वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राव के कहानी संग्रह ‘कोयला भई न राख’ पर कवि यतीश कुमार के कुछ नोट्स अपने आपमें कहानियों की रीडिंग भी और एक मुकम्मल कविता भी। उनके अपने ही अन्दाज़ में- मॉडरेटर

On 22 October 2024 by राजेंद्र राव

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कहानियाँ मुसलसल चलती हैं मुकम्मल होना इनका कभी भी तय नहीं था। ये कवितायें नहीं थीं। ये कहानियाँ जलने और बुझने के बीच भटक रही हैं जिसकी टीस आपको बेचैन कर देगी। पढ़कर लगेगा प्रेम अपनी यात्रा में हमेशा के लिए निकल पड़ा है और वह जितनी यात्रा तय करता है उसकी मंजिल उससे दो कदम और ज्यादा और यूँ ही मुसलसल चलती जा रही है। कहानियों में सफेद कबूतरों के जोड़े सा दो उजले पाँव दिखते है उन्हें शफ्फाक और आसमान में धुले बादल भी , दरअसल वो प्रेम में बेचैन लेखक की नज़र है जिन्हें मीरा की बेचैनी अनवरत इंतजार में बदलती दिखती है। विशद प्रश्न यह है कि मानो प्रेम का होना उसका “ना होना”-सा हो गया है। कहानी लिखने के क्रम में लेखक कुछ सिरों को खुला छोड़ देतें हैं और कहानी अपने आप बढ़ती रहती है ।आप को कुछ पलों के लिए अपने अनसुलझे प्रश्नों के साथ रहना पड़ता है। इस यात्रा में वो सिरा कब अचानक अपनी सही जगह पर आ मिलता है पता भी नहीं चलता। ये है लेखक की जादूगरी और फिर आपको कथाकार की सृजनात्मकता का आभास विस्मय से भर देता है। अजीब समस्या है कि बत्ती बुझ गयी मन अनबुझा रह गया है शरीर जल रहा है बुझ जाने की आकांक्षा लिए। कहानियाँ कहती हैं चुनना है तुम्हें तिल-तिल जलने का सुख और एक दम जल जाने के बीच समझना ये भी है कि एक रात में दो तारीख का मसला क्यों है ये कभी दिन में नहीं होता मसला तो कमबख्त रातों के संग ही होता रहा है कहानियाँ रात में कत्थई से गाढ़ी काली क्यूँ हो जाती हैं? उनकी कहानियों में पढ़ते वक्त मन पिराता है और वह लिखते हैं क्षणांश में लिया निर्णय उम्र भर कचोटता रहेगा और पढ़कर लगा उफ्फ पानी भी जलकर बादल ही बनेगा बस खौलते पानी को एक जगह मिलने की देरी है। कहानियों के टुकड़े मुझसे बातें करने लगते हैं और लकीर बनने लगती है ।लकीर परिधि का घेरा बनाने की कोशिश करते हैं। जो सब कुछ से,न कुछ होकर ,फिर कुछ की ओर जा मिलती है और फिर अर्ध वक्र बन कर खुला निमंत्रण बन यूँ ही कटी फाँक बनी रह जाती है।जहाँ पर खारे जल जमाव के लिए रिक्त स्थान अभी भी बाकी है।बरसों तलक भरते और बादल बनते रहना भी एक परिधि चक्र ही तो है…. और वो रिक्त सिरा जहां से खारा रिसता है वहाँ लिखा है मैं वहीं हमेशा की तरह सुने घर वाली सुहागन बनी रहती हूँ और वृत्त में अभी भी इंतजार का कोण कटा हुआ है और शायद चित्त में भी। राजेन्द्र जी यह सब आपकी कहानियों ने मुझसे लिखवाया है।सायास नहीं अनायास हुआ सब कुछ। आप लिखते हैं स्प्रिंग डोर न होते हुए भी कुछ दरवाजे हमेशा बंद रहने वाले दरवाजे होते हैं। और मैं कहता हूँ कुछ दरवाजों का महज खुले रह जाना किसी के आने की संभावना के संकेत भी हो सकते हैं। साज का क्या है धुन की बात होती है और उसके लिए खुद की धुन पहले होनी चाहिए।ऐसी धुन जो आपको मलंग बना दे । कितनी आसानी से आप कहते हैं कि उसे हज़ारों लतीफे आते थे और मुझे हँसना पंक्तियाँ इतनी खूबसूरत हैं कि खुद ही बात करती हैं कहती हैं तुम्हें छोड़ हर नए ने पुराने जैसा वर्ताव किया इन बड़े- बड़े सीपियों में दो काले आबदार मोती बस ऐसे कि अभी ढलक जाए! सफेद त्वचा पर फैली नीली नसें मानो स्याही से आँका गया नक्शा बारिश में धुल कर हल्का हो गया पर तुम्हारे काले मोती के आब कम न हो सकें सचमुच निरापद पुस्तकों में कितने विचलित करते हुए शब्द बसते हैं। अपनी नहीं आपकी छटपटाहट को गतिमान करने के लिए । लिखते हैं राशन अब थैलों और बोरों में नहीं आता कागज के लिफाफों या पुड़ियों में आता है। वह मुर्दा गोश्त के बदले जिंदा गोश्त मांगता था वह मुस्कुराता बहुत है पर खुलता कम है जरूरी नहीं कि हर कहानी अपना निष्कर्ष भी तय कर सके । जैसा कि इस संग्रह के शीर्षक में ही निहित है और सारी कहानियाँ मूलतः इस पर खड़ी भी उतरती हैं।जलने और राख होने के बीच विचरित करती हैं ये कहानियाँ।पागल और नीम-पागलपन के बीच की व्यथा । कुछ कहानियों में जीवन का दर्शन रूप भी बदल जाता है ।जैसे खिड़की के दराज से राह बाहर की दिखती है और भीतर की छुपती है यूँ दराज अच्छे हैं पर अगर सही नज़र हों तो वही दराज बाइस्कोप का नज़ारा दिखाते हैं जिसे लेखक की कलम घुमाती रहती है। ये कहानी संग्रह ऐसी ही कहानियों का गुलदस्ता है जिसमें रह-रह कर कांटे भी उभरे हुए सिमटे पड़े हैं और जिन्हें खुली खिड़की नहीं खिड़की के दराज से देखना ज्यादा संभव है । लिखते हैं राह देखते- देखते तो वह एक दिन पथरा गई पिघलाया गया तो गल गई।फिर बन न सकी। उसके पास कर्म के नाम पर बस मूक देखना है सर्कस पर केंद्रित अलग अलग किरदारों को केंद्र में रखकर पाँच कहानियाँ बुनी गई है।सभी कहानियाँ सर्कस के अंदर की मनोस्तिथि और भावनाओं की उधेड़बुन से गुजरती हुई साफगोई से अपनी बात रखी है। इनसे हटकर एक कहानी को पढ़ कर लगा घर के अंदर भी जमी हुई झील होती है ठंडी छिछली झील। रात वीराने में आंधी और झील का युद्ध एक निर्वात रचता है।जहाँ अंत में सिर्फ सुबकियाँ तैरती हैं सुबुक -सुबुक की आवाज प्रथम चाँदना के साथ डुबुक -डुबुक करने लगता है। सुबुक और डुबुक का चक्र किसी व्यक्ति विशेष के अंत पर निर्भर नहीं इसकी चाल आदि काल से चल कर अनंत काल की ओर चल रही है। इस अथक चाल में दुःख, संवेदनाएं और सिहरन देह की अंतर्यात्रा पर निकलते हैं और यह सफर जारी है। असंलग्नता में भी नवीनता का अहसास लिए।