स्मिता सिन्हा के काव्य-संग्रह ‘बोलो न दरवेश’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 22 October 2024 by स्मिता सिन्हा

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सपने देखना एक नई दुनिया को सृजित होते देखना होता है। आज का समय सपनों को जमींदोज करने का समय है। फिर भी सपने हैं कि आते हैं और लोग सपने देखते हैं। शुक्र है कि विचारों पर और सपनों पर रोक लगाने वाली मशीन अभी तक नहीं बनी। स्मिता सिन्हा ऐसी ही कवयित्री हैं जिन्हें सपने देखने और उस पर अमल करने वाली लड़कियाँ पसन्द हैं। आज स्मिता सिन्हा का जन्मदिन है। स्मिता को जन्मदिन की बधाई देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं सेतु प्रकाशन से उनके हालिया प्रकाशित कविता संग्रह 'बोलो न दरवेश' की यतीश कुमार द्वारा लिखी गयी समीक्षा 'तितलियाँ कब से मरी जा रही हैं अपने कोमल पंख लिए'।

किताब आये कई महीने हुए और मैं एक दो बार चिंतित हुआ कि आखिर क्या मसला है कि चुन ही नहीं रही मुझे। पर चलो 2021 की किताब ने 2021 खत्म होने से पहले ही चुन लिया मुझे।

शुरुआती कविताएँ ही आपको कवयित्री की संवेदनशीलता का परिचय दे देती है। ओस की बूंदें अपना पता भूल गयीं और कवयित्री को यह याद है कि ओस के साथ क्या हो रहा है। उसे पता है कि अंत में वही मिलता है  त्याज्य कोना अभिशप्त और उसे अंदेशा है प्रेम में मिलने वाली संभावित हार का। वो सजग करने की कोशिश करती है कि हे स्त्री! तुम बस एक मोहरा हो अब तो समझ जाओ। स्मिता यहां एकरागा होने की अपील करती हैं। स्त्रियों से कहती हैं –

कल मैं तुम्हारे वक़्त की
एक औरत से मिली
मैं महसूस कर रही थी
अपने कंठ में अटके हुए आँसुओं  का वेग...

अनकहे घुटन को वो महसूसती हैं और अपने को एक गत्ते के डब्बे में बंद चिड़िया के गायन में देखती हैं.... रुकती है.... फिर कहती है एक उदास नदी को थोड़ा हंसने के लिए। वह प्रकृति और मन को एक साथ साधती हैं कविता में और रुआंसे उदास चित्त को बादलों के फाहे से फुसलाती भी हैं और कहती हैं -  रोती हो तुम और संचित मैं करता हूँ आसुओं को कि कहीं न रो पाओगी तो बनता रहेगा 'नमक का 'पहाड़ चुपके चुपके तुम्हारी पीठ पर उग आने के लिए।

कवयित्री को यह भी पता है कि रोने का मतलब कमजोर होना नहीं है। उसे छूटने या छोड़ने का भी मतलब पता है। उन्मुक्तता में मग्न बेख़ौफ़ लड़कियां उसे आकृष्ट करती हैं। उसे सपने देखने और उस पर अमल करने वाली लड़कियां पसंद है। उसे लड़कियों का फीनिक्स बन जाना सबसे पसंद है और वो लड़कियां  भी जो बेख्याली में करती हैं इश्क की बातें पर कभी किसी से इश्क नहीं करतीं!

वह आज  भी यह नहीं समझ पायी मुक्ति की चाह और  चाह से मुक्ति का फर्क... और यूँ बस देखे जा रही हैं एक घर को मकान बनते हुए। पढ़ते-पढ़ते कविताएँ अचानक रुक गया 'जूतों की चरमराहट' कविता के ठीक सामने और सोचने लगा कितनी बेचैनी है इस कविता में जहां लिखा है

'सो रहा है एक अजन्मा बच्चा
और उसकी माँ की चीखें कुंद होकर
लौट रही हैं बार- बार उसी कैनवास में'


अभी जबकि बाकी है अपने जूतों में चरमराहट
उसे लगातार दौड़नी है अपने हिस्से की दौड़....

कवयित्री की संवेदनाओं में रेत पर छटपटाती मछलियाँ उसे विस्थापित लोगों जैसे दिखते हैं और वो बहुत परेशान है पर्यावरण की बदस्थति से और आदम के बिगड़ते तारतम्य से। कवयित्री अंतराल में बहिर्गमन और अन्तर्गमन के बीच दोलित होती हैं जो उनकी मनोदशा  का परिचय भी देता है। 'यात्रा' कविता एक उदाहरण है इस कड़ी में और यहां वो कहती हैं-

'सौ आसमानों को
बाहों में भर कर
धरती तक लाने की जद्दोजहद है यात्रा ...

कुछ कविताएँ खुद से जैसे की गयी बातचीत हो एक अन्तरलाप जैसी। 'थोड़ी सी जिंदगी' में स्मिता जैसे अपने बेटे से बात कर रही हो। उस बातचीत के दरमियां कभी वो अपने बच्चे से बात करती है तो कभी खुद से। उस कविता में शहर और गाँव के अंतर्विरोध की प्रतिछाया भी है। एक माँ की अपनी विडम्बना भी कि अंत में कह उठती हैं 'तुममें बची रहे थोड़ी सी जिंदगी भी'!

यह महज संयोग है कि जब 'दरवेश' सीरीज की कविताएं पढ़ रहा था तो सुबह की पहली बेला थी 4 बजकर 12 मिनट और मन सूफी और फिर कविताओं ने अपनी पकड़ बनाई। इसी सुकून के लिए कविताएँ पढ़ी जाती हैं-

'बोलो न दरवेश
यह तुम हो कि मैं',
ये तुम उतर रहे हो मुझमें
या यूँ ही भरती जा रही हूँ मैं!


इन कविताओं से संवेदनाएं समवेत नाद मधु की तरह टप-टप की उतरती हैं अंतस में। वहां आकर कुछ पल मैं बस कविता को निहारता रहता हूँ जैसे चाँद को निहारता हूँ पानी में जहां लिखा है-

'वही, बस वही बाँधता है मुझे तुमसे
जैसे मछली की उम्र बँधी होती है
पानी के साथ...'।

कविताएँ मुहाने पर एक प्रश्न की तरह मुड़ती हैं जैसे पीर प्रेम में पूछे गए बेहद संवेदनशील प्रश्न जिसके उत्तर आसमानी मिलेंगे ऐसा अंदेशा है कवयित्री को और वो पूछती है 'यकीन मानो दरवेश मैं बिल्कुल नहीं तुम्हारे सोच जितनी, वो जो बिखरती है न हर रोज तुम्हारी देह पर मैं हूँ बस उतनी ही चुटकी  भर धूप जितनी'। कितनी प्यारी बात टकरा जाती है अपनी सूफियाना अहसासात के साथ कि-

'इसी तिलिस्म में है वो एक कोना
जहाँ लौटती हूँ मैं हर बार
नाप कर पूरी धरती'


इतनी व्यापकता को यूँ शब्दों में समेट लेना जैसे दुशाले में समेटे हुए है कोई हज़ार जुगनू और रह-रह टिम-टिम हो रहा है जमीन पर आसमान। स्मिता मुझे विस्मित और बेचैन करती हैं जब लिख देती हैं कि-

'तुम्हारे घुटनों पर सिर टिकाये
सुनती रहूँगी तुमको देर तक
और धीरे-धीरे सो जाऊँगी
अब तक की सबसे गहरी नींद में
तुम ऐसा करना
ओस सी धुली सुबह में जगाना मुझे...'

इस सीरीज में पंक्तियाँ रह-रह कर रोक देती हैं आत्मसात करने की विनम्रता लिए और मैं अन्तरमन में खोने लगता हूँ कि जैसे कोई हम्द पढ़ रहा हो कविता की शक्ल में और अंत में लिख देती हैं-

'बस वहीं खत्म होती थी मेरी यात्रा
हमारे बीच देह भर का फासला था...'


वही पुरानी बात आसमान को मुट्ठी में समेटने वाले शब्दों की ताक़त वाली कविता। इन कविताओं को पढ़ते हुए मैं अमीर खुसरो नहीं उनकी पत्नी महरू के नज़्मों की ओर मुड़ जाता हूँ और लगता है जैसे मौला शाम को उनके लिखे नज़्म आज फिर से सुन रहे हैं। मुझे यह भी लगता है कि स्मिता को अब एक पूरी किताब सिर्फ बोलो न दरवेश सीरीज पर लिखनी चाहिए।

कविताएँ सच है कि विशुद्ध मौन की अभिव्यंजना ही है जिसे अशरीरी रूह से गुजरना होता है किताब के ऊपर उकेरे जाने से पहले। पर यह एक प्रक्रिया है जो अनायास प्रस्फुटित होता है, यूँ ऐसे जबरदस्ती आप संवेदनाओं की तश्तरी लिए प्रस्तुत नहीं हो सकते। स्मिता की कई कविताएँ यूँ ही प्रस्फुटित हैं जो अपनी सुंदर प्रवाह को बनाये रखती हैं और पाठक उसमें डूबता जाता है। पढ़ते-पढ़ते पंक्तियाँ उस पटरे की तरह मिलती हैं जो किसी को डूबने से बचाने के लिए अचानक हाथ लग गयी हो।

कभी निरापद हो कर अपने गम भुला सकने की बात करती  है तो कोई अट्टहास में बस गुम हो जाने की और फिर जाने की बात ऐसे करती है कि-

'तुमने कहा विदा !
और मरती चली गयी मेरी आँखों में
तुम्हारी सबसे प्रिय वह सुरमई मछली'

और फिर आगे लिखते हुए चौंका जाती हैं कि-

'अब भी हर रोज़ फूटती है
मेरे देह से एक नदी
अब भी हर रोज़
मैं खिलखिला कर हँसती हूँ'।

कितनी गहराई में ले जा कर एकाएक पानी के सतह पर तैरने के लिए छोड़ देती हैं कि अब तुम तैरो कि तुम्हें पार करनी है एक सरिता बहाव के विपरीत और कहती हैं कि जरूरी है उदासियों पर लगे बेतरतीब टांकों का हिसाब रखना क्योंकि चुप्पी में उदासियाँ हो जाती हैं ज्यादा धारदार। स्मिता की कविताएं कब बतियाते-बतियाते सवाल पूछने लगती हैं पता नहीं चलता, वह पूछ बैठेंगी सवाल कि वे भूरे बादल जाने कब बरसेंगे, सवाल कि गिद्धों के पंख की चाह में तितलियाँ कब से मरी जा रही हैं अपने कोमल पंख लिए।

'उपसंहार' कविता पर आकर मैं ठिठक गया। दो तीन बार पढ़ी और बार-बार पढ़ना चाहा कि चाहते हुए इस कविता में मरने के तरीके जी उठे, कि मरना स्थगित होता रहे और अंत मे यह याद करते हुए आगे बढ़ गया कि कवि मरता है कविताएँ नहीं और फिर एक ठंडी सांस मैंने भी ले ली।

स्मिता को मैं यहां क्रांतियों की प्रस्तावनाओं से परेशान पाता हूँ। लगभग तीन बार इस बात का जिक्र है और शायद आज की दिल्ली उनके भीतर चित्कारती रहती है कि कुछ मेरे लिए लिखो.... कुछ मेरी गिरती साख के लिए लिखो.... कि कोई कभी यूँ ही तुम्हारी बातें सुन कर कोई संभालने आ जाये और मेरी फितरत में भी कुछ बदलाव आ जाये। वहाँ कितनी एकाकी है वह और दिए की जलती लौ में मांगी जा रही अकेली प्रार्थना कि फिर वो सोचती है अकेले आंसू के बारे में.... गर्भ में पलते अकेले सपने के बारे में कि अकेला होना एक दंश है और इतने बड़े शहर में हम कितने अकेले हैं। भग्नावशेषों के मलबों में सभ्यता का विनाश हो रहा है और वह कह रही हैं उफ्फ!! ओमरान दकनिश, तुम्हारे मौन में भी कितना शोर है। यह पंक्ति कितना विचलित करती है सच और फिर आगे उसी  एकांत में भी वह कहती हैं कि सब कुछ तो लिख देती हूँ और पढ़ भी  लेती हूँ चेहरे की झुर्रियां पर लिख नहीं पाती इतने एकांत में भी पिता का मन..।


इन कविताओं को सहेज कर रखा है कि न जाने ये मुझे कब फिर से चुन लें क्योंकि इसका अब राब्ता है मुझसे मेरे भीतर अटक गई है। कहीं जिसे मेरी लेखनी में आना होगा एक दिन फिर कभी। स्मिता को ढ़ेर सारी दुआओं के साथ कि अगली किताब जल्द आये और मुझे यूँ ही इंतज़ार करवाये ताकि इतने ही इत्मीनान से गुन सकूं फिर से।