निशीथ और त्रियामा के बीच गुजरती क़ज़ा के रूप में कोरोना की दहशत भरी रातें। रात का कड़वा सच! समाज का सच, मीडिया का सच, रिश्तों का सच और इस सच के बीच करुणा, समाज सेवा और मानवता का एक सच्चा स्वरूप, सब यहाँ पर पन्ने दर पन्ने आपसे मुख़ातिब होंगे।
आभासी दुनिया के मकड़जाल में उदासी का दोबाला हो जाना, उस मकड़जाल के रेशे की जाँच पड़ताल करते मनोवैज्ञानिक के मन की बातें, आभासी दुनिया में असहमति और दुश्मनी के माने एक होते देखता राकेश, शहर कैसे जंगल बनता जाता है और उस जंगल में किसी को कैसे एकांत की प्यास लगती है, यह दुनिया कैसे चुप रह जाने को बुद्धिमानी मानने लगती है। वहाँ एक प्रश्न कौंधता है कि “आप ज़िंदा रहने और मर जाने की बात एक साथ कर रहे हैं" ? यहाँ असहमति कैसे अवांछित बना देती है लोगों को, इसका बहुत बारीक चित्रण किया गया है। `ढोंड चले जै हैं काहू के संगे‘ में 'करोगे याद तो हर बात याद आएगी’ गाने का इतना सुंदर प्रयोग है कि पढ़ कर मन खुश हो गया!
”प्रेम में होना ही तो वसंत होना होता है” `डायरी में नीलकुसुम’ कहानी का हिस्सा एक मंत्र की तरह पढ़ता हूँ। बसंतीअवस्था के बारे में सोचना भी कितना रूमानी है। प्रेम यानी फ़ेंटसी के दुश्मन दो ही हैं - ज्ञान और बुद्धि! प्रेम के यथार्थ में अँधेरे और उजाले का असली चेहरा उभरता है, इस कहानी में।
देह और रूह का प्रेम को पाने के अपने पैतरे अपने तरीक़े हैं। देह और मन की अभिलाषा की तृप्ति, एक साथ की कल्पना! कहानी में फ़िल्म के एक किरदार, लियो ग्रांडे का सुंदर प्रयोग किया गया है, जिससे कहानी के केंद्रीय भाव को बेहतर ढंग से समझाने में मदद मिलती है।
किताब पढ़ते हुए एक बात तो साफ़ है कि कहानीकार स्वदेश दीपक से ख़ासे प्रभावित हैं खासकर उनकी लिखी "मैंने मांडू नहीं देखा" से और ज़्यादा ही। दो कहानियों में इस किताब का संदर्भ तो बिल्कुल साफ़ मिलता है।
इन कहानियों के किरदार अक्सर किसी और शहर से उस शहर या कस्बे में आते हैं, जहाँ के इर्द-गिर्द कहानी रची गई है। पुरानी हवेली या ऐतिहासिक स्थल भी एक सिरा की तरह हैं, इन कहानियों में। इन कहानियों में बिछोह है, पर एक सकारात्मक अंत लिए जिसके कुछ मायने हैं, जो किसी उद्देश्य के साथ लिए गए फैसले के साथ घटित होता है। इन्हीं कहानियों में `जोया देसाई कॉटेज’ प्रेम की अपनी अलग छाया लिए हुए है। एक सुंदर कहानी जिसे बहुत खूबसूरती से गढ़ा गया है।
`हराम का अंडा’ छोटी पर कसी हुई कहानी है। संदेश है कटाक्ष के संग, जो इसे अलग श्रेणी में रखती है। किन्नर को केंद्र में रखकर लिखी कहानी 'नोटा जान' का कथ्य इस विरल पेचीदगी भरी कहानी को सरल बना देती है। मन की वो बातें, जो कहीं नहीं खुलतीं उसे सहजता से इस कहानी में खोल कर रख दिया गया है। इन कहानियों में अलग-अलग समय की चाल है। कोरोना काल से लेकर उजियारी काकी का साठ साल पुराना समय भी दर्ज है। इस कहानी में उजियारी काकी की गुम हुई हँसी को सूत्र धार की तरह रखा गया है, जो पूरी कहानी को एक धागे में बाँध कर रखता है। गुम हुई हँसी, उस समय को चिह्नित कर रही है, जब पितृसत्ता चरम पर था। संयुक्त परिवार की अच्छी और बुरी बातों को भी यहाँ समेटने की कोशिश की गई है।
`रामसरूप अकेला नहीं जाएगा’ कहानी शुरुआत में एक सपाट सामान्य कहानी लगती है, पर जैसे-जैसे बढ़ती है अपनी तहें खोलती हैं। समाज में आए बदलाव, ख़ासकर यांत्रिकता का दबाव, आदमी को मशीन से बदलने के दबाव का चित्रण बहुत अच्छी तरह किया गया है। ए-आई के आने से भी जो वर्ग इसकी चपेट में आ रहा है उस पहलू को भी यहाँ दर्ज किया गया है। कहानी जैसे फॉरवर्ड रिवर्स की तरह चलती महसूस होती है, पर असल में वो सिर्फ़ समय के आगे चलने की बात ही कर रही होती है।
'जूली और कालू की प्रेम कथा में गोबर’ इस पूरे किताब में सबसे अलग तरह की कहानी। इस कहानी को पढ़ते हुए उदय प्रकाश की लिखी `तिरिछ’ कहानी की बरबस याद आ जाती है और कभी शिवमूर्ति का लिखा उपन्यास `अगम बहै दरियाव’ के कुछ हिस्से की भी। सामंतवाद अफसरशाही के साथ-साथ जातिवाद को जूली और कालू जैसे रूपक के रंग में रचा गया है। गोबर जैसे खिलते फूल को जिस तरह नष्ट कर देता है सिस्टम, पढ़ते हुए पाठक भीतर तक हिल जाता है।
कहानी संग्रह में विविधता है। हर कहानी का ट्रीटमेंट अलग तरीके से है, कुछ ऊपर लिखे समानता को छोड़कर। कसावट इसका यू एस पी है। कहानी के मूल तत्व आरम्भ, आरोह, चरम स्थिति एवं अवरोह के साथ कथानक , कहानी की पूरी सेटिंग, उसके पात्र, दृष्टिकोण, प्रेम और संघर्ष इन सब की उपस्थिति इस किताब को अत्यंत पठनीय बनाती है। पंकज सुबीर को बधाई एक अच्छे कहानी संग्रह के लिए।