राजीव सक्सेना की संस्मरणात्मक किताब ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 22 October 2024 by राजीव सक्सेना

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राजीव सक्सेना जी से पहला परिचय उनके फेसबुक पोस्ट से हुआ। जहां अक्सर वो छोटी-बड़ी संस्मरणात्मक लेख लिखते हैं। चूंकि राजीव जी दशकों से फिल्म एवं टेलीविजन इंडस्ट्री से जुड़े हैं सो अधिकांश लेख कार्यक्षेत्र के आस-पास से ही पढ़ने को मिलता था। उनके लेख ने मुझे हमेशा आकर्षिक किया और मैं अक्सर उन्हें लिख देता- इसे संकलित कर किताब की शक्ल दे दीजिए, ताकि आपके अनुभवों को पाठक इकट्ठे पढ़ सकें।

जरा देर से ही सही, लेकिन लेखों ने किताब की शक्ल ले ली और ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ नाम से प्रकाशित संस्मरण ने नए साल में बतौर पाठक मुझे चुन लिया। जबलपुर के लोगों में साहित्य और कला के प्रति जो प्रेम और समर्पण है वो अद्वितीय है। अगर शहर कोलकाता का मोह छूटता तो वहीं घर बनाता। जबलपुर और वहां की उर्वर साहित्यिक जमीन का जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि राजीव जी का ताल्लुक भी इसी शहर से है।

सपने और वो भी युवा दिनों के सपने, आपकी आने वाली जिंदगी में क्या मोड़ लेते हैं यह देखने वाले को भी नहीं पता होता। यहां सबसे ज्यादा जरूरी है कि सपनों का कटी पतंग की तरह पीछा करना सीखना। ठोकरें ठीक से चलना सिखाती हैं और यही राजीव के साथ हुआ। अस्वीकार की गई रचनाओं को इन्होंने चुनौतियों की तरह लिया और उसकी पकड़ से बाहर जीत कर निकले।

सपनों को कटी पतंग की तरह पकड़ते हुए हमें यह भी स्वीकार करना होता है कि वो धागा जो पतंग से अलग हो गया वह रिश्तों का यथार्थ है और इसे मान कर स्मृतियों का पतंग आपकी प्राप्ति। राजीव के लेखन में भी यही स्मृतियां घुली हैं, जिनसे वो विगत चार दशकों में रु-ब-रु होते रहे हैं।

किताब की शुरुआत ही भोपाल की स्मृतियों को याद करते हुए की गई है, जहां भोपाल से दूरदर्शन और फिल्मों तक की यात्रा करने वाली कई स्त्री कलाकारों का जिक्र है। पल्लवी जोशी, अरुणा संगल, प्रभा माथुर शर्मा इत्यादि कई नाम जो भोपाल से जुड़े हैं, यहां उनका संक्षिप्त जिक्र है। यहीं मैंने जाना और सुखद आश्चर्य से भर गया कि सलमा सुल्तान जिन्हें हम राष्ट्रीय समाचार में खुले बालों के साथ गुलाब लगाए एक खास अंदाज में समाचार पढ़ने के लिए जानते हैं, वो भी भोपाल से ही हैं। यहां न्यूज रीडर से अभिनेत्री बनने की यात्रा में शामिल रहे नामों का भी जिक्र पढ़ने को मिला, जिसमें रश्मि चँदवास्कर सरीखे नाम शुमार हैं।

मध्यप्रदेश की बात से शुरू होने वाली किताब अगले ही पल लोगों के साथ जुड़े भावुक तारों की ओर मुड़ जाती है। राजकपूर के बारे में लिखी बातों से तो थोड़ा बहुत अवगत भी था, लेकिन मशहूर फाइट मास्टर शेट्टी (मधु शेट्टी) और उनके बेटे रोहित शेट्टी से जुड़ी बातों के नएपन नें रुक कर पढ़ने को मजबूर किया।

ज्यों-ज्यों किताब से गुजरता गया, यह समझ में आया कि यह सिर्फ विशुद्ध संस्मरण नहीं है बल्कि इंसानी जुबानों से यात्रा करने वाली जुबानी रोचक कहानियों की शृंखला भी है। इस शृंखला में, भारत और चीन की मैत्री का प्रतीक माने जाने वाले डॉ. द्वारकानाथ कोटणीस (जिन्होंने द्वितीय चीन-जापान युद्ध (1937-1945) के दौरान सिपाहियों का इलाज करते-करते जान गंवा दी) से यह कहानी तैरती हुई फिल्मकार ख़्वाजा अहमद अब्बास और वहां से वी शांताराम तक पहुंचती है जहां फ़िल्मकार वी. शांताराम द्वारा डॉ. कोटणीस पर बनाई डाक्यूमेंट्री का जिक्र है।

लिखने के क्रम में राजीव अपने आभासी मित्रों को भी याद करते हैं और कई साथियों को भी। साक्षात्कार के संबंध में सुनील दत्त के बारे में लिखा अंश बहुत रोचक है। पद यात्रा के बाद भी देर रात खाने के टेबल पर ही बात-चीत कर लेना उनकी सौम्यता और भलमनसाहत को दर्शाता है।

एक जगह जहां हिंदी के प्रख्यात लेखक और पत्रकार राजेन्द्र अवस्थी जी का जिक्र है, वहां पढ़ते-पढ़ते मैं थोड़ी देर के लिए ठहर गया। काल चिंतन लिखने वाले अवस्थी जी जिन्हें मैं मन से गुरु मानता हूँ, उनका जिक्र आया तो मन आह्लादित हो गया। राजीव जी ने यह संदर्भ विदिशा के बारे में बातचीत के साथ लिखा था।

मैंने सोचा था कि संस्मरण है तो लोगों से जुड़े प्रसंग की बहुलता होगी, लेकिन लेखक ने इसके विपरीत स्थानों को इस संस्मरण में व्यक्ति विशेष से ज्यादा तवज्जो दी है। शहरों की बात करते-करते विभिन्न शहरों के नाट्य मंचन की बात करते हैं, जहां भारत भवन की पॉलिटिक्स से लेकर पृथ्वी थियेटर तक को छूते हुए निकल जाते हैं।

जिक्र की इस श्रृंखला के बीच भय्यू जी का संस्मरण भी बहुत रोचक है। लेखक ने बाल सखा का जिक्र किया है जो संत और समाजसेवी होकर नाम कमाया है और उनसे मिलने के लिए राजनीति के शीर्ष नाम भी आतुर रहते थे। संकलन में अशोक कुमार (दादा मुनि) और रेखा के संस्मरण भी पठनीय हैं।

कुल मिलाकर कहूं तो बतौर पाठक इस किताब से मेरी आशा बहुत ज्यादा थी। संस्मरण जैसी विधा जादुई है और राजीव जी को पढ़ते हुए जितना मैंने जाना है, वो इस कला में प्रवीण हैं। हालांकि इस किताब को लिखते-लिखते विषयांतर हो जा रहा है। किस कारण वे यादों का पिटारा पूरी तरह नहीं खोल पाए पता नहीं पर मुझे विश्वास है आग वो इसे और बेहतर ढंग से लेकर आएंगे। जरा सी कमी प्रकाशक की भी है जिन्होंने प्रूफ रीडिंग पर समुचित मेहनत नहीं किया है। दूसरा संस्करण लाते समय अगर इन सुझावों को देख लिया जाए तो नई किताबें कुछ और बेहतर होकर पाठकों तक पहुंचेगीं। संग्रह के लिए राजीव जी को मेरी शुभकामनाएं।