कविता का काम सिर्फ़ संवेदना व्यक्त करना नहीं है अपितु समय-समय पर समय के विरुद्ध आवाज़ भी उठानी है ताकि सामाजिक संतुलन कायम रहे। काव्य-संग्रह ‘वाया नई सदी’ में कवि चुप्पी के साथ सत्ता को चेतावनी देते हैं और उसके पीछे चुप्पी की एक पूरी श्रृंखला चलती है। श्रृंखला भी ऐसी जिसमें प्रकृति से प्रेम और चिड़ियों की चहचहाहट को सुनने और महसूस करने का भरपूर समय है। एक तरफ कोरोना के उपरांत का दुख है तो दूसरी तरफ बनारस के घाट और मुक्ति का सुख। समय के सम्मुख प्रश्न करने की हिमाक़त तो एक कवि ही कर सकता है।
एक विकट स्थिति का ऐसा खांका एक कवि ही खींच सकता है-
बहता हुआ शहर लटक रहा था पुल से
और एक बहुत पुरानी नदी
अपने किनारों में कराह रही थी!
`रेत में धँसा पुल!’ कविता की यह एक पंक्ति आज की वस्तुस्थिति की स्पष्ट तस्वीर साफ़गोई के साथ रख देती है। यह पाठकीय दायित्व है कि इन कविताओं को बहुत सावधानी से पढ़ा जाए, क्योंकि अगर मारक शब्द का प्रयोग छूट गया तो हाथ से कविता फुर्र हो जाएगी ।
कवि पहली ही कविता ‘यह कैसा मौसम है’ में कंधे पर हाथ और पैर रखने का अंतर समझाते हैं। यह कविता उनके बारे में है जो अपने वायदे के साथ लापता हैं और जिन्होंने हथेली की गर्माहट के बदले नाखून चुभोने का काम किया है। यहाँ मामला सीधा जनता से विश्वासघात का है, अवसरवाद का है। कवि ने वर्तमान के इस सच को बखूबी उजागर किया है।
कवि को चिड़ियों में आशा की किरण दिख रही है और वे कह रहे हैं- शाम आकर टिक गयी है पत्तों पर। अबकी बसंत बहुत महँगा है और ऐसा इसलिए है कि पेड़ तनाव में है और यह जानना जरूरी है कि प्रसव और तनाव में कैसा रिश्ता होता है। इसलिए कवि कहते हैं- बसंत आया और खुशबू बिखेरने के बजाय और लाल रंग पोछता हुआ निकल गया। ऐसे ही बेढब मौसम में जब हिमपाती चुभन देती हवा चल रही है, कवि सूरज को घुटनों में क़ैद करने की बात करते हैं और लिखते हैं-
यह धूप सेकने का नहीं
सूरज को सोखने का समय है!
इस संग्रह से ‘ढेला’ कविता भी मुझे बहुत अच्छी लगी। इसे सपनों के प्रतीक की तरह रचा गया है। हर बच्चे की इच्छा होती है उसका ढेला अगली बार और आगे जाए और एक दिन अंधेरे ने जिस स्वप्न को ढाँप रखा है उसको चीर दे और उसके सपनों में उजाला कायम हो। हम सबका बचपन और बचपन का नन्हा पाक सपना ढेला कविता में सिमट आया है। कवि की दृष्टि प्रकृति की हर एक हरकत पर है। उसे इसके संतुलन के खोने का भय भी है और इसी भय और चिंता के बीच वो कहते हैं- झींगुर दरअसल यह तुम्हारी पहरेदारी है प्रकृति की सुंदरता के लुट जाने के खिलाफ। झींगुर आख़िर कौन है ? मेरी नज़र में झींगुर व्हिसल ब्लोअर है जिसकी आवाज को पहचानने की आज ज़रूरत है।
कुछ पंक्तियाँ ठहरने को विवश करती हैं। जैसे-
नायक बनने की हर अकड़ को
थोड़ा अधिक आदमी बनने की तरफ़
मोड़ दिया जाता है ।
यहाँ एक छोटी सी बैठकी को मित्रता की संस्कृति से जोड़ती कविता बस मुस्कुरा देती है । ये बैठकी अपने आयतन के साथ गुम है। बाज़ारवादी सभ्यता सब निगले जा रही है। मेरी ‘ओसारा’ कविता में समाज के सिमटने का जो दुःख है वही मुझे इस कविता के इर्द-गिर्द भी नजर आई।
‘गूलर’ कविता में लर को नन्हें बच्चे के लार से जोड़ना कवि के भावनात्मक पक्ष से अवगत करवाती है-
पेड़ की अपनी जिजीविषा
राजा का अपना आदेश
और आदेश से अंधे होते भक्त
अब बंदर को बचाने का जिम्मा किसका होगा
एक कविता में और भला कितने प्रश्न हो सकते हैं
‘अजी सुनते हो’ कविता में एक विशेष गेयता है। एक लय है जो दो ध्वनि के बीच अपना तारतम्य बैठाती चलती है । जबकि उन दोनों ध्वनि के बीच कटाक्ष का स्वर तीव्र है। कविता में चुहल और कटाक्ष दोनों का समन्वय मुश्किल काम है जो यहाँ आसान होते दिख रही है ।
अजी सुनते हो
कभी कभी हंसा करो
हंसने से आदमी जानवर होने से बच जाता है
देखो पृथ्वी घूम रही है
और तुम हो
कि अपनी परिक्रमा कर रहे हो
देखो दुनिया में कितना उजाला है
और तुम हो कि कमरे को दुनिया समझ बैठे हो
कितनी सार्थक पंक्तियाँ हैं जो जगाने का आह्वान कर रही हैं। वही काम जो माँ रात को सुलाते हुए कहती रही हैं और पिता सवेरे सवेरे उठा कर कहते रहे हैं। वही बात कविता दो ध्वनियों के लय में कह रही है- अजी सुनते हो।
संग्रह में विषय की विविधता विस्तार लिए है और समसामयिक बिंदुओं पर टहलती नज़र आती है । शीर्षक ‘वाया नई सदी’ सच में इस नई सदी में घटती घटनाओं को समेटने की सार्थक कोशिश है जैसे ‘गाय’ कविता में आज सड़कों पर जो हो रहा है उसे कवि के नज़रिए से देखा जा सकता है। यहाँ एक शानदार पंक्ति है जो आपको ठहरने और ठहरकर सोचने पर विवश कर देगी-
एक सीधी सरल गाय
हिंसक पशु में तब्दील हो रही है
कविता ‘देवदारु की दुनिया’ मेरी नज़र में आत्मकथा व स्व-यात्रा का निचोड़ है। जैसे लगता है कवि आपबीती सुना रहे हों! एक बानगी देखिए जब एक पेड़ को प्रतीक बनाकर कितनी गूढ़ बात कितने सुगढ़ तरीके से कही गयी है-
मेरी देह
स्मृति की आँच में पकी
और संघर्ष के पसीने से छकी है
अकड़ना और तनना एक नहीं होता
अकड़ना अपनी नसों में खिंच जाना है
तनना
अपने हर रेशे को सही जगह पाना होता है
चुप्पियों के अलग-अलग रंग हैं और कविताएँ क्रमशः अपनी बात कहे जा रही है। ‘चुप्पियों के माध्यम से मन की बात’, ‘हत्या’, ‘लेकिन’, ‘भविष्य’ और ‘चुप्पी के ख़िलाफ़’ ये सारी कविताएँ इसी श्रृंखला की हैं । ये कविताएँ यह भी चेताती है कि अपनी भूमिका को भूलकर, दूसरों की भूमिका पर प्रश्न करने वाले पहले स्व-चिंतन करो!
कवि एक सचेत दृष्टा हैं जो प्रकृति में घट रही हर गतिविधियों पर पूरी नजर रखते हैं। कचकचिया पक्षी के बहाने वह सन्नाटा तोड़ने की बात करते हैं। कवि उस पेड़ के लिए भी चिंतित हैं जो ढेरों घंटियों और धागों से पटा है और आशाओं के बोझ से गिरने वाला है। कविता जब जंगल, पेड़, पक्षी, फूल और आदम इन सभी को बचाने की मुहिम में बदल जाए तो कविताएँ अपनी सार्थकता और जिम्मेदारी का निर्वाह करती है। इन कविताओं में बड़ी मारक पंक्तियाँ रह-रह कर आती हैं।
उदाहरण के तौर पर यह देखिए जहां कवि झुकने को रोपने जैसी बड़ी बात से जोड़ते हुए लिखते हैं-
जो आज तना है
किसी के रोपने से बना है
झुकना किसी का रोपना ही तो है ।
रौ और लौ का इतना सुंदर प्रयोग दुर्लभ है। चढ़ने को उतरने का अर्थ समझाते कवि अचानक कह उठते हैं कि आत्मनिर्भर होता देश अब रोटियों से आगे निकल चुका है! कवि की नज़र से बच्चे की वह चुप्पी नहीं बचती जो खिलखिलाने की आवाज़ से ज्यादा बड़ी है। यह भी कि शांत बच्चा किसी भी अशांत नागरिक से ज्यादा मुखर है। `बच्चा’ बहुत मार्मिक कविता है। पढ़ते हुए भावनाओं के तार झंकृत होते हैं-
न तो माँ को पता है
न ही इस कविता को
कि इनको किस पते पर जाना है
यह पढ़ते हुए पाठक मन रह-रह कर बिंबों के क़ैद में चला जाता है-
सड़क सुनसान है
और आदमी अपनी ही छाया में क़ैद है
इस पूरे धुँध में बस एक गुलमोहर है जो अपना चटक लाल रंग लिए खिलखिला रहा है। यहाँ प्रतीक ख़ुदरंग दिख रहा है और एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा है जिसे सिर्फ़ खिलना आता है। वह बेरंग मौसम से भी बेख़ौफ़ है। समाज में कवि भी गुलमोहर ही है जो सुंदर और सकारात्मक बातें करता है। समाज के तमस और उमस में मुस्कान, ख़ुशबू और उजास मिल जाए तो संसार जीने लायक लगे और वह सब गुलमोहर में है। कितनी ज़रूरत है हमें समाज में ऐसे गुलमोहर की सच!
कविता वही है जो सिर्फ़ चीत्कार और शोर न करे बल्कि हल्की सी थपकी भी दे। थपकी की ज़रूरत हर उसको है जिसके भीतर का बच्चा अभी तक ज़िंदा है और नींद की चाहना में डोल रहा है। इस संग्रह की कविताओं में मौजूद थपकी को कविताओं में उतरते हुए ही जाना और समझा जा सकता है।
‘उत्तर-कोरोना’ कविता आज का दृश्य रच रही है। आज के बदलते स्वरूप का, जिसमें आत्मीयता अदृश्य हो गयी है। शासक उदार है पर उन्हें पाने की जल्दबाजी है। तारीफों के बीच सराहना शातिर हो चुकी हैं। एक लम्बी दुखांत दृश्य श्रृंखला रचने वाली कविता है जो यथार्थ को अपने साथ सही जगह पर टाँक रही है। कवि का इस विषय पर विस्तृत कार्य पहले भी हुआ है लेकिन यहाँ कविताई है जहां पूरी किताब को चंद शब्दों में समेटना होता है। कवि अपनी इस कोशिश में सफल हुए हैं!
संग्रह में बहुत मीठी और प्यारी सी कविताएं है जिसे पढ़ते हुए पाठक स्वयं मुस्कुरा उठेगा और कहेगा हाँ ऐसा ही तो होता है। प्रेम में नोक-झोंक जब मीठे होते हैं तो उसका परवान और प्रखर पर चढ़ता है। कविता में किचन के हवाले से यह भी कहा गया है कि चम्मच अगर अन्य चम्मच की जगह हो तो यह प्रेम का ठहरना है और ठहरा हुआ पानी तीता हो जाता है। कवि न सिर्फ बिखराव में प्रेम ढूँढते हैं बल्कि बिखराव से प्रेम भी करते हैं। जैसे कवि का यह मानना कि प्रेमिका के बिखरे बाल सुलझे कढ़े बालों से सुंदर होते हैं।
कवि ‘गुरु के नाम’ कविता में संत रविदास को याद करते हैं। ऐसे जैसे कोई अपने अंतस में जलते विश्वास के दीये में तेल डाल रहा हो। कोरोना के समय जब ईश्वर के डरे हुए स्वरूप की छाया कवि पर पड़ती है तो कवि रविदास के प्रति आस्था के दीपक का लौ तेज कर देते हैं और कहते हैं- सदा जीवित हो मेरे भीतर, समस्त अंधकार को प्रकाशित करते हुए!
कोरोना के विषय को केंद्र में रखकर लिखी गई कविताओं में ‘असहाय प्रार्थनाओं के इस दौर में’ एक ऐसी कविता है जहाँ कवि लिखते समय प्रकृति की विराटता को समझाने की कोशिश करते हैं-
जब समय ऐसा है कि प्रेम है पर कम्पन नहीं
वहाँ
एक उम्मीद लिए अभी भी
पेड़ की शाखाएँ एक दूसरे का आलिंगन कर रही हैं !
यह इस विकट समय का बहुत ही सकारात्मक पक्ष है जो प्रेरणा बिंदु की तरह सामने आता है हारते को आस का सूरज दिखाता है। एक कवि की दृष्टि-संवेदना दूसरों से कितनी मिलती है। इस संग्रह की वे कविताएँ जो बनारस घाट, देव दीपावली या फिर मणिकर्णिका से जुड़ी हैं मुझे मेरी कविता ‘भूतनाथ घाट’ तक ले जाती है। कविता में वही दर्शन-बोध जबकि दोनों कविताओं के बिंब में कोई एकरूपता नहीं। हमारी संवेदना और दर्शन में कहीं कोई तार जुड़ा रहा और यह मेरे लिए आश्चर्य से कम नहीं।कविता ‘कमरा’ में कवि जीवन-दर्शन के इसी पहलू को और विस्तार से खोलते हैं और लिखते हैं-
जीवन में सृजन का सुख
कमरे के भीतर नहीं मिलता
वो वहाँ से मिलना शुरू होता है
जहाँ से दीवारें विसर्जित होती हैं !
‘वाया नई सदी’ कविता मुझे अलका सरावगी के उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास’ की याद दिलाती है। यहाँ कविता वाया नामक माध्यम पकड़ आगे बढ़ती है पर उसकी खोज जीवन के सही संतुलन की है जो कई सारे वाया मीडिया रास्तों से असंतुलित है। यही खोज इस कविता में निहित संदेश है और आज की ज़रूरत भी ।
इस संग्रह से गुजरते हुए यह भी महसूस हुआ कि कविताएं दो अलग-अलग रंगों में है। एक तरफ बड़ी कविताएँ हैं जिनमें समाज के बदलाव की मशाल पढ़ते हुए आपकी दृष्टि पर एक बड़ा चश्मा भी लग जाता है। यह पठनीयता में सूक्ष्मता पैदा करता है। दूसरी तरफ छोटी-छोटी कविताएँ भी हैं जो उस लय में नहीं हैं। दोनों कविताओं के रंग को पकड़ने के लिए कविता पाठक से बहुत सचेत मन की मांग करती है। इस पठनीय संग्रह में हम जैसे नए रचनाकारों के लिए सीखने को भी बहुत कुछ छिपा है। संग्रह के लिए कवि श्रीप्रकाश शुक्ल और प्रकाशक दोनों को विशेष बधाई ।