यह उपन्यास अकबर के कार्य काल की पृष्टभूमि, एक चित्रकार के दृष्टिकोण, उसकी सोच और उसकी अपनी जीवन यात्रा के इर्द-गिर्द घटती घटनाओं का ब्यौरा है। साथ ही साथ आगरा की सिसकियों और सीकरी के मुस्कुराने की कहानी भी। थोड़ी कथेतर, थोड़ी कहानी इन सबको मिला कर यह समग्र उपन्यास लिखा गया है। एक रूहानी शहर आगरा को छोड़ पथरीले टीलों के प्रदेश सीकरी को नयी राजधानी बनवाने के लिए माकूल सनक चाहिए और इसी उपन्यास में एक जगह लिखा है- "शहंशाह बिना सनक के अधूरे लगते है।" इस सनक का ज़िक्र गिरीश कर्नाड के नाटक "तुग़लक़" में भी मिलता है। तुग़लक़ भी हिन्दू धर्म का आदर करता था और बराबर की जगह देने की बातें करता था पर इतिहास में इन दोनों मुगल शहंशाहों की कहानी एकदम विपरीत है।
उपन्यास के किरदारों की बातें करनी ज़रूरी हैं ताकि उपन्यास की महत्ता को बेहतर तरीक़े से समझा जा सके और उस पर खुल कर विवेचना भी की जा सके। इस उपन्यास का एक-एक किरदार अपनी अलग छाप छोड़ता है जो इस उपन्यास को और ख़ास बनाता है। उपन्यास की शुरुआत में अकबर को 28 साल का युवा दिखाया गया है जिसे हाथियों की लड़ाई देखने का शौक़ था और वह किसी भी हाथी के पागलपन को अपने नियंत्रण में रखने का नशा रखता था। कबर मुग़लों की राजधानी आगरा से फतेहपुर सीकरी ले आए, साथ ही जो बेहतर कलाकार, चित्रकार थे उन्हें भी।
सीकरी के ही फ़क़ीर "सलीम चिश्ती" ने अकबर को तीन बेटों का बाप बनने की दुआ दी। उसी फ़क़ीर के नाम पर उसने अपने बेटे का नाम सलीम रखा। बाद में सीकरी को छोड़ अकबर ने लाहौर में भी समय बिताया। हमलावर मुग़लों के साथ हिन्दुकुश को पार कर आने वाले गिनती के कलाकारों में अब्दुस समद शिराजी (ख़्वाजा) भी शामिल था जो फ़ारस से आया था। चावल के एक दाने पर पूरी मुग़ल फ़ौज को उकेर देने वाला शख़्स कलमघर का मालिक भी था।
बिहज़ाद, ख़्वाजा का बेटा, एक ऐसा चित्रकार जो जिस्मों की नहीं रूहों की तस्वीर बनाता था। तूलिका के पास मुहब्बत के राज़ बताने की ज़ुबान नहीं होती और उसे अदीठ मुहब्बत पर यक़ीन था। वो ख़ुद में उमड़ते प्रश्नों से परेशान चित्रकार था। एक चित्रकार पर सिर्फ़ जंग यानी रज़्म और बज़्म की तस्वीरें बनाने की बंदिश क्यों है? ऐसे चुभते हुए सवालात मुग़लिया शासन से पूछने वाला यह युवा चित्रकार 'अकबरनामा' में अपना हस्ताक्षर छोड़ेगा और फिर उसका हस्ताक्षर 'अकबरनामा' पूरा होने के पहले ही कपूर और इत्र की ख़ुश्बू की तरह उड़ जाएगा यह किसको पता था!
बिहज़ाद एक निरक्षर युवा चित्रकार है जिसकी अनुभविकता ही उसकी कल्पना और कला का मुख्य स्रोत है। जबकि प्रेम और भीतर उमड़ते प्रश्नों के संग विरोधाभास लिए अंतर्द्वंद्व से लड़ना उसके रोज़मर्रा में शामिल है। एक स्वप्नद्रष्टा जिसमें इंसानियत की मात्रा थोड़ी ज़्यादा थी, जिसके सीधे-सुलझे तर्क थे जैसे वो पूछता- 'जिस शहंशाह ने जानवरों के शिकार पर पाबन्दी लगायी हो उसे क्या इंसान के शिकार की तस्वीर बनवानी चाहिए?'
उम्र में बड़े पर अज़ीज़ दोस्त सलीम अमीरी (रंगों का एक अनुभवी व्यापारी) से विवेचना करते समय उनकी दादी की नेपथ्य से आवाज़ आयी थी जो अत्यंत दार्शनिक बोध लिए है, - “अंधा आदमी वैसे ही हँसता है जैसे एक शराबी सोता है।”
उसके गुरु की ज़ुबान में यूँ कहें कि बिहज़ाद को मालिक की पवित्र दृष्टि अता थी जो ग़लत को ग़लत कह सकती थी। उसे पता था कि अल्लाह की मर्ज़ी की तस्वीरें बनाने और लोगों के सपनों की तस्वीर बनाने में बड़ा फ़र्क़ है। उसकी चित्रकारी में हर चीज़ सधी और संतुलित थी। एक चित्रकार जो इंसानी दैहिक प्रेम से कहीं ऊपर उठ कर उसकी पवित्रता को महसूस कर सकने में सक्षम था पर उसे इसी प्रेम की लौ में जलना पड़ा और न जाने कितनी यात्राएँ करनी पड़ी। समय के अनवरत पड़ावों से गुज़रते हुए जब हल्की सफ़ेदी उसके बालों में आई तो वह पूरी तरह आज़ाद था।
उसे देश निकाला उसके अपने ख़्यालों की चित्रकारी करने के लिए मिला एक नया क्षितिज था जहाँ अलौकिक धवलता की उजास चित्रों में महसूस किया जा सकता था। वह एक बदसूरत दुनिया में सुंदरता खोजने के लिए निकला यायावर था।उस समय के कानून के होमोफोबिक प्रावधानों के बावजूद, कथा समलैंगिक प्रेम की ओर भी इंगित करता है। यह ऐतिहासिक, कलात्मक आनंदमय यात्रा है, यह कला की प्रकृति पर एक कालातीत विमर्श भी है। कला भौतिकता से एक पृथक आयाम देती है।
एक और किरदार है जुलेखा, ख़्वाजा की पत्नी, एक स्वतंत्र ख़्याल महिला। मुझे उसने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया। पति किताबघर का मालिक फिर भी इत्र का कारोबार करती थी, जो उस समय-काल में स्त्री स्वतंत्र का उदाहरण है। उस काल में यूँ स्वावलंबी होना विरल ही है। लेखक ने इत्र बनाने की प्रक्रिया का वर्णन इतने विस्तार से किया है, जैसे- पंखुड़ियों को सुखाना, अर्क बनाना, ख़मीर उठाना, भाप की बूंदों को इकट्ठा करना, कि पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि आप भी इत्र बनाने में माहिर हो गए हैं। इत्र के साथ सपने बेचने का भी हुनर था जुलेखा के पास। उसे पता था कि ‛शराब और गुलाब की आपस में नहीं बनती’ और ‛गाने वाले पंछी अक़्सर क़ैद हो जाते हैं और उल्लू मदमस्त आज़ाद घूमता है।' उसने प्रेम किया, निभाया और उस प्रेम की आग में जल गई जिसकी लौ कभी बिहज़ाद तक नहीं आने दिया। विशुद्ध प्रेम का इससे बड़ा क्या उदाहरण होगा। सुलेखा का प्रेम अद्वितीय, अलौकिकता से परिपूर्ण था जिसे समझने में एक चित्रकार भी चकमा खा गया।
बिहज़ाद के गुरु मीर सईद अली की एक बात दिल को छू गयी जिस पर उसने ताउम्र अमल करने की कोशिश की। "मर जाने के बाद अपनी क़ब्र ज़मीन में मत तलाशो उसे हज़ारों-लाखों के दिलों में तलाशो"- महानतम सूफ़ी - जलालुद्दीन रूमी की मज़ार पर लिखे स्मृति-लेख।
रूह का शरीर होना और फिर रूह होने का रूपांतरण बादशाहों के व्यक्तित्व का हिस्सा है। ऐसी बड़ी रोचक बातें हैं इस उपन्यास में जैसे बादशाह शिकार करते और दरवेश बचे हुओं की ज़िंदगी की प्रार्थना करते। शाही शिकार का ज़िक्र इस तरह है जैसे आप ख़ुद शिकार पर निकले हैं और सारी गतिविधियों का मुआयना कर रहे हैं। चित्रकारों का शिकार में भी योगदान हो सकता है यह इसको पढ़ते वक़्त समझा। एक मचान पर शिकार होते दृश्यों का सजीव चित्रण लोमहर्षक ही होता है। उपन्यास में बहुत विस्तृत चित्रण है इस पूरे विषय पर। जुलेखा और सलीम की अमीरी की बातें बिहज़ाद के लिए एक सबक से कम नहीं। जैसे: -
"मोहब्बत की लत शराब से बेहतर है?"
"इश्क़ में मुब्तिला आदमी चींटियों के पैरों की छुअन भी महसूस कर सकता है।"
इस उपन्यास में अदिली अफ़गानी चित्रकार का भी वर्णन है जो अपने ही शर्तों पर काम करता है और अपनी शोहरत के लिए कुछ भी कर सकता है। कुछ और जानकारियाँ आश्चर्यचकित करती हैं जैसे आरंभ में जिस शहंशाह ने इतने शिकार किए कि जानवरों की गिनती भी मुश्किल थी उसी अकबर ने बाद में शिकार पर पाबंदी लगा दी इस दलील के साथ कि "अपने पेट को जानवरों का क़ब्रगाह नहीं बनाना चाहिए।" एक जगह मुर्दों के रूहों की मदद से ज़िंदा बीमारों की तीमारदारी का ज़िक्र भी विस्मित करता है। अकबर का सेंट पॉल के मुख्य पादरी को, अपने दरबार में ईसाई धर्म का संदेश देने के लिए आदमी भेजने के संदर्भ में ख़त लिखना भी एक कौतूहल का विषय है।
बिहज़ाद, जिसके लिए उपहार ही अभिशाप है वह, अरब, फ़ारस और हिंदुस्तान के बीच बसे हिंदुकुश के रेगिस्तानी तलहटी राज्य 'हजारी' तक पहुंच जाता है। यहाँ उसे एक पुराने परिचित और अकबर के हरम से बाहर निकाले गए बुजुर्ग हिजड़ा और बिहज़ाद का बहुत अज़ीज़ दोस्त हलील खान का संरक्षण मिलता है। उसकी बातें बड़ी मार्मिक हैं। कहता है - "हरम में रहने वाली जवान और बूढ़ी औरतों की हिफ़ाज़त, सेवा, ख़्याल हिजड़े करते रहे हैं पर बूढ़े होते हिजड़ों का ख़्याल कोई नहीं करता।" वो आगे कहता है - "एक अधूरे आदमी को पूरे सपने देखने का भी हक़ नहीं।"
गुलामों की मण्डी का ऐसा मार्मिक चित्रण किया गया है कि पढ़ते-पढ़ते रेखांकित हो जाये। इतने सस्ते इंसान, बिकती ज़मीर और देह बिना जज़्बात के एक लोथड़ा मात्र बस!
ज़िन्दगी 360 डिग्री गोल है और राजा-रंक सबकी राह अंततः एक ही है, यह उपन्यास पढ़ कर यही लगा मुझे। आरम्भ से उपन्यास के अंत तक बिहज़ाद जहाँ भी जाता है उसे अजनबियों की उदारता और उसकी दोस्ती की गर्माहट ही उसे बचाती है। बिहज़ाद को भी लगता है कि दुनिया इतनी बुरी नहीं है। कला ही असल मानवीयता का संरक्षक है जैसे कि घुमक्कड़ संत कहता है कि एक दोस्त का आलिंगन प्रार्थना की एक सदी से भी अधिक मीठा होता है। उपन्यास के अंत में जिस तरह कलाकार मरते हुए शासक को देखता है लगता है मानो रूमी को अपना शम्स मिल गया है।
उपन्यास पढ़ते हुए कभी महसूस नही हुआ कि यह अनुदित है। 395 पन्नों को सुंदर उपयुक्त हिंदी-उर्दू के शब्दों से से गुँथा गया है कि अगर आपको बताया नहीं जाए कि यह अनुवाद है तो आप जान ही नहीं पायेंगे। जैसे कहते हैं कि किताब की रूह उसके कथ्य से ज़िंदा रहती है, प्रभात मिलिंद की जितनी प्रसंशा की जाए कम होगी! अनुवाद की भाषा सुबोध, सुगम्य और प्रवाहमयी है।
यह किताब जब प्रकाशित हुई थी तब "मनीषा कुलश्रेष्ठ" का एक फेसबुक पोस्ट सिर्फ़ अनुवाद की विशिष्टता को ले कर आया था और तब मैं नहीं समझ सका था कि कोई लेखक जब उपन्यास की आत्मा से बातें करता है तब कैसा लिखता होगा, वह इस उपन्यास को पढ़ते हुए साफ़ दिखता है।
मैंने अभी तक प्रभात मिलिंद की कोई अनुदित किताब नहीं पढ़ी थी, अब ये लगता है कि एक अनुवादक भी आपको उसकी अनुदित की गई किताब पढ़ने के लिए प्रेरित कर सकता है। अंत में, यह उपन्यास 16वीं सदी के तुर्कों, फ़ारसियों, अफ़ग़ानों, ईसाईयों, हिंदुओं, मुसलमानों, सूफ़ियों, शराब, अफ़ीम, दोस्ती, वासना और समलैंगिक प्रेम का एक रोचक मिश्रण है जिसमें एक चित्रकार का फ़क़ीर बनना और सूफ़ी ख़्यालों में खो जाने की कथा भी बखूबी वर्णित है जो अंततः पीर बन जाता है।
एक बेहद पठनीय उपन्यास जिसमें सीखने वालों के लिए बहुत कुछ है। पाठकों को इसकी विशिष्ट भाषा शैली के लिए पढ़ने का अनुरोध करूँगा और जिसके लिए मूल लेखक कुणाल बसु और अनुवादक प्रभात मिलिंद दोनों को बधाई देना चाहता हूँ। वाणी प्रकाशन को बधाई की ऐसी किताबों का अनुवाद हिंदी में उपलब्ध कराया ताकि हम जैसे पाठक इस बेहतरीन उपन्यास तक पहुँच पाएँ।