कुछ कवियों के काव्य-संग्रह को पढ़ने से पहले आपकी तैयारी दुरुस्त होनी चाहिए उनमें से एक हैं वीरू सोनकर। एक बार सीधे पढ़ो फिर दोबारा रुक-रुक कर पढ़ो और फिर कुछ दिन के बाद फिर से पढ़ो ।कम से कम मेरा अनुभव ऐसा ही रहा। कविताएँ स्वतः विरल से सरल होती चली जायेंगी। पर एक बार जब आपके अंतस में उतरेंगी तो आप कविताओं के कायल हो जाएंगे ।संग्रह की इन कविताओं में दर्शन की मात्रा ज्यादा है और उसे उस भाव में उतरकर पढ़ने से समझने में आसानी रहेगी । कविताओं पर केंद्रित कविताई के सृजन होने के लिए कविताएँ बलवति भी होनी चाहिए ।
इनकी कविताओं को पढ़ने से उत्पन्न अनुभूति से सृजित कुछ कविताएँ आपके सामने प्रस्तुत हैं जो इस बात का भरोसा दिलाती है कि वीरू सोनकर की कविताओं में कुछ तो हटकर है।ये स्वतंत्र कविताएँ ऐसी हैं मानो लज़ीज़ खाने की खुशबू परोसी गई है खाना नहीं ।बस तासीर का मज़ा लीजिये ताकि आपकी तीव्र इच्छा मूल कविताओं की ओर बढ़ सके !शुभकामनाओं के साथ।
1.
तीव्र आकांक्षा से स्वपीड़ित
उत्तराभिलाषी को
अहर्निश प्रतीक्षा हासिल है
समय का टुकड़ा
भींचे हुए अपनी मुट्ठी में
नश्वरता और पुनर्जन्म के बीच की यात्रा में
युगों युगों से भटक रहा है
भाषा की रीवा ओढ़े
लंबी नींद का आकांक्षी
जिद किये बैठा है
कि या तो वो भाषा की आत्मा में समा जाए
या भाषा उसकी आत्मा में
तभी कुछ बेबाक शब्द उछलने लगते हैं
दर्द-मृत्यु-मुक्ति और फिर वक़्त
वो वक़्त की खिड़की खोल
भीतर दाखिल हो जाता है
2.
शक्ति- शिवा का स्वर गूंजता है
शिव समय की खिड़की में
अकेले कैसे जा सकते हैं
अर्धनारीश्वर तो शिव-शिवा है
बिना शक्ति के
संभावना भी सांस नहीं लेती
शिव बस मुस्करा कर हाथ बढ़ाते हैं
सभी दिशाओं में यह गूंजता है
"संभावना स्त्री का पहला चेहरा है
और संभावनाएं कभी नहीं मरती"
3.
सच को और कितनी बार परखोगे
रोज उठना और फिर
एक दिन सो जाना
एक बहुत लंबे सपने के बाद उठने के लिए
बस यही सच है
देखा यह वही कमल है
जो ब्रह्मा ने अर्पित किया था अर्धनारीश्वर को
जो उनके हाथ से गिर कर
बुद्ध का आसन बन गया
हाँ यह वही मुस्कान भी है
जो शिव ने दे दिया बुद्ध को
दरअसल कमल और मुस्कान शब्द ही थे
जो एकांत में गिरे
तपस्याओं से गुजरते हुए
अजन्मे शब्दों में से एक
गिरा मेरे एकांत में
उसे यूँ थरथराता हुआ
ऐसे जप रहा हूँ
जैसे शब्द ने नहीं
मैंने अभी- अभी जन्म लिया है
बाद में जाना थरथराता क्रंदन
सृजन की पहली निशानी है
4.
बस्तर का क्रंदन
दिल्ली तक जाते- जाते
दम तोड़ देती है
मिलता-जुलता
सृजन के विपरीत स्वर
बौड़म चेहरों के साथ
अपनी प्रतिध्वनि घोले
सातों सहेलियों की
समवेत रूदाली में भी शामिल है
बुद्ध की मुस्कान
वहाँ कायम है
5.
मुझे उल्टा देखने की बीमारी जन्म से ही है
नज़र को सीधा करते-करते
वक़्त की चाल टेढ़ी हो गयी
इस टेढ़े रास्ते पर
सीधे चलने का
एक मात्र उपाय
मेरा टेढ़ा होना नहीं दिखना है
उद्दंडता बाहरी कवच है
जिसे समय के अनुसार
ढीला-चुस्त रखता हूँ
गरल और सरल
मेरे चेहरे के दो चेहरे हैं
आईने की तरह जिसे
इस्तेमाल करता रहता हूँ
मेरी राशि का अधिपति ही नहीं
वल्लाह मैं भी सांड ही हूँ
6.
बचपन में सुना था
जंगल किस दिशा में कितनी दूर है
इस हिदायत के साथ
कि उधर जाना पूर्णतः बाध्य है
दरअसल हिदायत देते वक़्तजंगल की प्रतिलिपि उसकी आँखों में थी
और मैं सबकुछ देख रहा था
आज जब थोड़ी अक्ल आयी है
तो सारे शहरों मेंवही प्रतिलिपि बँट रही है
जंगल फैल रहा है
और उसमें आग लगना जारी है
7.
शोर एक ताला है
जिसकी चाभी मौन है
जिसे एकांत इतने चुपके से खोलता है कि
ताले को भी खबर नहीं होती
कि उसे चुप करा दिया गया है
8.
उसकी नज़रों से गुफाओं, कंदराओं,
नदियों, पहाड़ों को देखता हूँ
दरअसल वो मुझे देखते हुए कहते हैं
कि जो जैसा दिखता है
वैसा होता नहीं
अब मैं घर ,सड़क ,शोर और मीनार देखता हूँ
वो मुझसे कुछ नहीं कहते
9.
एक दूसरे की पीठ पर
उग आए हैं हमतुम
स्पर्श की भाषा में
चेहरा और साफ दिखता है
जब नाखूनों से भाषा को कुरेदा
तब आँखों में मछलियों को
तैरते,उछलते तड़पते पाया
और गौर से उनकी भाषा पढ़नी चाही
तो चोईटें ग्लिटर बने हुए दिखे
बरौनियों की
और मैं घोंघे की तरह अपनी भाषा में सिमट आया
10.
हमने समझा
फिर हम एक दूसरे को समझ रहे हैं
जबकि सच यह था
हमदोनों भाषा से बाहर उलझ रहे हैं
एक चुप में छुपी स्त्री
हज़ार सच से लबरेज़ है
बस उसे पता नहीं होता
कि सारे रास्ते जहाँ से
उदासी का धुआँ निकलना है
वो कहीं और नहीं
उसकी आँखों से होकर गुजरता है
जरूरी है कि वहाँ
थोड़ी सी नमी बस कम हो
और धुँधलापन धुल जाए
ताकि परी बनने का
स्वप्न खेल अब खत्म हो
11.
वो खुद के आदमी होने के सबूत माँगता है
गिन्नियों से तौलते हुए
उसे कहा जाता है
अभी वक़्त है तुम्हारे आदम कहलाने में
वो एक टीले पर चढ़ता है
उसे पहाड़ से आवाज़ आती है
वो पहाड़ पर चढ़ता है
तो हिमालय की हिदायत आती है
उसके थकते ही
एक स्त्री की आवाज
विचलित करती है उसे
आदमी से मनुष्य बनना है तुम्हे
वो चुपचाप पुराने खोल में
सभ्यता का ओढ़ना
फिर से ओढ़ लेता है
12.
बार बार देह और आत्मा के
ताल मेल में भटक रहा हूँ
इस मरते हुए शहर की आत्मा में
कुछ फूल बोना चाहता हूँ
जिसे मुलम्मे की सख्त जरूरत है
पृथ्वी घूमते हुए थक जाती है
तो मौसम के साथ बदल लेती है अपना लिबास
घर में कैद रूहों के मौसम तो सुबह शाम से ही है
संपूर्णता से परे
अपूर्णता मेरे साथ खुश है
हर रोज उसे पूर्ण करने की ज़िद में
दो कदम चल लेता हूँ
सामने रहता है
खड़ा एक लैंप पोस्ट
रोज़ मेरे डेग के साथ
थोड़ा दूर खिसकता हुआ
पीठ और पेट की आपसी बतकही
दूर से ताकती सपनीली आँखों से
थोड़ा दूर रखने में सफल रहती है
और यूँ खिड़कियों के
दरवाजे बनने के सपने को
जिंदा रखता हूँ