यतीश कुमार बहुत दिनों बाद अपनी काव्यात्मक समीक्षा के साथ वापस लौटे हैं।इस बार उन्होंने जयश्री रॉय की किताब ‘थोड़ी- सी ज़मीन थोड़ा आसमान’ को पढ़ते हुए कविताएँ लिखी हैं। यह किताब वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है-

On 23 October 2024 by जयश्री रॉय

blogbanner

1. साँस की हाँफ में गलफड़ों का भी अपना रिदम है डर अगर मिज़राब है तो सिगरेट की चिंगारी एक उम्मीद हालात ऐसे है कि निर्वासन और निषेध आसेब बन कई चेहरें लिए घूम रहे हैं आजकल मानचित्र भी सिगरेट की बट से बन रहे है अनजान बने सब जानते हैं निश्चित है इसका जलना हादसा क्षण में बिजली की तरह गिरता है और टीसता है ताउम्र इन सबके बीच सामान्य रहने की कोशिश में असामान्य होता जाता है प्रेम 2. परायी मिट्टी वह चखना है जो बस पहली बार ही अच्छी लगती है अक्सर मकान की तलाश में घर छोड़ आता है इंसान चोटिल आत्मा पर नमक लादे विस्थापन एक अनवरत दृश्य है चाँदनी के साथ चलता हुआ चाँद ज़ख़्म का मुलम्मा है सफ़र में चलते-चलते जब वह थक जाता है माँ की गोद की तरह पुकारता है उसे अपना देश जानता है सीमा के परे शब्द तसल्ली नहीं देते फिर भी मन है कि सीमा लांघने से बाज़ नहीं आता क्यूँकि उसे पता है टूटते नक्षत्र का ध्येय अंततः रौशन करना ही होता है 3. कुनमुनाहट हिमेल शाम की उपज है रात में यह कम्पन में बदल जाती है जिससे बचने के लिए दिन भर भटकता रहता है धूप का एक टुकड़ा पोरस छलनी सा मन चाहता तो है संसार समेटना पर हर बार अँजुरी में रेत भर जाती है उसे पता है रेत और मिट्टी मिलकर रचती हैं अमूर्त प्रेम की मूरत जिसकी मुस्कान धान की बाली को देखते हुए आयी किसान की मुस्कान सी आशावान होती है 4. आशंका अगर सहेली हो तो अनहोनी शक्ल में उभर आती है खौलते दूध में छाली ज़िंदा रहने का सबब है पीड़ा कपाट खोल कर बह जाए तो घाव के ठीक होने की आशा और बढ़ जाती है वह इतनी ग़मगीन है कि ख़ुद में लौटने से डरती है उसे पता है कि अवसाद को जमने से पहले आँसू बन बहना होता है वह सब जानती है बस नहीं जानती कि खौलते लावे सबसे सख़्त चट्टान बनाते हैं 5. मेह के मौसम में चाँद झाँकता है इस पार उस समय अपना आकाश होना खुद का चाँद होना होता है मांसाहारी और वीगन का साथ होना काँटे और गुलाब सा है एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं प्रेम के जोड़े भी कमाल होते हैं प्रेम में कभी- कभी ऐसा होता है नहीं खींची हुई तस्वीर दिल में खिंच जाती है जिसका प्रतिबिंब सिने से लगाए घूमता रहता है आदम ताउम्र चाक-चौबंद मुस्तैद ज़माना है फिर भी लाउबाली लिए फिरता है प्रेम सरहद से परे प्रेम ऐसा बंधन है जो बांधता नहीं मुक्त करता है 6. रात की निस्तब्धता पर सेंध लगाते हैं चरमराते खिड़की दरवाज़े और मन पर स्मृतियों की साँकल जिसके पास शून्य है अपेक्षा वहाँ साँकल खटखटा कर लौट जाती है साँकल के दृश्य टीसते हैं और शून्य बस रह-रह कर चीख उठता है सूने में जगार अब स्थायी अवस्था है स्मृतियाँ निशब्द छीजे जा रही है अंतस परेशानी का सबब ऐसा है कि अंधेरा कई चेहरों में बदल जाता है थकान और प्रेम दोनों की नींद बेसुध है और दोनों बस एक ही बात बुदबुदाते हैं शून्य से शून्य तो भर ही सकता है! 7. दिन खिलते बसंत- सा और शक्ल झरते पत्तों -सी इस उजाड़ के बीच पक्षियों की तरह स्त्रियाँ कूड़ा करकट से भी घोंसला बनाने में मग्न हैं सोच सलाइयों सी बुनती हैं दिल पुल सा धड़कता है स्मृतियाँ लहरों सी हिचकोले मारती है इन सब के बावजूद सबकी आँख बस रोटी पर केंद्रित है स्त्री रोटी से नहीं उसे बनाने से प्रेम करती है उसे आटा के पकने की ख़ुशबू गेहूँ उगाते हुए पसीने सी नमकीन लगती है इन ख़यालों में वह अक्सर ऐसा करती है ख़ाली कनस्तर से भी रोटी निकाल लाती है पुरुष के प्रेम के हिस्से में है `उगाना’ स्त्री के हिस्से में है `पकाना’ और पृथ्वी उगाने और पकाने की परिक्रमा पर है 8. अदालत भरी हुई है और जज नदारद बहस अपनी गुंज़ाइश की ढूँढ़ में है कोई सुनवाई नहीं बस सजा की गूंज हवाओं में तैर रही है सपनों को भी पत्थर से बांधकर पानी में डुबोया जा रहा है पराजित दम्भ से जन्मा रक्तबीज अट्टहास कर रहा है ईश्वर मौन है और घुटन अपनी आदिम अवस्था में सिसिया रहा है हिमेल राख के ढेर में अब चीखें क़ैद हैं अब उनकी मुक्ति के लिए उसे शरीर पर मलना होगा 9. दुनिया बिडंबनाओं का मकड़जाल है जबकि हम मकड़ी नहीं उसकी खाद हैं जाल दिन व दिन फैलाव पर है और हम हैं कि नश्तर की तलाश में भ्रमित घूम रहे हैं सुलगता अलाव और सुलगती आँख भूख के साथ जीभ को स्वाद भूलने के लिए उकसा रही है सियाही चखो तो आंसुओं सा नमकीन निकलता है गिद्ध तो किसी के मरने का इंतज़ार करता है इंसान नहीं करता सोचता हूँ ज़िबह के तरीक़े ज़्यादा हैं या मोहब्बत के विडम्बना अब स्थायी अवस्था है जीने और जाया होने के अंतर अब सच में मिट गए हैं 10. किसी की नज़र में और किसी नदी में अक्सर किसी और की स्मृति बहती है इसी बहाने वह दो अँजुरी आचमन कर लेता है अपने शहर को थोड़ा पी लेता है उसने पूछा तुम कहां की हो जवाब मिला कुछ लोग कहीं के नहीं होते उसने पूछा तुम सोती क्यों नहीं तो उसने कहा, जहां पाँव रखती हूँ पूर्वजों की धड़कन सुनती हूँ धड़कन चर्च के घंटे सा बजता है परन्तु सबकी जागों की नींद लिए मद में चूर राजा सोता है अब आवाज़ सिर्फ़ मंदिर की घंटियाँ और मस्जिद की अज़ान से आ रही है 11. दो जिप्सी,दो अनजान या दो शरणार्थी प्रेम और साथ को उनसे बेहतर कौन समझता है वे एक दूसरे को देखते ही कह उठते हैं `तुम घर हो मेरा’ और उनकी आँखों में हज़ारों पक्षियों के एक साथ उड़ने का दृश्य उभरता है प्रेम में की गयी चोरियाँ सदियों बाद भी किसी की आँख में नूर बन कर टपकती है दो आँखों में सारा दिल लिए घूमती लड़की प्रेम में आश्वस्ति खोजती है उन दोनों को नहीं पता कि अमित सुख दरअसल उनकी परछाई है वे एक दिन जान जाते हैं चाहे प्रेम हो या दान देना दरअसल जोड़ना है 12. ज़िम्मेदारी और आशा की सिक्कड़ से बंधा आदम हर दम परीक्षा की मुद्रा लिए चलता है परवाह के विरुद्ध कटाक्ष हर बार चोट करता है फिर भी कभी कुछ अकहा मुलम्मा बन जाता है और आदम एक कदम और चल लेता है कुछ नहीं है खोने को फिर भी बर्दाश्त की इंतहा ढूँढ़ता है सोचता हूँ कि आख़िर कितना लचीला होता है आदमी उस दिन वो लौटा नहीं वहीं पीछे छूट गया तब समझ में आया यादें और आदम साथ-साथ नहीं रहते उस दिन वो ट्रेन के गेट की ओर नहीं सन्नाटे के दरवाज़े की ओर लपका उसे नहीं पता था प्रेम का दरवाज़ा बंद होकर अंधेरे की ओर खुलता है 13. जिसे पूरा आकाश चाहिए उसकी आँखों पर हर रात किसी की छाती का बादल घिर आता है और देह चारदीवारी में बदल जाती है दरकता किनारा रह-रह कर टूटता है और हर बार कहता है पानी में घुलना इसकी नियति है इसकी टूटन से हज़ारों घर बनेंगे लहरों में अद्भुत संगीत होता है जो सिखाता है बार- बार वापस आना लौटते समुंदर को चाँद कितने प्यार भरी नज़र से देखता है संगीत ख़त्म ज़रूर होता है बाहर पर भीतर शुरू भी होता है और कहता है प्रेम में दीवार नहीं दरवाज़ा बनना 14. भीतर एक शून्य है जहां संगीत के संग साँस लेता है इंतज़ार का एक पौधा सूरज का उगना इंतज़ार का ख़त्म होना है इंतज़ार का फूल बादल की शक्ल लिए फिरता है मरुस्थल में घूमते हुए सोचता है उसे स्नेह की बारिश में तर होना है और फिर एक टुकड़ा पूरा आसमान दे जाता है माथे पर एक चाँद दे जाता है साँस में एक आस दे जाता है और गुनगुना उठता है थोड़ी सी ज़मीं थोड़ा आसमां तिनकों का बस एक आशियाँ