगलियों में डोरी का पहले एक जाल बनाना फिर एक झटके में बिना गाँठ लगाये उन्हें खोल देने का बचपन का वो खेला जीवन भर हमने ऐसे खेला कि आज बिना किसी गाँठ की उसी डोरी को लिए तने खड़े हैं।

‘बोरसी भर आँच’। आग नहीं ये पानी है। निजी जीवन का एक पाताल तोड़ झरना है। वो झरना जो उत्पाती पहाड़ी नदी की तरह बड़ी-बड़ी चट्टानों पर तेजी से उछल कूद मचाता हुआ, शोरगुल के साथ बहता हुआ, उन्हें तोड़ता ताड़ता, अपरदित कर मिट्टी में बदलता और अंत में उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी की तरह अपने साथ बहाता यहाँ तक ले आया है।

बहुत शुभकामनाएँ यतीश। इस हिम्मती सैरबीन के लिए। जिसमें इतनी दुरूहताएँ थी कि दूसरा कोई उसकी तुरपाई ही करता,उसे उघाड़ना तो नहीं ही चाहता।