"दुख अगर टोकरी भर जाड़ा है, तो सुख हमारे साथ से उपजी बोरसी भर आग"

On 27 December 2024 by यतीश कुमार

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21 अगस्त 1976 को मुंगेर (बिहार) में जन्मे यतीश कुमार ने पिछले कुछ वर्षों में कविता और कहानी के साथ-साथ चर्चित उपन्यासों, कहानियों व यात्रा-वृतान्तों पर अपनी विशिष्ट शैली में कविताई से एक अलग पहचान बनाई है. 1996 बैच के इंडियन रेलवे सर्विस ऑफ मैकेनिकल इंजीनियर (आईआरएसएमई) अधिकारी यतीश कुमार का दिल पिछले दो दशकों से साहित्य के लिए धड़कता है. वर्ष 2021 में उनका पहला काव्य-संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ और जनवरी 2023 में दूसरा काव्य-संग्रह ‘आविर्भाव’ प्रकाशित हुआ है. गौरतलब है कि ‘आविर्भाव’ में हिंदी साहित्य की 11 प्रसिद्ध कृतियों पर कविताई है. यतीश के इन दोनों काव्य-संग्रहों को पाठकों, समीक्षकों और साहित्य-प्रेमियों का भरपूर स्नेह मिल रहा है.

यतीश कुमार की कविताएं एवं संस्मरण देश के कई समाचार पत्रों एवं प्रसिद्ध पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं. ‘हिंदवी’, ‘समालोचन’, ‘जानकी पुल’, ‘पहली बार’ और ‘कविता कोश’ जैसे चर्चित साहित्यिक ब्लॉग्स पर भी उनकी रचनाएं मौजूद हैं, जिन्हें कोई भी पढ़ सकता है. उनके कृतित्व पर ‘जनसत्ता’, ‘दैनिक जागरण’, ‘सन्मार्ग’, ‘प्रभात खबर’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ सरीखे समाचारपत्र व परिकथा, बनास जन, कृति बहुमत, कविकुंभ समेत कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समीक्षा प्रकाशित हुई है.

सक्रिय साहित्य सृजन और कुशल प्रबंधन यतीश कुमार के व्यक्तित्व की विशेषता है. भारतीय रेलवे सेवा में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2006 में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया. किसी भी ‘सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम’ के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक के रूप में नियुक्त होने वाले सबसे कम उम्र के अधिकारी यतीश कुमार वर्तमान में ‘ब्रेथवेट एंड कंपनी लिमिटेड’ (रेल मंत्रालय) का कार्यभार संभाल रहे हैं. अब तक राष्ट्रीय और पांच क्षेत्रीय रेलवे पुरस्कार के अलावा उन्हें आर्थिक अध्ययन संस्थान द्वारा “आउटस्टैंडिंग ग्लोबल लीडरशिप अवार्ड-2019” और वर्ल्ड एचआरडी कांग्रेस द्वारा “सीईओ विद एचआर ओरिएंटेशन” पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है, साथ ही यतीश को साल 2021 में ‘सीएमडी लीडरशिप अवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया.

साल 2021 में राधाकृष्ण पेपरबैक्स से प्रकाशित यतीश कुमार का पहला काव्य-संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ ने पाठकों, समीक्षकों और आलोचकों का खासा ध्यान आकर्षित किया. इस संग्रह की समीक्षा देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब-पोर्टल पर प्रकाशित हुईं. इस संग्रह को नवभारत टाइम्स, डीएनए इंडिया (हिंदी), साहित्य तक (इंडिया टुडे ग्रुप) और दैनिक जागरण सरीखे समाचारपत्रों ने वर्ष-2021 की ‘सर्वश्रेष्ठ काव्य-संग्रह’ की सूची में भी रखा. आपको बता दें, कि संग्रह को जल्द ही पाठकों तक ऑडियो बुक की शक्ल में पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है. काव्य-संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ और कवि यतीश कुमार के रचनाकर्मों को समेटते वेबसाइट ‘खुदरंग’ का वरिष्ठ कथाकार अलका सरावगी के हाथों लोकार्पण किया गया.

यतीश कुमार साहित्य साधना के साथ-साथ तकरीबन दो दशकों से विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े हैं. यतीश इन दिनों कोलकाता से संचालित प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘नीलाम्बर’ के अध्यक्ष हैं और 2022 में ‘कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल’ से बतौर सलाहकार भी जुड़े हैं. इसके अलावा यतीश ‘बांधव सियालदह’, ‘एडजस्टिस फाउंडेशन’ और ‘नो चाइल्ड स्लीप हंग्री’ समेत विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के साथ जुड़कर समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयासरत हैं. आइए पढ़ते हैं यतीश कुमार की वो चुनिंदा कविताएं, जिन्हें आपने अब तक कहीं नहीं पढ़ा होगा-

1)
तुम तक
सुख है तुमको देखना
और, दुख है नज़र का एक कोण बन जाना…

दुःख अगर टोकरी भर जाड़ा है
तो सुख हमारे साथ से उपजी
बोरसी भर आग !

समंदर के झाग सा है दुःख
जबकि सुख है उसी की लहरों का
हर बार लौट आना

दुःख है, नहीं पाना
चित्त का उखड़ जाना
सुख है कच्ची हल्दी सा उखड़ कर भी
हर बार उग आना, लेप बन जाना

दुःख है दूध की तरह उफन जाना
और सुख है, तब भी तुम्हारा हर बार मुस्कुराना

बैगाटेला की गोली हूं मैं
और कीलों वाली आख़िरी सुराख़ तुम

दुःख है बारहा टकराना
जबकि सुख है बावजूद इसके
हर बार तुम तक पहुंच पाना.

2)
प्रेम में हम-तुम
मेरी छोटी सी दुनिया में, तुम्हारे पांव पड़ते ही
स्वर्ग बलाएं लेता है
चांद टकटकी लगा कर ताकता है

तुम्हारे आते ही मन के पोखर में
कुम्हलाए कमल खिल उठते हैं
उजास यूं फैलता है
कि तारीक साये लरजकर छुप जाएं

तुम्हारी हथेली इतनी बड़ी है
कि अकसर समय को ढंक देती है
और जब भी मैं मुठ्ठी बंद करता हूं
तो तुम गुदगुदा देती हो

अरबी खजूर सी मिठास
और शहद-सा ठहराव लिए
कृष्णपक्ष का हंसिया-सा चांद
मेरी पीठ पर टहलता है

हम नदी की दो धाराओं की तरह मिलेंगे
हम चांद बन समंदर में डूबेंगे
हम गोंद बन छाल की नमी में गुम रहेंगे
हम पराग बन फूलों को बोसे देंगे
और यूं हर बार उगेंगे
प्रेम में पेड़ की पत्तियों की तरह…

3)
प्रेम में पेड़ -1
कटे हुए “तनों” से छलकता है पानी
छालों का दर्द समझता है पानी
पेड़ समझते हैं पानी का दर्द
और दर्द में मुस्कुराने के माने

पानी की पनाह है
पेड़ की घायल देह
जिसकी छाल के आग़ोश में
सुकून भर ठहरता है पानी

सोखती हुई जड़ें
जब टोहती है नमी
और चूमती हैं मिट्टी को
तब पानी बंद पलक पत्ती-पत्ती मुस्काता है

जड़ों को आस पसंद है
और पत्तियों को सांस
जबकि आस और सांस से परे
पेड़ को पसंद है बारिश

मोहती हुई नदी को
टुकुर-टुकुर देखते हैं पेड़
और चूमते हुए थोड़ा और झुकते चले जाते हैं
पानी थोड़ा और मीठा हो जाता है

पेड़ बनाते हैं पानी को और खूबसूरत
दरअसल हर पल पानी के प्रेम में होते हैं पेड़
और झूमते हुए बहती हवा से कहते हैं
“प्रेम में प्रतीक्षा का नाम बारिश है”

प्रेम में पेड़ -२
कभी गुलमोहर को देखो
साथ-साथ लिये
दो सांसों के साथ गिरता है
और बिखर जाता है

उसे छू कर देखो
एक नहीं दो फूल मिलेंगे
पांच-पांच पाश फैलाए

हम-तुम यहां आजीवन रहते हैं एक साथ!

पेड़ पानी के प्रेम में झुकता है
पर पेड़ और पेड़ के प्रेम को देखो
सांप और सांप के प्रेम से
ज़्यादा आग लिए लिपटे मिलेंगे

वे सच्चे प्रेम में हैं
बिना जुदा हुए
अंतिम सांस तक लिपटे

कहीं पढ़ रहा था
एक कवि और उसका प्रेम
ईश्वर की आंखों में समा गये
साथ-साथ

आदमी प्रेम में
पेड़ और फूल बन जाता है
पर कवि की कविता, जड़ है
जिसे लेना है जन्म बार-बार…

4)
बस इतना हो
गोलाई खोती पहिये-सी ज़िंदगी में
सपने और चपटे होते जा रहे हैं

शेष बची प्रार्थनाएं ही
इस पत्थर-समय की छेनी हैं
जिससे लिखा गया
बस इतना हो
कि ग़रीबों की हत्या का नाम
आत्महत्या न पड़ जाए

बस इतना हो
“समय पर दो बार कम से कम
बिजली आए न आए,
पानी ज़रूर आ जाए”

बस इतना हो
उम्मीद और उत्सुकता भरी आंखों में
चमक के पीछे उदासी की रहनवारी न हो

और बस इतना हो
कि सपनों को पाने के लिए
जुगनुओं को न बेचना पड़े
और कोई पंगत में
बिना पत्तल के बैठा न रह जाए…

5)
नज़र अन्दाज़
जब भी चलता लड़खड़ा जाता
दहलीज़ का अंदाज़ा नहीं है उसे

बाहर देखने की जितनी इच्छा होती
उतना ही वह भीतर देखता

उसे सपने दिखते हैं, हक़ीक़त नहीं
रात दिखती, दिन नहीं
आस दिखती, राह नहीं

जब उसपे हंसते लोग
वह मुस्कुरा देता
उसने ज़िद पाली थी दौड़ लगाने की
ज़िंदगी की रेस में

कुछ वो लड़खड़ाता
कुछ लंगड़ी खेलने वाले की आंखें

पसंदीदा शब्द है उसका ‘नज़र-अन्दाज़’
क्यूंकि उसे पता है
वो देह से गिरता है
और लोग नज़र से
और उसे यह भी पता है
कि अंधे कभी अपनी नज़र से नहीं गिरते…

6)
दरकन की मुस्कान
छत के नीचे रहते, छत को कंधा देना
दीवार से सीखा उसने, दरकते हुए खड़े रहना
चारों दीवारों के बराबर
अकेली दीवार रही मां
आसमान और सड़क, एक साथ बनी मां
टूटने की हद तक खींचा तनाव
हांफते हुए चहलकदमी करता रहता
और मुस्कान की लौ है
जो कम ही नहीं होती
ख्यालों में भी वो फाहे बुनती
अदेखे को कौर देना कभी नहीं भूलती

उसकी नज़रों में, सारे मौसम मेरे शत्रु ही रहे
यादों में लिपटी टटके दूध की महक
होंठ पर फैल आती है
लहलहाती स्मृतियों में लोरी गुनगुनाती है
पिता उस लहलहाहट में गुम हो जाते हैं
लालिमा सूरज से निकल
उसकी बिंदी में समाती है
संभावना बन जगमगाती है
जतलाती है कि संभावनाएं हमेशा ज़िंदा रहती हैं…

7)
बुलबुला
कभी-कभी शब्द
भीतर कुछ खोजते-खोजते
तल के पत्थरों के बीच फंसा
हवा का टुकड़ा बन जाता है

सांस अब एक जिद है
जिसे अपने गलफड़े में छुपाए, घूमती हैं मछलियां

और यूं एक दिन
धर्म का मुखौटा लगाए, अधर्म
दाने की शक्ल में, फेंकता है बंसी

बंसी लगी मछलियां, जब पलकें मूंदती हैं
तो जख्म आंखें खोल लेती हैं

देह हिचकी से हिल गया
या रुदन से, पता नहीं चल रहा

इस सबको देख
सेमल के फटे फल सा
आंख फाड़े, समय ताकता है

विडंबना यह है
कि सिर्फ समय को पता है
कि बुलबुले को एक दिन हवा ही होना है…

8)
खोल
एक सुखी आदमी की शर्ट पहन रखी है मैंने
और भीतर मेरा एक दूसरा खोल है
यह समझना आसान कहां
कि बर्फ पर रहने वाले बिना खोल के होते हैं

नाम से ज्यादा उपनाम
सीने में फांस सा लगता है

पैरों में चुभी हुई फांस तो
कब का हम निकाल आए
दिल में बसी फांस को
सीने से लगाये सालों घूमते रहे
फांस अब भी साथ है
और तस्वीर गुम है

दुःख शक्ल बदलते हैं
पर दुखियों की शक्ल एक-सी होती है.

वैधव्य अभिशाप है
और दाहक बूंदें अंतस खरोंचती हैं

लेकिन कड़वा सच भी
नहीं खुरच पाता
उस कोमलता को
जो करुणा और प्रेम के आलिंगन से जन्मा है…

9)
बलि का बकरा
स्कूल की दुनिया
और दुनिया की वास्तविकता के बीच
छत्तीस का आंकड़ा है

बीच की दूरी पाटने में
गिनती भूल जाता हूं मैं
खोपड़ी में घोंसला बनाते प्रश्न
स्कूल की घंटी की तरह बज उठते हैं

और याद दिलाते हैं
चित्त के साथ, तन से लिपटा
बारदाना भी फटा हुआ है

भूख की आग पर
ठंडा पानी डालना
देह को वश में करना है

भूखे पेट भी
प्रेम का तीर लगता है
तो आदम गूंगा हो जाता है

और बलि के बकरे सा हाथ पैर मारता आदमी
इसी इंतज़ार में रहता है
कि कोई बस
हाथ के फोड़े सा संभाल ले उसको…

10)
सिकुड़ना
आखों में शोले हैं
और मन में संगीत
आग को इतने सुर में
पहले कभी नहीं देखा

चकरघिन्नी तालों की भाषा
कभी समझ नहीं आयी
मैंने उसकी सेटिंग हमेशा
ज़ीरो-ज़ीरो ही रखी

मेरी हथेली बड़ी
उसकी छोटी
दोनों हथेलियां ज़्यादा देर
साथ नहीं रह पातीं

अपनी हथेली मुट्ठी में बदल
उसकी तलहत्ती में छिपा दी
अब दोनों एक हैं
सिकुड़ना प्रेम का सबसे सुंदर विस्तार है…