1.
समय की टहनी पर टंगा चाँद
निहारता है मुझे
और अपनी ही छाया की गिरफ़्त में
छटपटाती हूँ मैं
सीली-सी रात मेरी सहेली
और कौतुक मेरा राहगीर
दोनों के बीच
दिल के गड्ढे से चाँद को अपलक देखती मैं
छाया की छतरी में अपने ही साए को देखती
मुस्कुराते हुए कहती
अधूरा या जूठा नहीं
पूरा का पूरा चाहिए मेरा चाँद
ख़ुशी की खनक में बोरसी भर जाड़ा तलाशती
धूप को कमरे के कोने में समेटती
अचक्के ख़्यालों से टकराती
और फिर संगीत की धार बन जाती
2.
द्वैत और अद्वैत के बीच
प्रेम चाक-चाक करता बार-बार
फिर वही चाक करती नज़र
बन जाती दवा भी और दुआ भी
उस पर यह जादू
कि दर्द दे रहा है मरहम
विडंबना यह कि किसे रखूँ सीने में
और किसे छोड़ दूँ
समय की कील पर
सपनों से भरे किसकोल टंगे हैं
अब सपनों का लोबान चख रही हूँ
लगा कहीं कुछ जल रहा है शायद
मुश्किलों को बौना बनाने का हुनर
इस ज़िंदगी की तलाश है
और किसकोल लिए फिर रही हूँ मैं
भीतर पीरान्हा मछली-सा कतर-ब्योंत जारी हैं
बुहारना आता नहीं
और इच्छाएँ चिंदी-चिंदी बिछी पड़ी हैं
3.
रूमानी उदासी मीठा शग़ल है
मानो नशे जैसा कोई साथी साथ हो
जो होने और न होने के बीच
ख़ुद को टटोलने की आहट सुनाता है
किसी का नाम
मिठास बनकर होंठों पर पसरता है
कि तभी नमकीन माज़ी का लार
ज़ायके को अम्ल में बदल देता है
वो जरा सा स्मित नहीं
स्मृति का पूरा झोंका है
जो रह-रह कर बारहा तपते छत पर
बारिश की बूँदों की तरह छिटकता है
प्यास नहीं बुझती
बस भाप-सा ग़ुबार उड़ता है
4.
धड़कन दो और सुर एक
नज़र दो और प्यास एक
तभी दुलार और तीखी चाह के बीच
झंकृत बींधा तार तड़प उठता है
कैसी विडंबना है
कि बाँध रही है या बींध
पता ही नहीं चलता
भीतर और बाहर
बेवजह भटकने का सबब
किससे पूछूँ
इंद्रियों की सारी चाह
दहलीज़ पर भटक रही है
एक-एक कर मैं उनके दिए बुझा रही हूँ
तभी इच्छाओं की खदबदाहट
में हम्द-सा लोबान उठा
और मैं उस ख़्याल से लिपटकर
ख़ुद से ही शरमा गयी
5.
मुस्कान के पीछे
हताशा और भूख बातें कर रहे हैं
सच्चाई से पलायन का सुख भोगते
सूरजमुखी से धूप का वादा कर रहे हैं
इस जड़ शून्य समय में
कुचले फूल की बास लिए
अपने आब से भटक दोआब के जोड़े के बीच
सकुचाते बह रही है एक नदी
प्रेमियों से भाग रही हूँ
ख़ुद से भी
प्रेम मेरे पीछे भागा आ रहा है
और निस्संगता मेरा हाथ पकड़े है
घर होना और घर से भागना
पतंग होना और उड़ाना
एक साथ चाहते हैं
और अंत में आदमी कछुए-सा
ख़ुद में सिकुड़ा मिलता है
6.
उधार में मिले शब्दों को चुभलाती हूँ
झाँस का रेला उड़ेलती हूँ
एक शॉट की तरह भीतर
उतरती है उसकी याद
स्मृति के उस पर्दे के पीछे उगा सूरज
हमेशा खड़ा मिलता है
धुकधुक में हूँ
कि परदा उठाऊँ या ख़ुद में छिप जाऊँ
बंधे स्नेह के तार अब कटीले हैं
फूल की डाली में सिर्फ़ काँटे हैं
काँटों में कली के उगने का इंतज़ार लिए
फूल सर झुकाए अब भी खड़ा है
लगता है जैसे
छलनी करता हुआ ड्रिल मशीन
चला दिया गया दिल पर
मानो अभी वहाँ पर बोया जाना है कुछ
7.
बरजने और झिड़कने के बीच भी प्रेम
सिर्फ़ माँ करती है
पिता प्रेम में माँ की नक़ल भी
ठीक से नहीं कर पाते
खिड़की ने बाहर की ओर खुलना बंद कर दिया है
अब सिर्फ़ भीतर खुलता है
भीतर सब अनझाँका छोड़कर
हम दरवाज़े से निकल जाते हैं
कीड़े से बचने के लिए
जाला बचाए रखा है
जाला से बचने के सहारे
ढूँढ रही हूँ
छुईमुई पौधे की तरह
सिमटे आरज़ुओं का एक शहर बंद है भीतर
एक आदिम चीख
रह रह कर छुईमुई के खेल खेलती है
सोचती हूँ, सूरज को उगते सब देखते हैं
चंद्रमा को डूबते कौन देखता है
मेरे भीतर के समंदर में अभी-अभी
पूरा का पूरा चांद डूब गया है …
8.
आशनाओं के नन्हे फूल सुबकते हैं
उस रात को याद करते ही
रात में बदल जाती हूँ
सुबह भी शाम का इंतज़ार करता मिलता है
हदबद मन अपने ही बनाए
बाँध तोड़ने को मचल उठता है
अब उस तितली स्पर्श को ढूँढ़ रही हूँ
जो बस उस टटके मन को याद है
ठीक उसी समय बासी एहसास
अरराकर गिरते हैं यादों के आले से
फूलों की ख़ुशबू वाली आस लिए
निंदासा मन
उसके पूछने और मेरे बरजने के बीच
टहलता है
भय और प्रेम का एक हो जाना
ख़तरनाक प्रक्रिया है
पर ख़तरनाक अब इतना आम है
कि संवेदनाएँ और शरीर बस म्यूट हो जा रहे हैं
9.
अलना पर टाँगती हूँ सपने
और सुबह फ़र्शनशीं मिलते हैं
संतुलन का डंडा हाथ में लिए
सपनों की उस पतली डोर पर
चल रही है
जिसके छोर पर है पतन और प्रगति
सपने में उसे भेड़ों का झुंड दिखा
और हांकता हुआ एक आदमी भी
जागते हुए वह कहती है
आदमी को भेड़ बनाने का हुनर उसे नहीं आता
उस घर में
कोरी साड़ियाँ पूरे दिन फड़फड़ाती
और रात को उनकी आँखें
पीपल देवता की जलती आँखों से मेल खातीं
कच्ची अमिया कुतरती बच्ची को
सपने कभी खट्टे नहीं लगते
वह उलटे हाथों से नींद पोंछती है
सपनों को नहीं
बच्ची जब बड़ी होती है
सपने देखते हुए चाय की प्याली
हर बार ठंडी हो जाती है
और फिर उसे चाय से नफ़रत हो जाती है…
10.
विडंबना है कि
कोई स्पर्श को आग्रह,
आलिंगन को क़ब्ज़ा
और कराह को उत्तेजना न समझे
विडंबना है
कि अवसाद का कम्बल ओढ़े
मुस्कुराती हुई लड़की
उसे सबसे खूबसूरत लगी
अजीब घूरपेंच है
कि सबसे सुंदर लड़की
छूते ही घोंघे में बदल जाती है
जबकि उसे लता बनना था
11.
बेचैनी का कॉर्क लगे बोतल में
हज़ार सवाल बंद है
और उसकी पेट में ऐंठन ऐसी
कि माहवारी का दर्द हो
सवालों के पुर्ज़ों में दर्द लिखा है
विडंबना है कि
दर्द से भरे दिल साँस कैसे लेते हैं!
पहले दिखी तितली
फिर तिरती खिलखिलाहट
तब झील भी मुस्कुराई
चाँद ने जब डुबकी भरी
उसने चाँद की नकल कर ली
अब वह कहीं नहीं है
और चाँद भी है ग़ायब
हाँ झील में एक चाँद जैसा कँवल फूल खिला है
12.
धीरे-धीरे भूलने की बीमारी बढ़ती जा रही है
पर मुझे गौरैया का फुदकना अब भी याद है
गिलहरी का चढ़ना और उतरना दोनों याद है
और मुझे याद है किसी का मेरी छाती पर हाथ रखना
बीतता साल मुझे साल रहा है
भँवर में घूमते एक पत्ते को देखती हूँ
वह पत्ता मेरी शक्ल से आ मिलता है
अब उस बुरे समय को
अँजुरी से पोंछ रही हूँ
पहले आता था
तो बहिश्त का एक टुकड़ा साथ आता था
अब वह एक उजाड़ लिए घूमता है
जबकि मुझे बारिश की फुहार पसंद है
13.
दिनों का हिसाब रखती रही
अब घंटों का रखती हूँ
इंतज़ार में, घंटा दिन सा कब लगने लगा
पता ही नहीं चला
लगा दिनों, महीनों या घंटों के नहीं
भावनाओं के अधीन हूँ
पर नहीं पता था
कि भावनाओं का भूगोल नहीं होता
भीतर इतना भर गया है
कि चीख-चीख कर ख़ुद को हल्का करती हूँ
अंतस का फूल मुरझा रहा है
और स्पर्श की फुहार ग़ायब है
यक़ीन पर यक़ीन नहीं हो रहा
मेरी कविता को उसकी नज़र लग गयी
और अब राख़ बनने से पहले
जलते काग़ज़ सा सिमट रही हूँ
सारी तीलियाँ जल चुकी
अब ख़ाली खोल हूँ
मुक्ति मेरे भीतर एक कराह में क़ैद है
जबकि ख़ुद से प्यार करना मुक्ति है
14.
डर नहीं रहता है
स्वाद रहता है
चोट मिट जाती हैं
सनाका साथ रहता है
देखती हूँ, उसके नहीं देखने को
सवाल सुलगते हैं क्षण भर को
और फिर सिगरेट के राख की तरह
भुरभुराकर गिरते हैं ज़ेहन में ही
पत्तियाँ फुसफुसाती है ‘अंधेरा-अंधेरा’
अंधेरे में ही
बिना देह के फड़फड़ाती कमीज़ सी
दो छोर के बीच झूलती हूँ
विडंबनाओं का झूला झूलते हुए लगता है
दोनों छोर पर पा गई हूँ प्रेम
ऐसा सोचते हुए और ज़ोर से झूलने लगती हूँ
15.
एक टेर है
मानो अंतिम ही हो
प्रेम में अफ़ीम सी पिनक लिए
संकुचित दिल आज भी उड़ना चाहता है
इसी बीच
मुहावरों से भरी ज़िंदगी में
हरसिंगार बन कर आता है कोई
और हज़ार खिड़कियाँ खोल जाता है
जितनी बार मिलती हूँ
लगता है
मेरे ही अंग दोबारा वापस मिल गए
हमारे बीच बहुत कुछ अलग है
स्मृतियों को छोड़कर
जबकि सच यह है कि सपनों के साथ
तस्वीरों में भी मुस्कुराना चाहती हूँ ।।