नरेन्द्र पुण्डरीक की किताब 'समय का अकेला' चेहरा पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 26 December 2024 by नरेन्द्र पुण्डरीक

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इस किताब को पढ़ते हुए मेरा मन एक बायस लिए है क्योंकि मुझे पुण्डरीक जी की वो कविताएँ बेहद पसंद है जो परिवार के इर्द गिर्द घूमती हैं । अब आगे देखा जाए मेरा पूर्वाग्रह टूटता है या बना रहता है ।
 

पहली कविता `समय का अकेला चेहरा’ उनकी अपनी बनाई विश्वसनीयता पर खरी उतरती है जब पढ़ता हूँ :-

‘आदमी औरतों के लिए ही घर आते हैं

ताई के न रहने पर

ताऊ साल के 300 दिन

घर के बाहर ही रहते

उनके घर आने पर

यह नहीं लगता कि वह घर आए हैं’

कुछ पंक्तियों में यह पढ़ते हुए रुक जाता हूँ कि :-

‘जिन औरतों के बच्चे नहीं होते

बच्चे पालने-पोसने का सबसे अधिक शऊर

उन्हीं में दिखाई देता है!’

कविताएँ जो सीधे मन को छू ले सच्ची होती हैं, सच्चे मन से लिखी होती हैं। कृत्रिमता से परे पुण्डरीक जीवन से जुड़ी कविताएँ रचते हैं। सीधा- सच्चा कवि जब पूरी शालीनता से कड़वी बात कहता है तो, लगता है कि तमाचा जड़ दिया समाज के चेहरे पर। आप भी पढ़िए :-

‘इस देश का लोकतंत्र

गौरैया चिड़िया की तरह है

जिसका सीधापन सबको अच्छा लगता है।’

और इसी के साथ कवि को गौरैया के नीचे जाने की चिंता खाती रहती है। कवि को संविधान के पन्नों में बदलते शब्द अखरते हैं।

कविताओं से गुजरते हुए विस्मृत स्मृति की यात्रा सी लगती है। बहुत दूर की टेर पढ़ते हुए धीरे-धीरे तेज होने लगती है और फिर मार्मिक चीत्कार में बदल जाती है। यह कविता की सच्ची ताक़त है जिसे नरेन्द्र पुण्डरीक साध कर रच रहे हैं। `तकनीकी चूक’ कविता में कटाक्ष है जिसका सुर पूरी तरह सटीक लग रहा है कवि पुल गिरने की बात करता है, चूकने की बात करता है और संविधान के पन्नों में हुए और होते हुए बदलाव पर प्रश्न चिह्न लगाता है। मेरी आशाओं के विपरीत पुण्डरीक इस बार बहुत मुखर दिखे अपनी कविता की तेज धार के साथ। किताब और कपड़ों से आदमी की पहचान के बदलते मानक को कोसते हुए लिखते हैं :-

`शायद उन दिनों की बात है

जब गाँधी महज़ गांधी

होकर रह गए थे और

कपड़ा जवाहर लाल हो गया था।’

अमेरिका से आयातित गेहूँ से परेशान युवा कवि जब प्रौढ़ हो गया तब बाज़ार के आकर्षण से परेशान हो गया है और कहता है मैं परेशान हूँ सपनों के चूकने से बंद होती आँखों से और उन आँखों से ज़्यादा जिन्हें हत्या और आत्महत्या का अंतर समझ नहीं आ रहा। चले गये अंग्रेजों की रह गई अंग्रेजियत से चिंतित है कवि। कवि चिंतित है दिल्ली के दिल्ली न होने से और कवि चिंतित है शहर में शहर के नहीं होने से, कवि चिंतित है कठुआ में दिल्ली की दखल से! कवि इस बात से उतना ही परेशान है कि कोई किसी से पूछ रहा है नहीं, शायद बता रहा है धमकाते हुए कि यह गाँव और नदी तुम्हारी नहीं है और वह चाभी खोये ताले-सा दिखता आदमी चुपके से अपनी टोपी अपनी जेब में रख लेता है। कविता आपको ऐसे दृश्य देती है जहाँ से आपको पूरी फ़िल्म दिखने लगे एक बालकनी व्यू पूरा का पूरा दृष्टिकोण जो आगे जाकर मशाल जलाने में आपकी मदद करे। कवि को अफ़सोस है कि हिंदुस्तान में रहते-रहते भारत में रहने की तमीज़ नहीं सीख पाया। कवि को अख़बार के मरने का अफ़सोस है चौथे खंभे के हिलने का अफसोस है। आवाज़ में गों गों आये घुटन का अफ़सोस है। वो देश भक्ति गाना कैसे गाये क्योंकि उसे देशभक्ति को धर्म भक्ति में बदलते देखने का अफ़सोस है। कवि अफ़सोस में सिर्फ़ कविता लिखता है और चुपके से अपनी पत्नी को सुनाता हैं। पत्नी को उसकी कविता से नहीं पसीने से मतलब है जिससे आता है आटा और दोनों एक साथ गूंथते है प्रेम से और बनाते हैं प्रेम की रोटी! कवि को प्रेम है गाय, चिड़िया और पेड़ से और वह प्रेम की रोटी खाते हुए यह भी सोच रहा है कि यदि यह तीनों न होते तो दुनिया कैसे बनती सुंदर और कैसे बची रहती।

कविताओं में कवि के कटाक्ष का स्वर मद्धम होने का नाम ही नहीं ले रहा। कभी सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था पर तो कभी रुपये पैसे की गिरती अवस्था पर कवि लगातार प्रश्न उठाता जा रहा है रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। आप भी पढ़िए:-

`इतनी जल्दी किस काले जादूगर ने

पनपा दिए देश में इतने

करोड़पति-अरबपति

जो कंकड़ की तरह हमारे

दाल-भात तक में करकराते रहते हैं ’

कपड़ों से जब आदमी की गंध न आकर चीजों की गंध आती है तब कवि की चिंता दोगुनी हो जाती है। कवि की चिंता तिगुनी हो जाती है जब लिखता है :-

`मैं सोचता हूँ

जो कपड़ों की तरह

उतारकर फेंकते रहते हैं घर

उनकी आत्माएँ

क्या पहनती होंगी’

सिर्फ़ इतना नहीं कवि चिंतित है कपड़ों की तरह बातें बदलने वालों से और अपनी चेतना का सुर अपनी चिंतन से मिलाते हुए याद करता है उन औरतों को जिनकी खुली देह से उसे गाँधी की खुली देह में समानता दिखती है। इकहरा धोती कितनी जादुई है अब कहाँ दिखते हैं टखनों भर ढँके गाँधी, कवि की चिंता लाज़मी है और वह चिंता से घिरे कविता की शरण में जाता है बार-बार और चिल्लाता है कहाँ हो गाँधी? और जवाब में कबीर और तुलसी के दोहे मिलते हैं उसे थोड़ी सी नींद आती है।

सामाजिक चिंताओं के कोहराम से गुजरते हुए कवि घर और अपने ज़्यादा पुरुष होने की चिंता समझाते हैं। पत्नी की सारी चिंताओं में शामिल कवि कविता लिखने में व्यस्त है और कहता है :-

'मेरे पढ़े लिखे में

कहीं नहीं दिखती

आती-जाती

नाश्ता पानी लाती पत्नी।'

यह ख़ुद से पूछा गया प्रश्न है जैसे अपनी  पीठ के दाग़ देखने के लिए कवि आईने के पास शर्ट उतारे नंगा खड़ा है। दाग़ देखता है कविता लिखता है उसका इलाज वहीं कविता सुनकर मुस्कुरा रहा है। `पत्नी को अच्छा लगता है’ एक बहुत खूबसूरत प्रेम कविता है जिसे बार-बार पढ़ने का मन करेगा। प्रेम कविता में आगे बढ़ते ही कवि पत्नी को प्यार से कहते हैं `मन की धोलनियाँ’। ढलती उम्र में भी कवि को याद है लक्कू पड़ाव और उन यादों में ख़ुद का छुप जाना। अपनी पत्नी को याद करना और कहना कि यही वह स्त्री है जिसे मैं खोज रहा था जो एक पुरुष को कह सके दबा दो मेरे हाथ-पैर!

स्त्रियों को स्त्रियों का सबसे बड़ा दुश्मन बताते हैं कवि। कहते हैं हमेशा एक स्त्री की मार में साझी बनी रही एक स्त्री, एक के लिए दूसरी देती रही माचिस, एक स्त्री फाँसी चढ़ती रही दूसरी लगाती रही उसमें गाँठ। इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता और नहीं मिलती है सदियों से जलती पद्मावत को मुक्ति। इसीलिए कवि को नदी में जलता अकेला दिया अच्छा लगा और अयोध्या में जलते हज़ारों दिये उसे एक प्रश्न-से लगे।

कवि पिता की डायरी में बचे ख़ाली पन्नों को याद करता है। याद करता है उस समय को जब शब्द बहुतेरे तैरते थे और काग़ज़ पिता की डायरी से निकाले जाते अब पिता भी नहीं है और डायरी में दर्ज कथा में पिता नहीं हैं पर एक गूंज है पिता की जिसमें साझेदारी की टेर है कुछ जीवन दर्शन के टुकड़े हैं और आज कवि के पास शब्द नहीं हैं काग़ज़ अपनी माया लिए बिछी है कोरी। कवि ने इस संग्रह में मेरे पूर्वाग्रह को पूरी तरह खंडित कर दिया है। देश राग के गीत साझा धागे की कविताओं से ज़्यादा लुभाते हैं। एक अच्छे संकलन के लिए कवि नरेन्द्र पुण्डरीक को बहुत बहुत बधाई ।

कुछ बातें ऊपर की बातों से इतर बस सलाह जो, ग़लत भी हो सकती हैं पर, एक बार इस ओर कवि की नज़र लाने के लिए! एक साथ लगातार कविताओं में एक ही स्वर हिन्दू-मुसलमान अखरता है। एक या दो कविता जो बात कह देती है उसी बात को पाँच-छः लगातार कविताओं में दुहराने से एक अनावश्यक ईको तैरता है जो विषय को विषयांतर की ओर मोड़ देता है। कवि को कविता के चुनाव में विषय के दोहराव के बारे में अगले संस्करण में सोचना चाहिए। कविताओं में अडानी और अंबानी का ज़िक्र बार-बार आने के बारे में भी एक बार नयी दृष्टि से देखने की ज़रूरत है।