कविताएँ अक्सर ही रोकती हैं, टोकती हैं और आपसे बतियाती हैं। इस तरह कविता संवाद का एक ऐसा पुल बनाती हैं जिस पर दोतरफा आवाजाही होती है। जो कविता यह न कर पाए, वह प्रायः असफल कविता होती है। इधर कवयित्री विशाखा मुलमुले का नया कविता संग्रह 'पानी का पुल' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है यतीश कुमार ने। आज पहली बार पर प्रस्तुत है विशाखा मुलमुले के कविता संग्रह 'पानी का पुल'पर यतीश कुमार की समीक्षा 'ख़ुद से एक ज़रूरी जिरह'।

On 28 December 2024 by विशाखा मुलमुले

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इस किताब को छूते ही लगा कड़क ठंड में धूप का एक टुकड़ा ही होती हैं कविताएँ, सच। बाह्य और अंतर्दृष्टि को एक साथ अंतस से जोड़ते हुए कवि का मन जो देख पाता है वह साधारण नेत्र कहाँ देख पाते हैं। ओस में नाचते आह्लादित धूल कण में जुगनू को भला कोई और कैसे देख सकता है। इस किताब में कवयित्री ने बारहां देखा है अपनी संवेदना से ओत प्रोत दृष्टि से! इन कविताओं में कवयित्री एक साधारण स्त्री मन को टटोलती हैं और उसकी नज़र में उभरती विडंबनाओं को उकेरती हैं। शंकालु समय में दूरियाँ ख़ुद अपना आयतन बढ़ाती हैं, यह 'गिरफ्त में' शीर्षक कविता में बुना है विशाखा ने। कवि दृष्टि सजग है, जो देख रही है घास के इतने रूप जहाँ यह जिजीविषा से उठ कर, मर कर अमर होती है, जब चिड़ियाँ करती है उससे नीड़ का निर्माण। 'पानी का पुल' शीर्षक कविता का पहला पैरा पढ़ कर ही आप थोड़ी देर ठहर जाएँगे। नरेश सक्सेना सर, नेपथ्य के जिस संगीत लय की बात कविता में करते हैं, जो कविता का अंतर्नाद होता है, वो इस कविता में आपको भी सुनाई पड़ेगा ... 'मैं तुम्हें आब से चिन्हित हूँ तुम मुझे मेरी करुणा से दोआब पर बैठ हम शांत समय में संगम पर पाँव पखारते हैं' रिश्तों का पुल बुनती प्रेम की ऐसी कविता है, जिसका रूमान आपको देर तलक एहसास दिलाएगा। कोई-कोई कविता ऐसी होती है कि उसे पढ़ते ही शुरुआत से ही यह एहसास हो जाता है कि इसी रुमानियत की तलाश थी मुद्दतों से। यहाँ बारिश का सीधा संपर्क स्त्रियों के कोर के रूपक से सिद्ध किया गया है और लिखा गया है कि यूँ कहते हो स्त्रियाँ रोती बहुत हैं। वो जो उसके पीछे बने तटबंध दरकते हैं दरारों को लीपते-लीपते उसे कोई कहाँ देख पाता है, उसे तो दिखता है टूटा हुआ बाँध, बरसा घनघोर। कवयित्री के कहने का ढंग बेहद सहज है और गंभीर बात जब उतनी सहजता से कही जाय तो सीधे दिल पर लगती है और यूँही कविताएँ सीधी चोट कर रही हैं उसी सहजता से। यह कविमना ही है जो गन्ने को भूषा बनते हुए, बजता हुआ घुँघरू भी सुन रही है। वैसे ही घुँघरू वह देखती है कोल्हू के बैल में, कुएँ के रहट में और ईश्वर से कहती है कि दवाब में सृजन होते वक़्त मन भटकाने के लिए घुँघरू बांधने की तुम्हारी यह कला निराली है। विशाखा की जागृत दृष्टि की सजगता निहारने वाली बातें, जो कृष्ण नाथ और नरेश सक्सेना करते हैं यहाँ भी सहजता से मौजूद दिखती हैं, जो आज के दिन राहत भरी बात है। पढ़ते-पढ़ते मैं एक जगह आ कर रुक गया जहाँ लिखा था, इतिहास में स्त्रियाँ एवं गौरैया दर्ज होंगी केवल गवाह के तौर पर भूख मिटाने के किसी साधन के तौर पर'। यह वाक्यांश कोई साधारण वाक्यांश नहीं है इसमें समाज का सच है। सच का अपना यथार्थ है, जो सपनों या फुग्गों की तरह उड़ने वाला नहीं अपितु ठोस जमीनी सच्चाई बयां करने वाला है। इस संग्रह में दो तरह की कविताएँ हैं, एक अनायास जो स्फुटित संवेदनाओं से जन्मी हैं और दूसरी गद्यात्मक, जो थोड़ी सायास प्रतीत होती हैं। वहाँ लय थोड़ी कमज़ोर पड़ जाती है, पर चूँकि तथ्य और कथ्य ऐसा है तो पढनीयता बनी रहती है, पर जो अनायास प्रतीत कविताएँ हैं वे पहली पंक्ति पर ही उंगली पकड़ लेती हैं और फिर आपके साथ हो लेती हैं। इसी श्रृंखला में एक कविता है 'बुद्धत्व', जिसकी शुरूआती पंक्तियाँ हैं - 'तुम चाहो तो सिद्धार्थ-सा जाना और घने अरण्य में बुद्ध हो जाना' कितनी सशक्त पंक्तियाँ हैं इस कविता में जैसे कविता कहती है, स्त्री कभी चक्रवर्ती नहीं होतीं और चक्रों में अभिमन्यु सी उसकी गति है। पंक्तियाँ एक बड़ी कविता का संकेत दे रही हैं। यह कविता बखूबी कहती है कि ममत्व कैसे स्त्री को बांधे रखती है और एक प्रश्न भी छोड़ जाती है कि क्या ममत्व का नेपथ्य कमज़ोरी पर गढ़ा गया है? विशाखा मुलमुले 'बहुरूपी नींद' के नेपथ्य में लय है नींद की, अपनी विविधता की चर्चा है, मानवीय कमज़ोरी के दुष्प्रभाव की चर्चा भी है। कवयित्री लिखती हैं- 'खख़तरनाक होता है खुली आँखों में नींद का रहना/अपने ही कूप का मंडूक बनना।' वे अंत में लिखती हैं- 'जीवित बने रहने के लिए ज़रूरी है ख़ालिश नींद।' यह कविता ख़ुद से एक ज़रूरी जिरह करती है और नींद पर निशाना नहीं लगाती, उनींदी पर वार करती है। आगे और कविताएँ पढ़ता गया फिर अचानक इन पंक्तियों पर ठीक उसी ओस की तरह ठहर गया, जिसका ज़िक्र इस कविता में है।- 'मैं लिख के चूमूँ हथेली पर तेरा नाम जैसे चूमती है ओस घास की नोक।' कविता में प्रेम और विरह की पुकार की एक ऐसी मिश्रित धुन है जो इसे लीक से अलग कर रही है। कवयित्री की पृष्ठभूमि विज्ञान की रही है इसलिए कई कविताओं में इसका असर देखने को मिलता है। परिस्थितियों को दर्शाने के लिए किसी कविता में समकोण, त्रिकोण और न्यूनकोण का प्रयोग किया गया है, तो कहीं किसी कविता में प्लूटो और बृहस्पति का चाँद से बातचीत का प्रसंग वर्णित है। कविताओं में वैज्ञानिक दृष्टि बिम्बित होना कवयित्री की उस अंतर्दृष्टि का सूचक है जो जीवन, प्रेम और विज्ञान में तारतम्य ढूँढ रही है। 'जलमित्र' पढ़ते हुए कुछ पंक्तियों पर जाते ही मुझे नरेश सक्सेना की लिखी कविता 'समुद्र पर हो रही बारिश' की बातें याद आती हैं जहाँ समुद्र के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध उछलने पर बात रखी गयी है और यहाँ इस कविता में भी, पर ट्रीटमेंट बिल्कुल अलग है । यहाँ प्रेम संबंधों के बीच के अडोलन का मसला है और वहाँ समुद्र और नदी के बीच का। फिर आ कर रुकता हूँ 'अनुवाद' कविता पर या यूँ कहिये कविता रोक लेती है। इसे पढ़ते हुए अनुराग उत्पन्न होता है, कविता के शिल्प की मिठास शहद-सी प्रतीत होती है। मैं यहाँ अपने वक्तव्य को फिर से दुहरा रहा हूँ कि अच्छी कविता पहली पंक्ति से ही उँगली पकड़ लेती है। वहाँ लिखा है 'जब वह गुनगुनाये नहीं तब समझना वह किसी सोच में है'। अभी जो ऊपर कह रहा था वही बात 'कविता' शीर्षक की कविता कहती है पर उस कविता में जहाँ-जहाँ कविता की ओर वापसी की बात की गई है वहाँ-वहाँ मैं प्रेम पढ़ रहा हूँ। अनिंद्रा कविता में उनींदे प्रेम का उत्स दिखता है पर अगर उसे अंतिम गली में जा कर भी संभाल लिया जाता तो यह कविता अपना मुकम्मल ढूँढ लेती, जैसे अंत में आ कर कविता को भी नींद आ गयी। लावण्य पर एक अलग दृष्टि रखते हुए लिखी गयी कविता है 'नमकीन नदी-स्त्रियाँ। दरअसल जितनी भी कविताएँ स्त्री को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं वे इस संग्रह की बाक़ी कविताओं पर थोड़ी भारी पड़ती हैं। कुल मिला कर मुझे लगा, विशाखा दृश्य और दृष्टि की दूरी कम करने में लगी हैं और पैने अवलोकन सामर्थ्य से अंतर्दृष्टि को जोड़ने में सफल रही हैं और उन्हें कविताओं को काट-छाँट करने का आनंद भी उठाना चाहिए। ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ।