शरणकुमार लिबाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 27 December 2024 by शरणकुमार लिबाले

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1.

जिन यादों को
मन में कहने की इच्छा होती है
वो हरी हो जाती हैं
हरे ज़ख्म और हरे हो जाते हैं
छितराती छाँव की तरह
स्मृतियों की छाया
मन की ज़मीन पर डोलती है
डोलती छाया में
तड़पता आदमी दिखता है
सपनों में स्वर्ग दिखता है
पर स्वर्ग से टूटी डोर का पता
सबसे पहले सफ़ेद गिद्धों को चलता है

2.

उस बस्ती की औरतें अच्छी लगती हैं
रोटी नहीं
माँ जब चक्की पीसती है
तो चक्की की आवाज़,
माँ की गाती आवाज़
एकमय हो जाती हैं
उसके यहाँ वह ऐसे रही
जैसे किसी के शौक़ में
कबूतर रहता है
अपने आँवल को अब ढूँढ़ रहा हूँ
पिता का नाम अंधकार है
अंधकार की कोई आकृति नहीं होती
उसमें आकृतियाँ विलीन होती हैं

3.

पेट से सिर्फ हम नहीं जन्मते
जन्मती है
सप्त पाताल से गहरी भूख
आदमी से बड़ी रोटी की तलाश लिए
कोई गर्भपात की तरह
भूख फेंक सकता है क्या?
जानवरों की गोठ-सी ज़िंदगी में
भूख की कितनी जुगाली संभव है
हम्माली ज़रिया है
और फूँकी हुई बीड़ी ज़िंदगी
मिट्टी की गीली ज़मीन में
फर्श का एक टुकड़ा ज़िंदगी
खाली पेट होटल में
पानी भरने के बदले मिली
एक कप चाय ज़िंदगी
उत्खनन से प्राप्त मूर्ति के चेहरे पर
फैली स्याह के बीच
मींचती मुस्कान
ज़िंदगी है
जिसने दूसरे गरीब के घर से आधी रोटी चुराई
आधी छोड़ दी
उस छोड़ी हुई रोटी का नाम ज़िंदगी है

4.

मेरा नाम है उपनाम नहीं
एक कड़वी जुगाली है
कि पिता गुम हैं
और काका पिता हैं सिर्फ रात के
उपनाम पूछा माँ से
तो उसने भींच लिया
दो उल्काएँ
एक दूसरे से लिपट गईं
और पल की तरह
बूँदें टप-टप रीत रही हैं
मेरे मन में
कर्ण से सवाल हैं
और माँ कुन्ती की तरह चुप है
अब माँ का स्पर्श मेरे लिए बाँझ है
अब मैं यूँ चुप हूँ
जैसे गीता अदालत में मौन रहती है 

5.

कीचड़ में भी
इज्ज़त ज़िंदगी से बड़ी होती है
मैं उस कीचड़ की लीप
घर की दीवारों पर लगाता हूँ
वह आदमी की छुअन लिए
गौरैया-सा बच्चा है
घर भी उसे चोंच मारता है
विस्मित है कि सबका खून लाल ही तो है !
रोटी के पीछे एक विराट जीवन है
एक नैसर्गिक दुनिया
जो रोटी से ढापी हुई है
नज़र नहीं आती
बीने हुए कागज़ की रद्दी
से तौली हुई भूख की दुनिया
रोटी कस्तूरी है
और आदमी देश को
पीठ पर लादे घूम रहा है

6.

समय नित नए आकार धारण करता है
और समय के साथ
माँ का हृदय भी
रोज़ थोड़ा और विशाल होता जाता है
भूतकाल से निकली
आँसू की हर एक बूँद
महाकाव्य समेटे है
हमें उसे पोछना नहीं, सहेजना है
जिस कुएँ की खुदाई हमारे हाथों हुई
उसे प्यासी निगाह से देखते हैं हम
मंदिर के पीछे
चिलम के धुओं के साये में
सारे धर्म एक हो रहे हैं
शमशान में कोई जल रहा है
जीते जी मैं जल रहा हूँ
मेरे भीतर का बुद्ध
रोज़ रात को बाहर टहल आता है
और इन सबों के बीच
कैक्टस की तरह फूलते हुए
अक्करमाशी अपनी पूर्णता तलाशता है