समकालीन कवियों में सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले कवियों में गीत चतुर्वेदी का नाम निर्विवाद रूप से आता है। रुख़ प्रकाशन से प्रकाशित उनके कविता संग्रह ‘ख़ुशियों के गुप्तचर’ को ख़ूब पसंद किया जा रहा है। कवि यतीश कुमार ने इस संग्रह की कविताओं की काव्यात्मक समीक्षा अपनी ख़ास शैली में है। आप भी पढ़िए-

On 29 December 2024 by गीत चतुर्वेदी

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(तीन खंडों में 27-27-27 कविताओं को आदि,मध्य और अंत के क्रम में श्रेणीबद्ध ,संयोजित की हुई कविताएँ ।) अभी पढ़ना शुरू ही किया था कि समर्पण ने जकड़ लिया जहां लिखा था ‘माँ’ के लिए सफहों को पलटा और जाना ‘ मैं कैसे लिखता हूँ?’ पूरा पन्ना कविता की तरह तरल-सा महसूस करने लगता हूँ दांते की बात को दोहराते हुए कहते हैं ‘मैं लिखने की इच्छा से भरा हुआ हूँ,लेकिन शुरू करने की आशंका से घबराया हुआ’ कितनी आसानी से आत्म और अनात्म पर चर्चा करते यूँ ही गुफ्तगू कर लेते ‘मैं इतना धीरे लिखता हूँ कि लगता है ,जैसे दो सौ साल जियूँगा।’ शताब्दियों तक जीवित रहने का सुराग मिल जाता है मुर्दों जैसा सब्र और क़ब्र जैसी बेनियाज़ी चाहने वाले की कलम से शब्दों के संगीत ही तो बजेंगे और तभी दिखता है लिखा ‘ध्वनि से स्नान करते समय शब्द से गीला होता हूँ’ समय का गीलापन मेरे अंदर भी रिसने लगता है। बहेलियों के बुतों पर पंख न चढ़ाने की सख्त हिदायत देने वाले कवि को चिड़ियों के पंख के दर्द की ताकीद होती है वह उस दर्द की बेकली से बोझिल है । नदियों की नाद को सुनने की हिदायत देता कवि सुनने को प्राथमिकता देता कवि रूमी का लिखा दोहराता है ‘कि कोई सुन रहा है ,इस खुशी में मुर्दे भी जाग उठते हैं’ मेरे शहर का जिंदापन मेरे रूह को छूने लगता है। वो किसान की आँखें बादलों के पानी मापते वक़्त पढ़ लेता है जो अदृश्य और अनुपस्थित है उस पर विश्वास करने को कहता है वह आँसूओं से बिम्ब गढ़ता है कहता है ऐसा यंत्र बनो जिसमें आँसू डालो तो पीने लायक पानी और खाने लायक नमक अलग हो जाये वह ‘अब ‘ की स्मृति पर शब्दों की इमारत बढ़ाता है फिर कहता है अनलिखी कविताओं की स्मृति ही आज के किताब की बुनियाद है। प्यार और जिम्मेदारी को एक ही पलड़े में रखता है जिंदगी को दूसरे पलड़े पर फिर जोर से चिल्लाता है कि संतुलन कायम रहे समझाता है कि उड़ो तो चिड़ियों की तरह टूटी हुई पत्तियों की तरह नही फिर हरेक पिंजरा एक यातनागृह लगने लगता है 2 लिखते -लिखते पढ़ते -पढ़ते कई बार आशाएँ इतनी बढ़ा देते या बढ़ जाती है कि कविता में सहज उतरना भरसक मुश्किल हो जाता है प्रेम का अंधापन है कहाँ पता कि सारी उंगलियाँ बराबर नही होतीं… कवि दृष्टि उसे औरों से अलग करती है भलमनसाहत का परचम लिए घूमने वाला आदम लहराती परछाई में भी रोशनी आने का अंदेशा खोज लेता है जो पंख कवि की कमजोरी है वह शक्ति भी देता है वह कभी उसे जड़ देता है तो कभी टूटते तैरते देखता रहता है चमकते-दमकते सपने उम्मीदों के पंख हर पल हौसला तो नही दे पाती है। ‘तुरंत रूठी हुई में’ जादूगरी की वापसी होती है शब्दों को जादू की फूंक की तरह रच जाते है छोटे शहर और बड़े शहर के रूपक से दायरे बनाते कितने आराम से कहते हो मुझे ईश्वर पर नहीं प्रेम पर भरोसा है वह प्रेम ही क्या जिसमें ईश्वर न हो कितने कम समय में कितनी प्रेम कविताएँ लिखने को रह जाती है। तिरस्कृत चीजों पर अटका हुआ है कवि टूटे पत्ते,लावारिश चाभियाँ, बिना काज के बटन,छुट्टे पैसे,तिनके को अपने मर्म का ऑब्जेक्ट बना लेता है कई बार यूँ लगा कि प्रेम में भटकता कवि प्रेम को स्पर्श करके बार बार निहस्पृस्हीय हो जाता है अचानक दो पंक्तियाँ भ्रम को तोड़ देती हैं मानो कवि तो सदियों से प्रेम में डूबा है और लिख देता है इबारत हम दोनों ईश्वर की हथेलियाँ हैं हमें साथ लाये बिना वह नहीं बजा पाएगा ताली 3. जब कभी ईश्वर किसी को दंड देने के लिए अपनी तलवार निकालता यह उस पर जंग बनकर चिपक जाता एक आह्वान की तरह कि मनुष्यता धर्म से ऊपर है कहते-कहते कवि दिल की बात रखते हुए अबोध-सा लगता प्रेम के यथार्थ पर कलम चलाते हुए कहता है प्यार वह फल है जिस पर मासूमियत का छिलका होता है जिसे उतारे बिना फल को खाया नहीं जाता… उसकी संवेदनाओं में तवा का वाद्ययंत्र बजता है सबसे निचले कुचले लोग की कराहने से उत्पन्न मार्मिक धुन आपको बींध जाती है जब दो चीजें मुस्कुरा रही होती हैं मरने वाले की तस्वीर और रोने वाले की गोद में दो माह का बच्चा यह दृश्य बर्दाश्त की सीमा से बाहर है वह बिलख उठता है लिख बैठता है कि दीवार पर बैठे मच्छर को बौद्ध-दर्शन की किताब से दबा दिया गया विफरता हुआ कहता है उसी तवे पर बनी वही रोटी हूँ जो एक तरफ से कच्ची और दूसरी तरफ से जली हुई है। सारे कड़वे अनुभव डेरा जमाए हैं शब्दों की स्मृति में एक बक्से में बंद अनुभवों के झुंड यकायक चीख उठते हैं स्वागत! उपेक्षा! पिटाई! उपहास! वर्तमान वाहन के चार पहिये हैं। इतना सुनते ही वह सजगता से अपने कमीज और किताबों की धूल झाड़ता हुआ चल देता है। उसे पता है कि किताबों और धूल का अंतरंग रिश्ता है चार हर्फों वाली कविता भी लंबी दूरी तय कर लेती है शब्द बयान देते हैं कि कितनी तेज हवा चल रही थी उस समय अगर तुम्हारा एक आँसू इस कागज़ पर न पड़ा होता तो यह कब का उड़ चुका होता एक मीठा चुंबन विहंस कर मौसम के साथ चला गया है। जीवन के अनुभव दरअसल बहुत ज्यादा मायने रखती है आसानी से समझा देता है पराए दुखों की आड़ लेकर बाहर निकलते हैं हमारे निजी दुख हम कभी नहीं जान पाते कि कौन सा आँसू किस दुख के लिए निकला उसका कलेजा इतना छलनी है उसकी यादों में बिछुरन का क्षोभ स्मृतियों के कोलाहल में डूब जाता है वह फिर कहता है ‘ हम स्मृतियों के बम हैं जब फटते हैं भीतर ही फटते हैं। ‘ गंभीरता चुपके से पैठती है और जेहन में मुस्कुराती है कुछ हर्फ मौन हो जाते है मुस्कुराहट की तरह और कहते हैं जो मौन हम गर्भ में सीखते हैं वह कब्र में काम आता है। बाकी सब स्मृति की पुकार है। जब भी पूर्ण विराम लगाता हूँ खुद को अलविदा कहता हूँ मौन ही है जहां ‘पढ़ना जिंदगी के साथ गाया डुएट है ‘। 4. एक स्त्री के इनकार जितना मजबूत दिल लिए कवि समंदर से नदी की ओर उल्टे सफर में है एक लेखक की जिंदगी को समझने के लिए कई बार अंत से प्रारंभ की ओर चलना पड़ता है कवि चलता नहीं प्रवेश करता है -स्मृतियों में फूलों की भी अपनी स्मृति होती है और वो नदी पर अपने विचरण का मानचित्र बनाता है और बुदबुदाता है रास्ता तो नहीं भूल गए लेकिन उसे स्मरण है कि बचपन उसका एक मात्र धर्म है और उसकी प्रार्थना भी यही है कि बचपना लिए वो कूच करे अनात्म से आत्म की ओर पर बचपन भी कौंध जाता है जब कश्मीर के दर्द की दास्तान करते उस बच्चे की खत में सारे धर्म ग्रंथ दफन हो जा रहे होतें हैं शब्द आपको जड़ित करने लगते हैं और दुनिया के सारे सिद्धान्त जो मानवता की ओर जा रहे होते हैं वो और किसी दूसरे नाम-वेशभूषा-भाषा में गाते हुए मिल जाते हैं ‘दया कर म्य दयावानह’ वह पूरी कविता मेरे सीने में एक नस्तर की तरह उतर जाती है मैं उसे वही चुभाए हुए रखना चाहता हूँ मुझे महसूस होता है अगर एक भी हर्फ और मैंने उठाया तो दर्द हज़ार गुना बढ़ जाएगा। और उसे यहीं इसी वक़्त अलविदा कहता हूँ। कहीं से अज्ञेय कह उठते हैं कि ‘दर्द की अपनी एक दीप्ति है और मैं उसे खुशियों का गुप्तचर कहता हूँ