सुषमा गुप्ता के कहानी संग्रह ‘तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 22 October 2024 by सुषमा गुप्ता

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पंद्रह कहानियाँ रिश्तों के गुहर से गुंथी
चौदह फेरे के इर्द गिर्द
थोड़ा आगे थोड़ा पीछे की दास्तान !
यह कहानियाँ रहे- रहे डायरी नुमा हो जाती हैं,
फिर लगता है ये डायरी मेरी तो नहीं पर अफसाने कैसे इतने जाने पहचाने हैं ।

आश्चर्य है मुझे कि पढ़ते वक्त स्त्री के अक्स में परिणत हो गया था मैं ताकि सही नब्ज़ को टटोल सकूं,मर्ज के उन्स में बह सकूं। दृष्टि इतनी सूक्ष्म है लेखिका की कि कबूतर की गरदन पर बदलते रंग की धारियों को भी पढ़ लेती हैं। हवा खाली जगह को,शब्द भरे कहानियों के खाली हिस्सों को भर लेता है पर मन का भरना दो हथेली के मिटते बीच के हिस्सों पर निर्भर!ये कहानियाँ उन हिस्सों में भरते उभरते दरार तक ले जाती हैं !

उसने सुनाने की कोशिश की अंतरिक्ष और धरती को जोड़ने वाले पाइप से गुजरते बाँस की आवाज़ और मैंने सुनी खोखल बांस से गुजरते कंचे की आवाज़। ठहराव का सुकून से कोई रिश्ता नहीं पर कभी-कभी बिना ठहराव के जिंदगी हाँफने लगती है ।ये दोनों पहलू ठहराव के अक्सर टकराते मिलेंगे पढ़ते वक्त। प्यासी घाटियाँ बारिशों को लपलपा कर पी रही हैं ऐसा लेखिका ने कहा है कहानी में पर यहाँ पाठक भीगेगा अंतस तक बिना बारिश के !

बहुत दिनों बाद पढ़ते हुए फैंटसी से गुजरा।फंतासी में इंसानों से कितने जानवर निकल बाहर कूदते दिखे जिनमें सबसे ज्यादा गिरगिट को निकलते देखा।मेंढक और नाग पीछे-पीछे चलते दिखे,चमगादड़ का मुँह,गिद्ध की चोंच और कुछ खास लोग जो संख्या में कम थें उनसे खरगोश को भागते देखा ,लेखिका को खरगोश बहुत प्रिय है,इत्ती बात तो समझ में आ ही गयी। चोट हमेशा शरीर से चौगुनी आत्मा पर लगती है सारी कहानियां यह बात चीख-चीख कर कह रही है। कहानियाँ ऐसी हैं कि जिसमें मोगरा पलक झपकते महुआ और फिर शराब की दुर्गंध में बदलता जाता है।

पढ़ते -पढ़ते आप बहुत तंग रपटीली गलियों से गुजरते हुए अचानक खुले मैदान में खुद को पाते हैं और अगले ही पल मंजर समंदर का नमकीन हवा से बोझिल। किसी के दंश से उभरी दास्तान तो किसी के फेनिल प्रेम की क्षणिक सुगबुगाहट की झलक। आवर्त में आरोह- अवरोह से भरे सफर में डेड एंड का झटका अचानक मिलेगा जिसके आगे की राह पाठक को चुननी होगी।

इन कहानियों को पढ़ते वक्त जिन भावों से मैं गुजरा उनसे जन्मी कविताएँ लिख दी। इन्हें काव्यात्मक समीक्षा बिल्कुल नहीं समझें बस यह माने की कहानियों ने कुछ बीज उधार दिए सृजन के वास्ते जो समय के साथ मेरे जेहन में अंकुरित हो उठे और अब आपके सामने प्रस्तुत हैं-

 1. कयामत के दिन

बादल के फाहे सा प्रेम
ओखल से टपका
बहुरूप के फंदे में फँस कर
बस गिरता चला गया
अपनी ही परावर्ती से टकराने की चाहत में
नुकीली आवाज़ से टकरा गया
जहाँ आँखे बंद करने का आदेश लिए
बस एक लंबी गूंज थी
चुनो गारा लिसे तिनके
और लो हौले बोसे

प्रेम और वासना के मद्धम
और एक ढूंढ को ढूंढो
वह ठहरा अनगढ़
कि कहीं भटक रहा है
चूमकर सीखने
और चूम कर भूलने के बीच

इंतज़ार का दर्द
और उम्मीद की रोशनी के बीच
एक शून्य का बुलबुला
मुसलसल टहलता है
उस पारदर्शी बुलबुले के भीतर

आसमान ताके 
दो नज़रें कैद हैं
उसे क्या पता कि कयामत के दिन
वो अकेला नहीं कयामत भी रो रहा है

2. चुम्बकीय उजास

रोशनी चुम्बकीय हो
तो खतरा और बढ़ जाता है

चौंधियाना उसका पारंपरिक लक्षण
देह मृत हो
तब भी उसका मोहपाश नहीं मरता
भव्यता और भयावहता
आपस में दोनों के जुड़े हैं सिरे
जल से भी जल सकता है कोई
दूधिया चादर से
रोशनी ढकी जा सकती है ?

प्रेम बोसों पर टिका रह सकता है
बल्ब के फिलामेंट में
इतनी बारीक घूर्णन बनी होती है
रोशन करने के लिए
उतने ही चक्कर लगाने पड़ते हैं

जिंदगी को ज्यादा उजास रखने के लिए
कभी कभी थोड़ी देर के लिए ही सही
सारे बल्ब फ्यूज होने जरूरी हैं
बेमौसम ओले अचानक गिरते हैं
बेनियाज़ी हँसी की तरह
मुस्कान को हँसी बनने के लिए
बेगाटेला के छर्रे सा
कीलों से गुजरना पड़ता है

तितिक्षा इतनी आसान कहाँ
दवात से स्याही ढलक जाती है
फिर वापस समूचे नहीं आती
आती है अपनी परछाई पसारती
थोड़ा धूलकण समेटती
जिसे निब पर जाकर
लेखनी रोकने का जिम्मा दिया गया है

3.

किसी ने आने का फाटक बंद किया है
किसी के भाग जाने के डर ने
रोज़ वहाँ इंतज़ार की चिन्दी फड़फड़ाती है
मोहब्बत को बेहद के साथ जुड़ने का इंतज़ार हमेशा रहता है
मोहब्बत बेहद की ओर बढ़े
और अथाह की ओर मुड़ जाए
तो लत बनकर पसर जाती है

पनीली आँखें अपनी हद पहचानती है
पनीला प्रेम नहीं
वो बस बेहद की ओर दौड़ता है
उसे बिना फ्रेम का चश्मा पसंद है
शीशा बदलना आसान है
उसकी आँखें समंदर सी गहरी हैं
और सारा मसला इस समंदर का ही है

जो ज्यादा दिन तक चीजें पास नहीं रखता
वापस कर देता हैप्रेम भी 

4.

एक किरदार को हारते देख
नाटककार दुखी हो जाता है
और उसे जिताने की कोशिश में
लेखक हार जाता है
कौन जीतता है इसे समझने में
समय ने करवट ली है अभी अभी

छूने और देखने के बीच टहलता मन
ग़फ़लत की सीढ़ियाँ चढ़ गया
चिनवा दिए गए दरवाज़े से
एक सोती हुई लोरी सुनाई देती है
जिसके बोल हैं
शाम तो रोज होती है,सुबह कब होगी

गम निगले नहीं जा रहे
और समय है कि अज़गर बना फिर रहा
रुख़रापन भी सहारा हो सकता है
सीढियां ज्यादा चिकनी भली नहीं होती
प्रेम में हल्का महसूसना आम बात है
पर ज्यादा देर तक उठाये रखने से
हौली चीज़ भी वजनी हो जाती है

अल्हड़ता ने परिपक्वता बनने से इनकार कर दिया
पार्श्व की चबक को
किसी के सिर रखने का इंतज़ार
आज भी है