यतीश कुमार के काव्य-संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ की लेखिका डॉ. किरण मिश्रा द्वारा समीक्षा

On 23 October 2024 by डॉ. किरण मिश्रा

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‘The poetry of the earth is never dead- John Keats’ अगर जॉन कीट्स के शब्दों में कहें तो कवि यतीश कुमार का काव्य-संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ सिर्फ उनके अन्तस की खुरचन न हो कर, पृथ्वी पर विचरण करती हर मनुष्य के अन्तस की खुरचन है जिसे कवि ने गहरे वैचारिक- सामाजिक चिन्तन से रचा है

यह कविताएँ समाज के विभिन्न वर्गों से आने वालों का एक सुनिश्चित विवेचन करती दिखती हैं। इन कविताओं में सामाजिक चिन्तन के अन्तर्गत वे सभी विचार उपस्थित हैं जो अन्य कवियों द्वारा भी सोचे या व्यक्त किये गये हैं, लेकिन एक अच्छा कवि वही होता है जो समाज की विसंगतियों को देखे और अपनी अनुभूति की अन्तर्यात्रा से मुठभेड़ कर के उसे नई दृष्टि से रचे । कवि यतीश कुमार जहाँ- तहाँ ‘अन्तस की खुरचन’ में उसी नई दृष्टि के साथ भविष्य घटित करते दिखाई पड़ते हैं।

इन कविताओं में कवि ने सामूहिक जीवन की दैनिक गतिविधियों में आने वाली सामान्य समस्याओं एवं हाशिए पर पड़े मनुष्य, देह, बाज़ार व उनसे उपजी निराशा जैसी सामाजिक समस्याओं के विषय में होने वाले चिन्तन से लेकर सामाजिक उत्थान व सामाजिक पतन के विषय में प्रस्तुत जटिलतम सैद्धान्तिकी तक को समाहित किया है।

“अब मैं इंसानों की श्रेणी से इतर
इंसानों को ही आशीषें बाँटता त्रिशंकु हूँ”

कवि ने ऐसे बहिष्कृत वर्ग को अपनी कविता का हिस्सा बनाया है जो समाज के हाशिए पर दूसरों के लिए ख़ुशी के गीत गा रहे हैं। इस कविता में थर्ड जेंडर की मनः स्थिति को प्रभावशाली ढंग से उकेरा गया है। थर्ड जेंडर के समक्ष सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनैतिक तमाम चुनौतियां हैं जिसे वह पार करके ही सामाजिक अस्मिता के इस संकट से मुक्त हो सकते हैं। कवि ने थर्ड जेंडर पर केन्द्रित कविता में इस समुदाय की संवेदना, उनकी मन: स्थिति एवं उनके संघर्षमय जीवन को अभिव्यक्त किया है।

जीवन संघर्ष और उसकी मानवीय गरिमा से जुड़ा प्रश्न जब एक चीख में तब्दील हो जाए तब समझ लेना चाहिए कि मनुष्यता विडंबनाओं और विषादों के अंधेरे में डूब चुकी है। ऐसे में एक कवि ही उजालों का दस्तावेज लिख सकता है। समाज, मनुष्य और उसके जीवन की कहानी कहता यह काव्य-संग्रह वर्तमान समय के जीवन को बखूबी प्रस्तुत करता है। जब समाज में मनुष्यता का प्रश्न निरर्थक हो जाए और जीना अभिशाप तो समझ लेना चाहिए कि समाज नैतिकता के सबसे निचले पायदान पर है।

आत्मविस्मृति के काल में भ्रम और संघर्षो से भरी इन सदियों ने हमारे अंदर शोषण, उत्पीड़न की ऐसी कहानी रच दी है जिसे हम सच समझ बैठे हैं। अन्तर्विरोधी और पूर्वाग्रहों से जकड़े समय में इंसानियत की तलाश बेमानी हो गई है। व्यक्ति-व्यक्ति में जीने की असमानता और मूलभूत सुविधाओ का न मिलना बेशर्म समाज के अनुष्ठान बन गये हैं। ऐसे समय में रुक कर हमें यह जरूर सोच लेना चाहिए कि हम कहीं भौतिकता के मायाजाल में फंस तो नहीं गए हैं या कहीं बाजारवाद के शिकार तो नहीं । ‘शहर के पुल’ कविता में कवि इसी चिंता को दर्शाता नज़र आता है।

पुल के ऊपर मोटर कारें
अपनी- अपनी गति से भागती जा रही हैं
बाज़ार के इन्हीं खोखले खोल में बसती है
जमी हुई खुरचन ज़िन्दगी की

जब जीने का संघर्ष छटपटाहट में बदल जाए और ज़िन्दगी बेबसी व बेकली में तब सत्ता की अर्थवत्ता असंदिग्ध अस्मिता को व्यक्त कर रही होती है। औद्योगिक क्रान्ति के साथ ही भौतिक साधनों-क्षमताओं में वृद्धि हुई। जीवन एक फ्रेम में फिट हुआ। कैसे बोलना है? क्या खाना है? क्या पहनना है? इस तरह के प्रश्न बाज़ार तय करने लगा। इन प्रश्नों के हल के लिए भागम- भाग में मनुष्यता के प्रश्न गौण हो गये और विकास हुआ एक ऐसी सभ्यता का जो आत्मकेंद्रित हो ऐशो-आराम के इंतज़ाम के लिए निकल गई। ऐसे में ऐसा वर्ग जो इस समय के साथ नहीं चल पाया बकौल कवि उसका वक्त वहीं कहीं पसरा रहा गया। ‘ये दिल्ली है मेरी जान’ कविता में कवि इस दर्द को बयान करता है।

उत्तर आधुनिकता के आते-आते जो संस्कृति और वैचारिकी प्रस्फुटित हुई उसका समाज पर व्यापक असर हुआ। असल में यह असर समाज और सामाजिक अन्तर्सम्बन्ध की देन था जो सम्बद्धता पर आधारित नहीं था। सामाजिक व्यवस्था के Constituent units ने अनिश्चित pattern का निर्माण किया, उसमें स्वाभाविक व्यवस्था का निर्माण नहीं हो सका, फलस्वरूप समाज में कोई प्रकार्यात्मक सम्बन्ध विकसित नहीं हो पाया, जो कि किसी व्यवस्था के लिए अत्यंत आवश्यक है। उपरोक्त कविता में कवि की चिन्ता इसी व्यवस्था को लेकर है।

किसी भी काव्य में भाषा का नहीं, उसकी अनुपस्थिति का महत्व होता है जो हमें ‘शहर के पुल’ नामक कविता में दिखाई देता है। ‘चीख़ती रूहें’, ‘सोर में शोर’, ‘बस अपना जवाब चाहिए’, ‘संक्रमित समय’, ‘भूख’ कविता भी वर्तमान मानव समाज की त्रासदी का चित्रण है। सच बयानी की इन कविताओं को अगर गौर से पढ़ा जाए तो महसूस होगा कि इस समय में मनुष्य के सामने दो ही विकल्प हैं कि वह समाज, राष्ट्र, राज्य जैसी परिस्थितियों के अनुसार अपना अनुकूलन करे। दूसरा विकल्प है कि वह सभी अंतर्विरोधों से टकराए।

“स्वतंत्रता उत्कृष्ट जीवन-मूल्य ही नहीं मनुष्य की स्वाभाविक प्यास भी है। असहमति के आदर से समाज की गतिशीलता बढ़ती है।”

जीवन- संघर्ष और मानवीय गरिमा की तपती हुई धरती पर कवि सिर्फ़ कविता ही नहीं रचता वरन प्रेम भी रचता है। इन कविताओं का हुनर देखिए कि कवि अपने जज़्बातों के साथ मिलने पहुंच जाता है वहाँ जहाँ प्रेम की राहें ठहर गई हैं और शायद कवि की कलम भी।

चेतना और विवेक के बिना ‘प्रेम’ की कल्पना बेमानी है। सामाजिक कंडीशनिंग की प्रक्रिया जैसे ही मनुष्य की प्रकृति में आती है वैसे ही सारे तर्क निरस्त हो जाते हैं और प्रेम घटित हो जाता है। जबकि हम यह जानते हैं कि सामाजिक परिणाम नैतिक मूल्यों से भिन्न होंगे। मनुष्य जीन्स में उसके विवेक के साथ आये प्रेम को उस समय हम क्षणिक आकर्षण कह कर खारिज देते हैं जब हम यह देखते हैं कि समाज का यथावत ढांचा टूट रहा है। एक कवि समाज से अछूता नहीं है। वह भी ‘चुम्बकीय उजास’ में लिप्त होता है और प्रतीक्षा की व्यथा में व्याकुल। लेकिन प्रश्न है कि ‘प्रेम का आरक्षित आवास’ क्या सबके लिए सुरक्षित है?

एलिस वॉकर के शब्दों में कहें तो कविता विद्रोह, क्रांति और चेतना के उत्थान की जीवनदायिनी है। लेकिन यह भी कवि की ज़िम्मेदारी है कि वह उस चेतना का कितना सार्थक उत्थान करता है। कवि की अंतर्दृष्टि एक चरित्र के आंतरिक विचारों के साथ एक रचनाकार का सोच जाहिर करती है। रचनाकार को उसकी रचना में उपस्थिति चरित्र के विचारों को ‘अनफिल्टर्ड’ दिखाने की अनुमति ही रचनाकार के आंतरिक एकालाप को रचकर चरित्र के विचारों, उसके मन के भावों के बारे में जानकारी देता है। ‘देह, बाजार और रौशनी’ की चारों कविताओं में इस ‘अनफिल्टर्ड’ को हम देखते हैं लेकिन चरित्र के विचार कविता में नहीं दिखाई पड़ते। कवि कविता के चरित्र के समाज को तो कविता में दर्शाता है वह देह के बाज़ार का खाका भी खींचता है लेकिन चरित्र के विचारों से बचता है। चरित्र की अंतर्दृष्टि कविता में प्रकट नहीं होती।

उत्तर आधुनिकता के असर के बाद साहित्यकारों द्वारा सामाजिक विचारों के मूल तत्वों के आधार पर ही भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था से उपजे बाज़ारवाद, सामाजिक- आर्थिक सम्बन्ध, सांस्कृतिक अवनति, प्राकृतिक उदासीनता का लेखन तो बहुत हुआ लेकिन उस लेखन में सजीवता कम दृष्टिगोचर होती है। भय- बोध का शिकार होते ऐसे लेखन को देखा जा सकता है। कवि यतीश कुमार ने इस भय को हटा कर कार्य-कारण संबंधों की स्थापना करते अपने लेखन में प्रयत्न किया है इसलिए शायद यहीं से उनकी कविता सामाजिक चिन्तन की तरफ मुड़ जाती है। इंसानियत, समाज, प्रेम, रिश्तों को जाहिर करता कविता संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ मनुष्य की प्रवृत्तियों का मौन है। ये कविताएँ समाज की वास्तविकता को लेकर मानस में प्रवेश करती हैं, लेकिन व्यापकता लिए हुए नहीं हैं, इसलिए प्रश्नों के झरोखे खोल नहीं पाती। हालांकि अनुत्तरित प्रश्नों की यह कविताएँ सच्चाई के साथ चित्रित की गई हैं। हो सकता है पाठक को इसमें एकसूत्रता का अभाव मिले और अंतर्विरोध भी दिखे फिर भी हमारे चारों तरफ ओर बिखरी सच्चाई को दिखाने की कवि की कोशिश का स्वागत होना चाहिए। कवि ने अपने व्यवहार और विचार पर अपने चिंतन को केंद्रित करने की कोशिश की है। यह कविताएँ पाठक को अपने समय की वास्तविकता को समझने में सहायक होगी ऐसा माना जा सकता है।