रक्षा दुबे चौबे हमारे समय की सशक्त कवयित्री हैं। उनके यहाँ उनकी कविताओं में स्त्री सवाल स्वाभाविक रूप से आते हैं। रक्षा को इसका जवाब भी भलीभांति मालूम है। वे उन वर्जनाओं पर सीधे प्रहार करती हैं जो समूचे वैश्विक समाज के मन मस्तिष्क पर सहस्त्राब्दियों से कब्ज़ा जमाए हुए हैं। रक्षा जीवन, खासकर अपने आस पास के जीवन को अपनी कविताओं में यथारूप रेखांकित करने का सफल प्रयास करती हैं। प्रख्यात समालोचक विजय बहादुर सिंह इस कवयित्री के नवीनतम संग्रह को पढ़ते हुए उन्हें बताते हैं "तुम्हारे भीतर जो सहज कवि उपस्थित है उसकी निगाह जितनी अनुभव प्रवण है, संवेदना उतनी ही तरल और मार्मिक है। तुम्हारा कवि जीवन के प्रत्येक पल को इस अनुभव में दर्ज करता रहता है जो इसकी अहरह सजगता के चरित्र को रेखांकित करता है।' हाल ही में रक्षा का नवीनतम काव्य संग्रह 'सहसा कुछ नहीं होता' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह का शीर्षक अपने आप में काफी अर्थवान है। दरअसल यही अर्थवत्ता रक्षा की मजबूती है जो उनके संग्रह की कविताओं में स्पष्ट दिखायी पड़ती है। कवि यतीश कुमार ने रक्षा दुबे चौबे के इस संग्रह पर एक सूक्ष्म नज़र डाली है और पड़ताल किया है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवयित्री रक्षा दुबे चौबे के कविता संग्रह 'सहसा कुछ नहीं होता' पर यतीश कुमार की समीक्षा 'हो जाए समय हत्यारा तो खूब बोलो'।
कटु सत्य को निर्भीकतापूर्वक लिखने वाली कवयित्री की रचनाओं को पढ़ने से पहले अपनी मानसिक अवस्था को परख लेना ज़रूरी है। सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी कारण से इस काव्य-संग्रह को छूने से पहले खुद को तैयार करता रहा। जिसके पिता नहीं होते और जो उन्हीं के हाथों बाजार में उतारी जा रही हों, उसकी पीड़ा को पहली ही कविता में दर्ज करने का प्रभावी प्रयास किया गया है। कविता कई बार दूसरे तमाचे में गले से नीचे उतरती है क्योंकि, पहले पाठ में तो बस स्तब्धता ही हाथ आती है। सलाहियत से भरी कविताओं में लिखा है पिता से ऐसा क्यों ? सवाल नहीं पूछती है लड़कियाँ ! बल्कि वे खुद सवाल बन जाती हैं जिसका उत्तर न पिता के पास है और न ही समाज के पास!
रक्षा, लचर लता को अडिग पेड़ बनने की सलाह देती हैं और कहती हैं- बेदखल सपनों के आगे जाना है तुम्हें और जीत लेना है अपने ख़्वाबों को। कभी ‘प्रोडक्ट’ तो कभी ‘चरित्रहीन’, चाहे जिस नाम से पुकारो वे अपना रास्ता बना ही लेंगी। रक्षा की कविताएँ सीधे शब्दों को तीर बना कर निशाने पर लगाती है और निशाना और कहीं नहीं आपकी मस्तिष्क में घर की गयीं वर्जनाएँ हैं।
कवयित्री ने सूख चुकी नदी के नीचे छटपटाते पानी को प्रतीक बनाया है और स्त्री के असीम दर्द के लिए जिसे सोता भी नहीं मिलता और कोई मुहाना भी नसीब नहीं होता। बस अब टीस है जो बर्फ़ की तरह जमे जा रही है और कविता है कि कहती है मुट्ठी में बर्फ़ कितने दिन रह पाएँगे?
रक्षा मोमबत्ती और दियासलाई की ताक़त पहचानती हैं और लिखती हैं- ‘वो माद्दा रखती हैं दुनिया को ख़ाक कर देने का भी और साथ में यह भी कहती हैं कि उसे औरत होने के साथ-साथ समझा जाए मनुष्य भी।’ वो औरतों की टोली को उसकी शक्ति बताती हैं जहाँ, कोई भी कमजोर सुरक्षित महसूस करे। कविता कभी बेटी बन जाती है, कभी बीवी तो कभी माँ, पर कविता में वर्णित उनकी समस्याओं में कुछ भी नहीं बदलता।
कविता में यह कहना कि `धरती उम्मीद से है’ कवियित्री के दृष्टिकोण के वृहत फलक को दर्शाता है। इतनी बड़ी बात इस सरलता से रच देना ही एक रचनाकार की परिपक्वता है। वह एक सपना देखती है, अकेली स्त्री के अकेलेपन का मतलब कुछ और नहीं समझे जाने का, सुरक्षित महसूस होने का, उन्मुक्त रहने का। वो बताती हैं कि कितना अंतर है एक पुरुष और स्त्री का दफ़्तर में आने में। कितने असंतुलित चीजों का संतुलन लिए स्त्री इस धरती पर जीवन का संतुलन बनाए चलती है।
कुछ कसैली होती कविता के बीच में कुछ कविताएँ रूमानी अन्दाज़ लिए आती हैं जहाँ, स्पर्श अपनी भाषा बतलाती है और पनीली आँखों में जागती उम्मीद दिखलाती है। गृहस्थ प्रेम को चित्रित करती हैं जब, तब बाबा चुपके से अम्मा के मुँह में छुपा कर निवाला डाल देते हैं , उन दोनों को आता है जीवन के व्याप्त खट्टापन को ज़ायक़ेदार बनाने का हुनर और पलकों पर उग आती हैं हज़ार आँखें चेहरे का अनुराग पढ़ने के लिए।
ऐसी ही किसी ज़द में वो भोपाल के झील की सैर पर निकल पड़ती हैं और चमकते प्रेम के सितारों को अपनी अँजुरी में समेट लेती हैं। क्षण भर में नापती है झील और मन की थाह एक साथ और गोलगप्पे खाते हुए ऐसे हँसती है कि खट्टापन मीठा हो जाता है। सूखी टहनियों की बची नमी से प्रश्न पूछती हुई चढ़ जाती है नटनी की तरह नापते हुए बाँस के एक सिरे से दूसरे सिरे के बीच पसरी हुई भूख को। किसानों की परेशानी भी उनसे देखी नहीं जा रही है और फिर व्याकुलता में रचती हैं धरती से ज़्यादा दिख रही है नमी किसान की आँखों में और पूछती हैं मेघ तुम कब आओगे?
`पराजित पिता’ आज का छिछला यथार्थ है। इनकी कविताओं में जहाँ पिता के पंख कमजोर हैं, निर्बल क्रोध से सिक्त पिता बस ठगे-से रह जाते हैं और हारते हैं अपने ही सिपाहियों से। वो समझती हैं कि एक किशोरी प्रौढ़ में बदल जाती है जिस दिन पिता पुत्री की छाती में सिर छिपा कर रोते हैं। रक्षा की कविताओं में पिता गम्भीर हैं, विचलित और अकेले भी। एक अजब पीड़ा लिए अपनों से छले गए पिता सूखे आंसुओं से लबरेज़ दिखते हैं।
कवियित्री इस बात से बेहद परेशान है कि रोजाना कितने सिद्धार्थ करते हैं पलायन परंतु बुद्ध नहीं बनते और उन त्रिशंकुओं से पटी पड़ी है दुनिया जो अब सिर्फ़ दुःख झेलने के लिए अभिशप्त हैं। रक्षा देखती हैं उन सिद्धार्थों को भेड़ों में तब्दील होते हुए, चुनाव के प्यादे बनते हुए और कलियुग के यज्ञ में खुद की आहुति देते हुए।
कवयित्री परेशान है मृत्यु की आहट और आहट से जब आँखों की कोर में जमे कीचड़ पर भिनभिनाती है बन कर मक्खियाँ और सच यहाँ मृत्यु सबसे दुखदायी होता है। समाज के नियम बदलने का आह्वान करती हैं जब दृश्य में पुरुष पकड़ाते हैं मोमबत्तियाँ स्त्री को और अभिनंदन पत्र पढ़ने के बदले मिलता है उद्बोधन देने का अवसर तब दुनिया के बदलने की सूरत दिखती है। `गरम भात’ कविता एक खौलता सच है जो एक ठंडी सिहरन पैदा करती है। चावल के मायने बदल जाते हैं इसे पढ़ते वक्त।
कई छोटी कविताओं का रेला है यहाँ इसे पढ़ते हुए मेरी नज़र `हौसला’ कविता पर टिक जाती है वहाँ लिखा है- `एक छोटी नीली चिड़िया उमगती नदी की लहरों पर छाती मार चुन लेती है दाना! कविता इसी हौसले के साथ उतरती है मुझमें।’ एक और छोटी कविता है जिसने मुझे ताकत दी, जहाँ लिखा है-`कुछ बोझ उठाए नहीं जा रहे, चलो तितली के पंखों से ताकत मांग लो”। और मैं रुक जाता हूँ इन पंक्तियों के साथ जहाँ लिखा है- `जब रमती हैं चप्पलें पैरों के साथ तब तक उतर चुका होता है उनका नमक!’
कर्कश शब्दों के बीच कई कोमल कोपलों का भी ज़िक्र है जब गृहस्थ-प्रेम में कोई चुपके से चश्मा पकड़ा देता है , हौले से कंधा और पीठ (पीढ) दबा देता है, चाय का प्याला देते देते एक अदीठ स्पर्श दे जाता है और ऐसे में बज उठती है सिम्फनी और कर्कश शब्दों के बीच खिलता है कोरस का कमल। कवियित्री इन रिश्तों के बीच अनुबंधों के पूरा होने के ज़िक्र को बचाते हुए उन पर बचे भरोसे का बड़ी साफ़गोई से ज़िक्र कर जाती हैं।
कवियित्री के रूपकों और प्रतीकों का रेंज बहुत वृहत है. कितनी आसानी से दो सखियों को दो द्वीपों का रूपक दे देती हैं जो पास रहकर भी नहीं मिलती और एक-दूसरे के सुख को अपना लेने की चाह में और दूर हुई जाती हैं। उन्हीं दोस्तों को स्वेटर का रूप दे देती हैं और लिखती हैं-न मिले कितने समय पर जब मिलते हैं तो गर्माइश से जिंदा कर देते हैं जीने की ख्वाहिश बार- बार।
अंतिम कविता में मुखर बन एक सार रचती हैं कि
`जो हो जाए समय हत्यारा तो खूब बोलो
बोलो कि, शब्द ही हैं
जो हत्यारे समय के अंधेरे में चमकते सूरज बन
बोलो कि, आवाज़ पुख़्ता सबूत है
हमारे ज़िंदा होने का…’
रक्षा का यह पहला संग्रह एक सार्थक संकेत है कि कविता असली अस्त्र है जिसे चलाने से कवि को कभी चूकना नहीं चाहिए। आशा है कि बेहतर कविताओं की आमद जारी रहेगी। मुझे लगता है, विषय की थोड़ी व्यापकता रह गयी जिसकी व्यक्तिगत रूप से मुझे आशा थी और जिसके लिए मैं रक्षा के अगले संग्रह का बेसब्री से इंतज़ार करूँगा।