प्रवीण कुमार झा की किताब ‘रूस, रशिया और रासपूतिन’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 22 October 2024 by प्रवीण कुमार झा

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पेशे से चिकित्सक और हिन्दी साहित्य की दुनिया में कथेतर साहित्य  के जाने पहचाने लेखक प्रवीण  की इस किताब में रूस के विकास की कहानी साइबेरिया से होते हुए आधुनिक रूस तक पहुँचती है।  यह किताब कई किताबों से गुजरने के बाद लिखी गयी है। संदर्भों का सिलसिला आपको कई अनजानी बातों से रु-ब-रु कराता चलता है, जैसे कि कालांतर में तैमूर लंग का रूस में हस्तक्षेप, रूस का सोवियत संघ बनने का सफर, मार्क्स और लेनिन का उदय आदि। कुल मिलाकर लगभग 300 वर्षों का इतिहास मात्र 132 पन्नों में पढ़ने को मिल जाता है। प्रवीण कुमार झा सामाजिक-राजनीतिक विवरणों के बीच अपनी साहित्यिक भाषा का भी परिचय देते चलते हैं। एक जगह वह लिखते हैं- ‘कबीलों को तम्बू गाड़ना आता है घर बसाना नहीं’। ईसाई धर्म के विस्तार के बारे में लिखते हैं- ‘धर्म को अगर राजनीतिक प्रश्रय नहीं मिलता है तो यह आगे नहीं बढ़ पाता है।’

ऐतिहासिक सच यही है कि बिना राजकीय संरक्षण के किसी भी धर्म का विस्तार नहीं हुआ और इसका ज़िक्र भी प्रवीण ने अपनी किताब में  किया है। रुस में धर्म की शुरुआती ताक़तों से लेकर रासपूतिन के अभ्युदय और राजतंत्र में उसकी पूरी दखलअंदाजी का विवरण देखने को मिलता है।

प्रवीण कुमार झा बहुत कम शब्दों में कैथोलिक और ऑर्थोडॉक्स के इतिहास को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखते हैं जो कि इस विषय पर पाठक की समझ को विस्तार करने में सहायक है।

यह पुस्तक षड्यंत्रों की पूरी श्रृंखला की व्याख्या करती है। राजतंत्र में गिरजाघरों की पकड़ की गहराई को भी लेखक ने बहुत बारीकी से दर्ज किया है।  लेखक रूस का जिक्र करते हुए विश्व की समानांतर घटनाओं पर भी प्रकाश डालता है जिससे आपको मानचित्र का महज एक टुकड़ा न दिख कर पूरी तस्वीर दिखे। पिट्सबर्ग शहर को केंद्र बिंदु बनाने वाले ज़ार पीटर की कहानी बहुत रोचक है। एक कवि मन जिसने सूफियों सा जीवन जिया और समय के साथ ऐसा बहका कि अपने बेटे की ही जान ले ली।

पुस्तक में वर्णित इतिहास दिलचस्प है। पीटर प्रथम के द्वारा लगाए गए दाढ़ी टैक्स का ज़िक्र यानी दाढ़ी रखने पर टैक्स की कल्पना कौन कर सकता है और वह भी ऐसे भू-भाग में जिनके लोगों की कल्पना भी बिना दाढ़ी के नहीं हो सकती। इसके पीछे पीटर प्रथम की मंशा पश्चिमी यूरोपीयन देशों की नकल के आधार पर नागरिक जीवन तैयार करने की थी। ज़ार से जेरूसलम की कड़ी जोड़ते हुए लेखक आगे बढ़ता है।

सन 1725 के बाद से लगातार महिलाओं के सफल शासन के ब्योरे पढ़ते हुए स्त्री-विमर्श और संगठनात्मक शक्ति का उदाहरण भी देखने को मिलता है। यह सच में सुखद आश्चर्य वाली बात है कि पुरुष प्रधान देश में अठारहवीं शताब्दी में महिलाओं ने परचम लहराया। चाहे कैथरिन हो या ऐना या फिर एलिज़ाबेथ। इन सबों में कैथरिन का महारानी बनना और अपने निरंकुश पति को बंदी बनाना सबसे रोचक घटना है। यह समय शहरों के सौंदर्यीकरण के तौर पर जाना गया, कला और साहित्य की नगण्यता को महिलाओं के शासन में विशिष्ट स्थान मिला। ऑपेरा और थिएटर भी इसी समय आये। प्रवीण ने इस अध्याय को बहुत विस्तार दिया है जो इस बात को इंगित करता है कि स्त्री विमर्श पर एक नयी दृष्टि फिर से डाली जाए।   इन महिलाओं के ही शासन काल में शिक्षा अकादमी गठित हुई और अभिजात वर्ग से लेकर आम जनता तक विज्ञान शिक्षा के माध्यम से पहुँचा। कैथरिन के कारण ही पहली बार टीकाकरण की शुरुआत हुई जो उन्होंने ब्रिटेन के डॉक्टर डिम्सडेल को चुपके से आमंत्रित करके कराया था। उस समय ब्रिटेन भी उनके स्मॉल पॉक्स के उपचार के प्रयोग पर भरोसा नहीं कर पा रहा था जबकि कैथरिन ने वे सारे जोखिम उठाए और खुद पर पहला सफल प्रयोग किया। महिलाओं के योगदान की एक पूरी फ़ेहरिस्त है रुस के इतिहास में जिसे इस किताब के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है।

कई रोचक  घटनाओं के बीच मुझे जो बात चौंकाती है वह है स्व-इच्छुक किसानों का साइबेरिया जाना। जिसका मूल कारण रूस में बढ़ती बंधुआ मजदूरी रही। प्रवीण ने पलायन पर पहले भी लिखा है। गिरमिटिया के दर्द को वे भली-भाँति समझते हैं और यहाँ भी शायद वही दर्द उन्हें खींच लाया हो।

‘रासपूतिन’ शब्द की उत्पत्ति रूस में हुए पलायन से ही हुई जिसने साइबेरिया को बसाने में मदद की। इस किताब को पढ़ते हुए एक और बात साफ होती है कि लेखक और उसकी लेखनी शासक को भीतर तक कैसे हिला सकती है, डरा सकती है और जिसका प्रतिफल है कि लेखक को साइबेरिया में नजरबंद कर दिया जाता है। समय के साथ साइबेरिया में भी बदलाव आता है और विद्रोह के वे सारे पौधे  जो रूस से जड़ समेत उखाड़कर साइबेरिया में फेंके गये गए कालांतर में फलदार वृक्ष बनें और उन्होंने उस क्षेत्र को बेहतर और विद्रोह का गढ़ बनाने में मदद की।  रासपूतिन पर एक पूरा अध्याय है जो इस किताब का सबसे रोमांचकारी रहस्यमयी कथा है।

यह किताब नैनो चिप की तरह है जिसमें दुनिया भर की खबरें रह सकती हैं और प्रवीण की लेखनी में वो दक्षता है जो कम शब्दों में बहुत सारी बात कहती है। रुक-रुक कर वे संदर्भों की चर्चा करना नहीं भूलते। कभी वे अंग्रेजी लेखक चार्ल्स डिकेंस तो कभी सुप्रसिद्ध दार्शनिक जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल की कही बातों को घटनाक्रम से जोड़ते हैं और कभी कार्ल मार्क्स के लिखे कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो को पढ़ते हुए ज़ार निकोलस को या हर्ज़न के लिखे लेखों को दर्ज करना नहीं भूलते। अलेक्सांद्र पुश्किन की वह कविता जिससे दिसम्बर क्रांति की शुरुआत हुई, वह भी यहां मौजूद है। मुझे इस ख़ास संदर्भ को पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार का शेर ‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए’ याद आ गई। प्रवीण के संदर्भों को लिखने की दक्षता रुडयार्ड किपलिंग के उपन्यास `किम’ तक जाती है। वहीं जब वे पंकज मिश्र की पुस्तक ‘धूर्त कट्टरपंथी’ में हर्ज़न के ऊपर लिखे लेख का ज़िक्र करते हैं ये सभी साहित्यिक संदर्भ जो इतिहास और साहित्य को साथ लेते हुए लिखा गये हैं पूरी तरह  तथ्य जुटाने में लेखक के अथक प्रयासों व शोध की ओर इंगित करते हैं।

प्रवीण इतिहास  को  आज के साथ संबद्ध करते है। इतिहास के लिए जितना महत्वपूर्ण किसी सम्राट का आदेश होता है उतना ही समकालीन साहित्य भी होता है। प्रवीण इतिहास को साहित्य के नजरिए से विश्लेषण भी करते नजर आते है। हर रोचक व्याख्यान कुछ न कुछ संदेश लिए है जैसे नेपोलियन से एक बार हारने के बाद भी अपनी युद्ध नीति से हराने का ज़िक्र अलेक्सांद्र की चतुराई को दर्शाता है । इस जीत के बाद ही फ़्रांस की आज़ादी की ख़ुशबू रूस ने महसूस करना शुरू किया। वहाँ के किसानों की स्वायत्तता की लहर रूस में जन क्रांति का बीज बोने लगी। चार्ल्स डिकेंस के शब्दों में  ‘यह आशाओं का वसंत और निराशाओं का पूस था। ’ रोचक और ज्ञानवर्धक बातों का सिलसिला ऐसा है कि खत्म ही नहीं होता जैसे विज्ञान का जो बीज पीटर प्रथम ने बोया उसे निकोलस ने अभियांत्रिकी और औद्योगिकी का जामा पहनाया। निकोलस को तो शुरू में शासन करने की इच्छा तक नहीं थी लेकिन उनके ही अथक व  जिज्ञासु प्रवृति के कारण भाप इंजन पीट्सबर्ग से मास्को के बीच चल पाया। संदर्भों का यह खूबसूरत कारवाँ पूरी किताब  की यात्रा में आपके साथ रहेगा। मसलन  कुमार कौस्तुभ का अलेक्सांद्र पुश्किन की प्रेम कविताओं का अनुवाद का ज़िक्र होना चकित करता है जहां `तू’ का `आप’ से प्रेम करने के निष्कर्ष का ज़िक्र है। पुश्किन की मौत का ज़िक्र भी इस तरह से किया गया है कि पढ़ते हुए दीवानगी के नए मायने समझे  जा सकते हैं। एक कवि जो देश और राजा को हिला सकता है, वो प्रेम के सामने कैसे नम और नतमस्तक हो जाता है और मृत्यु को गले लगा लेता है। इतिहास उसी अंदाज में खुद को दोहराता है जिसे  मिखाइल लर्मोन्टोव ने बंदूक-दंगल में जान देकर साबित किया कि प्रेम सच में अंधा होता है।

विश्व युद्ध की श्रृंखला को समझाने के लिए प्रवीण 19वीं सदी के मध्य की ख़ास घटना क्रिमिया के युद्ध को विस्तार से समझाते हैं । यह एक महत्वपूर्ण घटना है जिसे समझे बिना विश्व युद्ध या यहाँ तक कि वर्तमान रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध को भी नहीं समझा जा सकता। आज जो घट रहा है वो शायद दोहराव है और ऑर्थोडॉक्स और कैथोलिक के बीच के टकराव का ही शायद परिणाम है। युद्ध देश नहीं, धर्म लड़ रहे होते हैं  जिसे सापेक्ष नज़रें देखने में अक्षम होती हैं। यह एक अदीठ सत्य है। तुर्की उसके पीछे तीनों ईसाई देश और इधर अकेला रूस, ये कोई नई बात नहीं बस आज तुर्की की जगह यूक्रेन है। बताया गया कि जेरूसलम उन दिनों इस युद्ध का केंद्र था। इसी युद्ध के बाद लियो टॉलस्टॉय ने विश्व प्रसिद्ध रचनाएँ लिखीं। भारत में इस युद्ध को ज़रूरत से ज़्यादा कवरेज देने वाली पत्रिका ‘बॉम्बे टाइम्स’ बाद में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इज़ाडोरा डंकन अपनी आत्मकथा ‘माई लाइफ’ में इसी जेरूसलम का ज़िक्र करती हैं जो यहूदियों ईसाइयों और मुसलमानों का धर्मस्थल रहा है। उन्होंने उसके अधूरे सपनों के साथ अधूरे मंदिर की बात लिखी है। यह आश्चर्य की बात है कि ग्रीक और रोमन के पूजा करने का क्रम तुर्की सुल्तान निर्धारित करते थे जबकि मुसलमान उनके गाइड थे। वर्तमान में तुर्क जिस तरह से यूरोप के असर में है उसकी जड़ें इस युद्ध तक जाती हैं। इस धर्म युद्ध का शीर्षक किरण सिंह की किताब के शीर्षक से मिलता है `यीशु की कीलें’।

इटली, रोमानिया या जर्मनी क्या युद्ध सृजन भी करता है। क्या युद्ध मंथन है जिससे अमृत निकलता है?  क्या लाशों के ढेर पर शहर बसने के रूप का नाम विकास है ? एक जगह हर्ज़न की इतनी महत्वपूर्ण बात लिखी गयी है कि थोड़ी देर के लिए मैं स्तब्ध रहा। लिखा था- उदारवादी माने सरकार पर आश्रित वे लोग जो सरकार में रहकर सरकार का विरोध करते रहेंगे। भविष्य के दुकानदारों का ज़िक्र करते हुए लिखा है- वे लोग जिसके सहायक सरकार होगी और  दुकान लगाने में मदद करेगी। इन्हीं की बात को समझ कर ज़ार अलेक्सांद्र ने दास प्रथा खत्म की और एक शब्द कहा `ग्लासनोस्ट’ जिसका ज़िक्र बाद में मिखाइल गोर्बाचेव ने किया और सोवियत रूस टुकड़ों में बिखर गया।  ई।एच। कार के शब्दों में कहूँ तो इस पुस्तक में इतिहास न केवल अतीत और वर्तमान के बीच संवाद करता है बल्कि अतीत, वर्तमान और भविष्य के लक्ष्यों के बीच संवाद करता है।

इतिहास जानने के स्रोत भी आज पहले से ज्यादा हैं। यहाँ जानने से भी बेहद जरूरी है इतिहास को समझना। वैसे इतिहास लेखन की कोई एक मुक्कमिल अवधारणा तो है नहीं, उसे तथ्यों और स्रोतों के आधार पर इम्प्रोवाइज किया जाता रहा है।  बहुत पहले मार्क्स इंगित कर गए थे कि सवाल यह नहीं है कि इतिहास क्या है बल्कि असली सवाल है उसे कैसे बदलते हैं। इतिहास को विश्लेषण के आधार पर सचेत योजना के तहत लगातार राजनीतिक शक्तियों ने बदलने की पूरी कोशिश की है। सोवियत संघ के पतन का उदाहरण हमने देखा है कि जिस इतिहास को सचेत योजना के तहत बदला गया वह कभी उस परिणाम को नहीं पा सका।

प्रवीण कुमार झा पाठकों को अतीत की समकालीन कल्पना के लिए छोड़ देते हैं।  रूस के आंतरिक समीकरण को समझने के लिए सिनेमा का सहारा भी लिया गया है और आज के ओटीटी प्लेटफार्म जैसे नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध `द लास्ट जार्स’ जैसे डॉक्यूड्रामा के उदाहरण का भी ज़िक्र है। सोचता हूँ रचना की ताकत क्या आज भी वैसी है जैसी ‘व्हाट इज टू बी डन’ की अपने समय थी। इसका असर इतना था कि लेखक फ्योदोर मिखाइलोविच दॉस्तोएव्स्की जैसे लेखकों को इसका जवाब लिखना पड़ा था। कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस ज़ार ने दास प्रथा खत्म की उसे ही क्रांतिकारियों ने बम से उड़ाया, वो भी तब जब वो हमले के बावजूद इंसानियत पर विश्वास रखते हुए उनसे बात करने पर यक़ीन करते हुए उनसे मिलने आगे बढ़ा। राजा का नाम ज़ार अलेक्सांद्र था। व्लादिमीर यानी लेनिन के बड़े भाई के फांसी देने का ज़िक्र भी पठनीय है। रूस के वर्तमान राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के दादा स्पिरिदोन पुतिन, लेनिन के निजी रसोइया थे। लेनिन की प्रकृति और वनस्पति की गहन जानकारी का ज़िक्र रह-रह कर आता है जो इस शृंखला को  रोचक बनाता है।

कुछ बातें जो आज की नज़र से देखने में आश्चर्य भरी लगेंगी जैसे  सोवियत यूनियन द्वारा ‘रूस का स्वर्ग’ कहा जाने वाला `अलास्का’ को महज सात मिलियन डॉलर में अमेरिका को बेचना! बाबा सिंड्रोम और तंत्र विद्या जैसी बातें रूस में भी वैसी ही दिखीं जैसा भारत में देखा गया है। राजधर्म के इशारे पर चलता कठपुतली राजा दिखा। फ़िलिप और ज़ार निकोलस का भी रिश्ता कुछ ऐसा ही था।

इनसब से इतर प्रवीण  उद्योग और मध्यवर्गीय नागरिकों के बीच की कड़ी को बहुत सुलझे ढंग से समझाने में सफल रहे हैं बल्कि इस नए वर्ग के उदय का आने वाली क्रांति से संबंध समझाने में भी कामयाब हुए हैं। यह वर्ग एक उभरता वर्ग था जो थोड़ा पढ़ा-लिखा और मजदूरी के बीच पिसता वर्ग था। कालांतर में समय की धुरी पर धूल फेंकने का काम करता रहा ताकि थोड़ी देर के लिए समय रुक जाए और उसकी सूरत बदली जा सके।

एक और विवरण बहुत मार्मिक है जहां गोर्की की मौजूदगी में मजदूर और ज़ार के बीच भिड़ंत होती है। ज़ार के खत्म होने की शुरुआत यहीं से होती है। लेनिन और स्टालिन के बीच की कड़ी को प्रवीण रोचक उपन्यास की तरह गढ़ते हैं। गाँव में जैसे पीपल के पेड़ के नीचे बूढ़े बाबा किस्सागोई करते हैं यहां कुछ ऐसी ही किस्सगोई है जैसे कभी इस कहानी में स्टालिन का क़िस्सा चलता है तो कभी लेनिन का उनके साथ गुरु चेला बनने का और फिर इसी बीच चलते-चलते एडोल्फ़ हिटलर का  रूस में टहलने का ज़िक्र है। यही नहीं, लेखक  इसे  विनायक दामोदर सावरकर तक खींच लाता है। पढ़ते हुए यह जिज्ञासा बनी रहती है कि अगली पंक्ति में न जाने कौन सा नया खुलासा होने वाला है। रासपूतिन का जिक्र करते-करते यह किताब सस्पेंस थ्रिलर में बदल जाती है। रासपूतिन का चरित्र कुछ ओशो की तरह दिखता है। रासपूतिन को लेकर तो कहानियों की पूरी शृंखला यहाँ है।

रूस और जर्मनी लड़ रहे थे जबकि ज़ार निकोलस की पत्नी जर्मन होते हुए भी नर्स की तरह घायल रूसियों का इलाज कर रही थीं । ऐसे  दौर में जब लाखों रूसी सैनिक युद्ध में मारे जा रहे थे,  रूस में प्रधानमंत्री बदल रहे थे।  रासपूतिन का किरदार ऐसा है कि इस पर एक साथ कई फिल्में बन सकती हैं। एक तरफ यह जानते हुए कि उसकी जर्मन पत्नी रासपूतिन के प्रेम में विवश है, निकोलस उसकी कद्र करता है।  साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि रूस में ज़ार तंत्र का खात्मा स्त्री-शक्ति ने किया, न कि लेनिन ने।  स्त्री-शक्ति का इससे सच्चा उदाहरण बहुत कम देखने को मिलता है।  बिना चेहरा के फरवरी की यह क्रांति अपने आप में अजूबा थी। अंतिम क्षणों में ज़ार निकोलस के हाथों में लियो टॉलस्टॉय की लिखी किताब ‘वार एंड पीस’ थी। किताबों का महत्व इस किताब में बार-बार उभरता है। लेनिन को ताउम्र किताबें पढ़ते दिखाया गया है। ज़ार को कवियों से डरते हुए बताया गया। यह भी कि संचार के सीमित माध्यमों के बावजूद कार्ल मार्क्स की बातें सब जगह घूम रही थीं। किताब में कम्युनिज़म और उसके पीछे का सकारात्मक पक्ष और वीभत्स रूप दोनों का दर्शन होते हैं। 20वीं शताब्दी में जासूसी का भी एक अलग रूप और रोल मिलेगा। प्रधानमंत्री अपने ही लोगों की जासूसी कराते दिखेंगे तो कभी  दूसरे देशों की। लेखक इसका भी मार्मिक चित्रण करता है कि लेनिन को स्विट्जरलैंड से वापस रूस की धरती पर भेजने वाले जर्मन ही थे  और लेनिन ने जिन परिस्थितियों में ज़ार परिवार और बच्चों की हत्या करवाई वो कितना शर्मनाक था। यह किताब परतें खोलने में कामयाब है और किताब के अंत में लेखक यूक्रेन और रूस के बीच की वर्तमान लड़ाई का भी संक्षिप्त ब्योरा देता है और नेपथ्य में घटित कारणों की समीक्षा भी करता है।

प्रवीण रेशा-दर-रेशा प्रथम विश्व युद्ध की परतें खोलते हैं। जर्मनी, रूस, ब्रिटेन में रस्साकशी कैसे शुरू हुई, सर्बिया की क्या भूमिका थी, अस्ट्रिया क्या कर रहा था, इनसब में लेनिन और स्टालिन को क्या फायदा हुआ जैसे और भी बहुत से सवालों के जवाब पाठकों को मिल जाते हैं।  इतिहास के आस-पास बुने गयी यह कथा भी इतनी रोचक  हो सकती है, इसकी कल्पना मैंने नहीं की थी। हालांकि विदेश की भूमि पर गये कर्मवीर गिरमिटियों पर आधारित शोधपरक पुस्तक ‘कुली लाइन्स’ पढ़ने के बाद मैं प्रवीण की शैली समझ चुका था और यह अंदाजा था मुझे कि यह किताब दो कदम आगे ही होगी।

कुल मिलाकर यह किताब आपको रूस के तीन सौ साल के इतिहास का संक्षिप्त परिचय देती है। लेखक ने अपनी शैली से इसकी दिलचस्पी को बरकरार रखा है और अन्तर-अनुशासन आवाजाही को कहीं नहीं छोड़ा है।  इतिहास एक तरह की निर्मिति ही तो है। प्रसंग की पृष्ठभूमि में कई संरचनाएँ होती है और सभी तक पहुंच पाना एक ही पुस्तक में संभव भी नहीं है। प्रवीण ने कथेतर शैली में अपनी दक्षता सिद्ध की है और ज़्यादा से  ज़्यादा जानकारी बहुत कम शब्दों में बहुत सुंदर तरीके से दिया  है,  मसलन 1920 के बाद क्या हुआ, व्लादिमीर पुतिन के दादा रसोइया थे और वहां से पुतिन के राष्ट्रपति बनने की कहानी, बेरोजगारी के दिनों में हिटलर रूस में क्या कर रहा था, फ़रवरी की क्रांति अगर महिलाओं के नेतृत्व में हुई तो कोई भी प्रखर चेहरा आगे क्यों नहीं आया, 9 सालों तक तड़ीपार रहे लेनिन जनता का चेहरा कैसे बन गए, रासपूतिन का साइबेरिया से मास्को का सफ़र, लेनिन का अंत जैसे अनगिनत सवालों के साथ स्टालिन। किताब खत्म होते-होते पाठक मन में जिज्ञासा से भरे ऐसे बहुत से प्रश्न एकत्रित हो जाएंगे जो जवाब ढूंढने के लिए आपको प्रेरित करेंगे। वैसे भी हम एक इतिहास में नहीं, कई-कई इतिहासों में रहते हैं और हर इतिहास सत्ता के संघर्ष का अखाड़ा है। प्रवीण इस किताब के माध्यम से हमारे समकालीन बोध और अनुभव को समृद्ध करने और परिवर्तित करने में सफल रहे हैं। इस महत्वपूर्ण किताब के लिए प्रकाशक को भी साधुवाद।

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