बिना किसी भी पूर्वाग्रह के मैंने इस किताब को छुआ। शुरुआती पंक्तियों में ही लगा कि गद्य नहीं है । सोचने लगा, सुजाता कविता क्यों नहीं लिखतीं। ऐसा मैंने रणेन्द्र का गद्य पढ़ते हुए भी महसूस किया था। सिरहाने तंग सी गुजरती रात में मैंने कोई दो तीन-पन्ना ही पढ़ा होगा कि नींद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। इसे आधे रास्ते छोड़े गए शब्दों की ही ध्वनि कहा जा सकता है, जिसने अलार्म की तरह मुझे तीन बजे सुबह जगा दिया। वो दो-तीन पन्ने जो पेचीदगी भरे माथे से पढ़ा था, वो सब अनजान लगा और जब दोबारा पढ़ा तब पंक्तियों ने पंखुड़ियाँ खोली और एक तेज इत्र सी खुशबू ने मुझे घेर लिया। अब मैं शायद किसी उड़ने वाली कालीन पर आराम फरमाते हुए पढ़ रहा हूँ और महसूस कर रहा हूँ कि मेरे जुल्फ जो लंबे नहीं है फिर भी लहरा रहे हैं, जैसे ड्राइविंग सीट पर बैठा हूँ और खिड़की खुली है। भीतर कुछ गुनगुनाहट बुलबुला रही है ।
उपन्यास खुद से बातचीत का ढर्रा पकड़े आगे बढ़ता है और हम इस गुफ्तगू का हिस्सा बनते चले जाते हैं। एक सामान्य घर की तीन बेटियों के बीच सबसे छोटी समय- समय पर अपने बदलते किरदार को सुना रही है। साथ में दो कहानी एक साथ चल रही है जिसे लेखिका ‘एक बटा दो’ की तरह देखने को कह रही हैं। दो किरदारों की कहानी में एक ही सुर है और एक जैसा ही दर्द। यहां पढ़ते-पढ़ते संदर्भों की सूची बनाई जा सकती है। स्त्री-मुक्तता और उन्मुक्तता के अंतर को समझाने के लिए कविताओं का सहारा और बारहवीं शताब्दी की प्रख्यात कन्नड़ कवियत्री- अक्का महादेवी और ललाध्य जैसी प्रेम और अध्यात्म की जुगलबंदी वाली कवयित्रियों के बारे में भी पढ़ने को मिल गया।
उपन्यास पढ़ते हुए दो से तीन पन्नों के दरमियान कोई न कोई ऐसी पंक्ति जरूर टकराती है जो आपको ठहरने पर विवश करेगी और आपसे बतियाने लगेंगी। एक जगह लिखा है 'आखिर चैन से जीना भी तो चाहती है फ़ीमेल बॉडी' और अगले ही पन्ने में लिखा है ' अभी मैं सफेद बादलों को रूह अफजा में भिगोकर खा जाना चाहती हूं' । एक और पंक्ति यहां चिह्नित कर रहा हूँ ' मैं ऐसी फाँसी के फंदे पर झूल रही हूँ जिसके नीचे की स्टूल कभी नहीं हटेगी'।
उड़ान और उनमुक्तता से सिक्त अतरंगी बातें कब आपको कांटों में लिटा देंगी पता ही नहीं चलेगा। उन्मुखी बेलौस हँसी का ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ में बदलना और वहां से अपनी दास्तां सुनाना विचलित करता है। यह दास्तां बाह्यमुखी और अंतर्मुखी की यात्रा में एक साथ आपको साथ लिए चलता है।
सुजाता एक जीवंत दृष्टा हैं, जो सूक्ष्म अनुभवों का असीम विस्तार करना जानती हैं। इसका एक उदाहरण डोर बेल स्विच के बदरंग होने के विवरण में दिखता है। जहां वो लिखती हैं- घंटी का स्विच कभी सफेद हुआ करता था, अब ब्लैक एंड व्हाइट है। अंगूठा जहां छूता है बस वो हिस्सा सफेद है।‘ यह साधारण दिखने वाली बात नहीं बल्कि बरतने के निशान हैं। अपनी जगह को बचाने के भी। एक जगह नायिका चप्पल पर अपने पैरों के निशान देखती हैं। जहां -जहां चाहना और प्रेम की व्याख्या है वहां आपको लगेगा यह मखमली लेखनी है और एक गिलहरी आपकी गर्दन से भी फुदकती हुई पीठ से उतरती चली जाएगी ।
उपन्यास का गठन पहाड़ियों में चलने सा है। पगडंडियों की श्रृंखला-सी । कभी लेखिका उस पगडंडी पर उतर आती है तो कभी इस बिल्कुल पास वाली राह पर। कभी ऊपर की ओर चढ़ने लगती हैं तो कभी ढलान की ओर। यह आरोह-अवरोह का सिलसिला रोचकता लिए है, हालांकि कहीं-कहीं थोड़ी झुंझलाहट भी। यथार्थ और फेंटेसी के बीच का प्लॉट, रोचकता बनाने की खुराक है और यही बात उस उपन्यास को आम से खास बनाने में सहायक भी।
मध्यमवर्गीय परिवार के भीतर रिश्तों में आये कई तरह के खटक- पटक की दास्तां है यह किताब। भावनियता की जमीन पर उगे कंटक पिता, पुत्री, बहन, माँ, पति और जीजाजी सभी को छलनी करते हैं । स्त्रियां यहां छली जा रही हैं और उन्हें इच्छा का मतलब नहीं पता चल रहा है । कश्मकश मूंज की तरह ऐंठी हुई है और कुछ समय बाद जली हुई रस्सी की दयनीय ऐंठ उनके मन की गांठ सी है ।
अगरुधूम-सी झूलती अलकें और आँखों में रहस्य और प्यास की यहां क्रमशः अदला-बदली हो रही है और रुक-रुक कर अनिर्णय अवस्था बन जाती है। सुजाता इस अनिर्णय की लकीर को बहुत लंबा खींचती हैं । मध्यमवर्गीय लोगों की इस दास्तान में खासकर स्त्री की आपबीती का विशेष वर्णन है। जिसे उड़ने का मन बार-बार करता है, कभी उसके डायने छद्म प्रेम पाश ने आलिंगनबद्ध कर सिकोड़ दिए तो कभी तेज जुबानी नस्तर से कतर दिए गए। इस उपन्यास में इसी सिकुड़ने और कतरने की कहानी है।
पति के चोट मारने और माफी मांगने के बीच पिसती स्त्री जिसके खुद के सपने अंतर्द्वंद की फांस में फंसे हैं। प्रेम और उन्मुक्ति का साथ जो स्त्री ढूंढ रही है सौ रास्तों से चलकर भी नहीं मिल रहा। हर रास्ता मंजिल पर नहीं पहुँचाता है पर आगे जरूर ले जाता है। यह उपन्यास भी एक सकारात्मक मोड़ पर, आपको उसे तय करने की जगह छोड़ते हुए आगे निकल जाता है। कुल मिलाकर मध्यम वर्गीय समाज में स्त्री के मनोविज्ञान की वास्तविक स्थिति के साथ-साथ घटित घटनाओं का ताना-बाना अच्छी तरह बुना गया है, जो परत दर परत स्पष्ट होता है। न सिर्फ उपन्यास का रंग जुदा है बल्कि लिखने का ढंग भी अलहदा है। जरूरी विषय पर पठनीय उपन्यास लिखने के लिए सुजाता को बहुत बहुत बधाई।
कुछ कविताई जो इस उपन्यास के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव में लिखी गई है।
1.
नदी बहती है
तो संग बहता है मन
पर जब मचलता है मन
तो नदी में भँवर पड़ जाते हैं।
परास्त मन सुन्न हो जाता है
और पैर के पोर भी
अपने नहीं लगते
रेत पर पाँव के निशान छोड़ते हुए
प्रेम का ऊष्मा रीत जाता है
और ठंड की फुहार का आभास भर
बचा रह जाता है गुमस की घुटन में
स्थिति ऐसी कि
सांस गरम है या ठंडी
न उसकी समझ में आ रहा है
और न मेरी
2.
चौराहे पर अक्सर
वह जिंदगी-सा गोल चक्कर लगाते मिलता
वो तैरता कम है
और लहरें ज्यादा बनाता है
वह इतना सीधा है
कि उसकी जुल्फें बिखेरने का मन करता है
एक जाल खुद बुनती है
और उसी में उलझे रहने का दिल भी करता है
लड़कियों के जीवन में
तिड़कन सुनाई देते ही
पिता पहरेदार बन जाते हैं
और माँ मूक
धोबी के मोगरी-सा बन जाती हैं
मजबूत लड़कियाँ भी
डरी हुई ऐसी
कि अक्सर अपनी बात कहने से पहले रो दे
रुकी हुई साँस
और घुटी हुई आँसू के बीच
लरजती हिचकी ही
अब उसकी सहेली है
3.
बाहर बारिश
और भीतर उमस
अक्सर एक साथ
क्यों बरसते हैं दोनों
उसकी बस छोटी सी इच्छा है
कि कोई उसे देह से ज्यादा चाहे
और धर दिया करे
सरापा भर चुम्बन बिना बात के
पर बिना आंधी के
रेत का एहसास लिए कचोटता है मन
किरकिरी शीशे पर चीखते हुए फिसलती है
और प्रेम में देह पर खरोंचों के निशान उभर आते हैं
नख भर कटे चाँद लिए
पूरा अंधेरा अंतस में उतरता है
एक तीली बस है पास
क्या जलना जलाना है अब यही सोचना है
4.
प्रेम का स्पर्श ऐसा फुहार है
कि आशंकाओं को विश्वास के पौधे में बदल दे
जिन बगीचे में आस है
वे कमसिन बनी फिरती हैं
हौसला वह चिड़िया है
जो सवालों की दिशा में फुदकती हैं
पर सवाल हैं कि गुलेल में कस कर छोड़ो
तब भी वापस लौट आती हैं
रेतीले रास्तों पर
जवाब अब भी मृगतृष्णा है
नजदीक दिखती है
पर हाथ नहीं आती
स्थिति ऐसी
कि झूला है पर सुकून नहीं
हाथ है पर थपकियाँ नहीं
घर है पर नींद ओसारे में ही आती है
5.
छाली की तहों में
चीनी के साथ रेत भी मिला है
रेशम की डोर समझ लपकती है
तो वह मूंज बन जाता है
डायना नहीं है
और उड़ना है
अब बिना आईने के
अपनी सूरत पहचाननी है
उसे उस समय की नदी को
पार कर के निकल जाना है
जिसके आगे वसंत की क्यारियां खिली हैं
और खुशबू इस पार इंतज़ार की शक्ल ओढ़े है
पर यह सच भी पता है उसको
कि पुल नदी को नहीं
समय को भी पार करता है
जिसके अंत में लिखा होता है 'उन्मुक्त गगन'