उम्र में अपने बचपन को देखने की एक कामयाब कोशिश है बोरसी भर आँच
अपने बचपन को और उसके संघर्ष जिसमें सारा परिवार सम्मिलित है मां है, बहन है, भाई है और उसे पूरे परिवेश को अपनी स्मृति में जूम करके देखा है ताकि सारे दृश्य साफ-साफ दिखाई दें। इस पुस्तक को सही ढंग से समझने के लिए जरूरी है इसकी प्रस्तावना का पढ़ना प्रस्तावना को कहानीकार अखिलेश द्वारा लिखा गया। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि आलोक धन्वा, ऋतुराज और वीरेन डंगवाल को पढ़ने के बाद इस पुस्तक को पढ़ने की रुचि बढ़ जाती है और काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है। बिहार राज्य के मुंगेर में स्थित किऊल नदी के किनारे बसा हुआ लखीसराय जहां यतीश कुमार का बचपन व्यतीत हुआ , यह इस पुस्तक का महत्वपूर्ण भाग है।
कस्बा नुमा अस्पताल का वर्णन सच में एक ऐसा दृश्य है जिसे हमने देखा है और उसे अस्पताल में जिस तरह से इलाज होता है उसका भी बहुत सजीव चित्रण किया गया है। अस्पताल में प्रसूता की डिलीवरी के दृश्य, दवाइयां का बनता जाना लोगों का इलाज करना बहुत ही से चित्रण है।" टुडे मुड़े इरादे आज भी अपनी जेब में रखता हूं। मुझे हमेशा सही है विश्वास है कि मेरा साथ देने वाले हैं हालांकि समय की ठोकरे मेरे इरादे बुहार देती हैं और मैं खाली जेब बे इरादा घूमता फिरता हूं"। बचपन का संघर्ष और उसकी कसक और उसमें अपना जीवन मस्ती से जीना सच में बहुत ही आकर्षक लगे हैं। मध्यमवर्गीय परिवार का जीवन कितने संघर्षों में व्यतीत होता है कितने सारे रूकावटों के बाद रास्ते दिखाई देते हैं।
बचपन अपने खेलने के औजार ढूंढ ही लेता है यही सब कुछ चीकू के साथ भी है और वह ढंग से बचपन को जीता है और उसमें अपने होने का अर्थ अपने संवाद उस स्थिति में भी खोज लेता है। यतीश कुमार ने अपनी पुस्तक में अपनी लेखनी से बहुत सारे चित्र शब्दों से बने हैं जब हम इस पुस्तक को पढ़ते हैं तो बहुत सारे दृश्य चलचित्र की तरह हमारी आंखों के सामने आते जाते हैं और हम उसमें अपनी यात्रा शुरू कर देते हैं। इतने सारे प्रसंग है संघर्ष के प्रेम के कहीं ना कहीं हम उन स्थितियों से गुजरे हैं उन चीजों को देखा है भोगा है और सीधे-सीधे जुड़ाब होता चला जाता है और हम अपने आप को भी उसमें देखना प्रारंभ कर देते हैं।
यह इस पुस्तक की सबसे बड़ी खूबी है की चीजें जबरदस्ती नहीं लाई गई वह स्वत आई है। इस पुस्तक सबसे खास बात यह है कि इसमें लेखक के परिवार का कोई भी व्यक्ति बहुत विषम परिस्थिति में ना झुका है ना टूटा है और ना ही टूटने की दरार उनके चेहरे पर दिखाई दिए उन परिस्थितियों से लड़ते हुए उन्होंने अपने समय को बहुत सहजता से जिया है और उसमें से ही रास्ता खोज लिया। लेखक के लिए सबसे बड़ी बात यह रही कभी बड़ी बहन जिसे दीदिया से संबोधित किया हमेशा एक ढाल की तरह हर बार को बचती रही है। जहां जरूरत पड़ी वहां मदद की। कभी बड़े भैया, कभी पास पड़ा उसके खेलने वाले बच्चे, कभी नाना नानी और सबसे ज्यादा मां का साथ लेखक को रहा है।
बच्चों का स्वाभाविक रूप से जो वर्णन यतीश कुमार ने किया है जिसमें रेलगाड़ी से यात्रा, ट्रक के पीछे दौड़ना, ट्रैक्टरों के पीछे दौड़ना, खेतों में जाकर फसल की डंडियों को कुचलना और उससे घायल भी हो जाना यह जीवन के क्रम में आता गया जिसे बहुत बारीकी से लेखक ने इस पुस्तक में लिखा है।
बचपन कितना स्वच्छंद होता है खाने पीने का शौक खेलने का शौक पढ़ने का शौक यह सारे शौक विषम स्थितियों में भी पूरे हो सकते हैं। इस इस पुस्तक को पढ़ाते हुए मुझे कहीं भी यातीस और उनका परिवार कमजोर नहीं नहीं लगा। पर अपने आप को संभाल कर रखने की ताकत यह यह पुस्तक देती है। यतीश कुमार कवि है और उनकी भाषा कविताई है इसलिए भाषा में एक तरह की ध्वनि दिखाई देती है। बहुत अच्छे रूपक, और नए-नए प्रतीक इस पुस्तक में आए हैं।
मां के संघर्ष की कहानी यतीश की जुबानी सच में यह पुस्तक आकर्षित करती है और बहुत जरूरी पुस्तक है कई कई बार पढ़ने के बाद बहुत सारी बातें समझ में भी आती हैं। यह पुस्तक पाठकों तक पहुंचने के साथ उनके दिल तक पहुंचेगी। दिल तक पहुंचाने में यतीश की लेखनी का कमाल है जिसमें उन्होंने एक परिवार, भाई बहन और रिश्तो की और संबंधों की गहरी जांच पड़ताल की है। और मां का स्वरूप हर रूप में कितना सुंदर होता है यह बताया है। मेरी ओर से मित्र यतीश कुमार को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।