मृत्युंजय कुमार सिंह की किताब ‘गंगा रतन बिदेसी’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 22 October 2024 by मृत्युंजय कुमार सिंह

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छः महीने के अंतराल में संयोगवश तीन किताबें गिरमिटिया से संबंधित  पढ़ीं। अखिलेश की उपन्यास निर्वासन , प्रवीण झा की कथेतर कुली लाइन्स और फिर मृत्यंजय  कुमार सिंह की गंगा रतन बिदेसी।  तीनों रचना अलग फ्लेवर और कलेवर  लिए पर दर्द वही रहा  अन्छना "विस्थापन के दुर्भाग्य " पर बाकी  उपन्यासों और कहानियों  से इतर 357 पन्नों में मृत्युंजय कुमार सिंह ने इसे अपनी शैली में लिखा और उपन्यास का कैनवस बहुत विस्तृत रखा।

कहानियों के लेयर्स आपस में बात करते चलते हैं। स्त्रियों के किरदार को बहुत ही  सशक्त और उनके सकारात्मक रूप में रचा गया है। प्रकाश उदय  के शब्दों में कहें तो  संभाल कर पसारने और पसार कर संभालने की कोशिश है गंगा रतन बिदेसी। कहानीकार से अनुवादक के रूप में अपनी ही लिखी किताब पर खड़ा उतरना कितना मुश्किल या सरल है यह स्वयं लेखक से बेहतर कौन  समझ सकता है पर मृत्युंजय ने इसे साध लिया है। समान्तर कहानियाँ चलती रहती हैं और जुड़ती रहती है आपस में। जेल की शाम का  चित्रण करते हुए जादुई पंक्ति लिखते हैं जैसे-

समय समाधि पर बैठा हो
मानो अँधेरे में माथा झुकाए एक साधु हो
यह सरकार कागज़ी बेताल है जहाँ
अभिज्ञान का यह कहना कि क्यों नहीं दोगे मुझे भर पेट खाना
जो कि आत्मदाह से पहले और बाद तक की गूंजती चीख है
शायद आज भी देश के जेलों की दीवार से टकरा रही होंगी

मौलाना आजाद और अभिज्ञान एक  सिक्के के दो नहीं  एक ही पहलू है। अभिज्ञान की लड़ाई खाने से नहीं विचार की मौत से थी। घटनाएं जीवंत हो उठती हैं और आपसे बतियाने भी लगती हैं। लेखनी का जादू  आपके रोएं से चिपट आपकी रूह पर दस्तक देता रहेगा। छोटी बहुत ही छोटी दो पंक्तियों में सिमट जाने वाली विडंबनाओं  से भरी ढेरों दास्तान का गुलदस्ता है यह उपन्यास। एक जगह बस इतना सा जिक्र है। एक लाइनमैन का पैर उस समय कटता है जब वह ट्रेन से गिरती लड़की की जान बचाता है। विडंबना से भरे  दिनों का हौले से जिक्र है-

तब रुपये कम और अनाज ज्यादा थे
आज अनाज कम और रुपये ज्यादा है
काफ़िर जुलू लोगों की खेत में उपजने वाली मक्के की नस्ल है
और काफिरों से होकर गुजरती रहती है अनगिनत कहानियाँ

बाबा मुनेसर, बेटा राम स्वारथ, रतन दुलारी, गंगा रतन बिदेसी, दीपू और उधर गंगझरिया, लछिमिया, डोना, हेमवती हर एक किरदार  के साथ पूरा न्याय किया गया है।

नटाल में  रतन दुलारी को छह वर्ष की उम्र से ही गांधी बाबा का साथ मिलना, वो भी फिनिक्स में ,टॉलस्टाय फार्म में। गाँधी बाबा का  संदेश ऐसा कि दुश्मनों में दोस्त और दोस्तों में शांतिदूत ढूंढो तब सफलता मिलेगी सिर्फ क्रांति हल नहीं। जैसे श्री मति जेन अलेक्जेंडर जिन्होंने गाँधी की रक्षा की, सत्याग्रहियों का पहला आश्रम टॉलस्टाय फार्म की ग्यारह एकड़ जमीन देने वाले  हरमन साहब। गाँधी के भजन गीत से जुड़ाव का संजीदगी से बयान है और  जिसका सिरा रतन के गले से जुड़ा है यह एक आश्चर्यजनक बात थी ।

इस उपन्यास के कारण मैं यह जान पाया कि कस्तूरबा ने कैसे प्रिटोरिया में आंदोलन किया और जेल में रहीं वहाँ भी आंदोलन किया। गिरमिटिया अपनी मिट्टी अपनों के प्रेम में स्वदेश लौटते हैं पर रतन का लौटना गाँधी प्रेम से जुड़ा था यह तथ्य बहुत ही रोचक है। गिरमिटिया से गिरमिटिया मसीह के सफर की दास्तान है। एक जगह जिक्र है- सत्याग्रह को यात्रा  जेल और श्मशान के बीच की यात्रा करनी पड़ती है और इसलिए साबरमती आश्रम इनके बीच है।

नील की खेती का जिक्र करते हुए अंग्रेजों द्वारा  22 तरह के कर्ज लगाने का रोचक जिक्र है वो भी नाम के साथ। मुठिया दान का जिक्र भी है। कितना अच्छा कांसेप्ट था मुठिया दान। डॉ एजाजी मुजफ्फरपुर का योगदान, बरजेस जैसे किरदार का बखूबी चित्रण। सबसे पसंदीदा हिस्सा इस कहानी का जब गंगझरिया और रतन अचानक  मिलते है बनारस की गली में। गंगझरिया के आँसू रतन के जख्म पर गिर रहे हैं और अब कौन सा ज़ख्म हरा हो रहा है और कौन सा भर रहा है कहना मुश्किल। एक प्रसंग में लिखा है-

वह शर्म से बैंगनी हो गई
प्रेम में रंगने के बाद रंगों का एक अपना प्रणय होता है
जो कभी लाल तो कभी बैंगनी बना देता है

सुंदर प्रयोग है शब्दों का। प्रेम इतिहास और मिथक को बींधते हुए इस उपन्यास की पृष्ठभूमि से रह रह कर अवतरित होता है और आपका रिश्तों पर और विश्वास बंध जाता है। हेमवती गंगझरिया दोनो का विधवा होना और फिर विवाह होना एक सकारात्मक पहलू है इस उपन्यास का। गाँव की अपनी राजनीति होती है जिसका बहुत ही सजीव चित्रण है यह उपन्यास। जब रतन का बेटा होता है तो रामसरन की पत्नी नेग माँगती है। रतन जमीन पर लोट जाता है और कहता है-

"भौजी आज से रतन के सब कुछ में ही तुम्हारा हिस्सा है।"
कहानी कलकत्ता से शुरू होती है और कलकत्ते में खत्म

लिलुआ पोस्ता बाजार इन सभी जगहों को कितने गहरे से उकेरा गया है। उस समय का चित्रण करना जिस समय को आपने नहीं देखा कितना मुश्किल है जिसे लेखक ने सजीव बनाया गया है इस उपन्यास में कलकत्ता का जिक्र करते हुए लिखते हैं-
यहाँ जाति कोई नहीं पूछता
पर पार्टी सब पूछते हैं

मैं मुबारकबाद देता हूँ लेखक की उस दृष्टि को जिससे वह हर जगह का मुआयना करते हैं। सियालदह स्टेशन, दार्जिलिंग मेल लोको शेड का इंजन, चाय बागान उनकी जिंदगी। हर जगह की समस्याओं का जिक्र और उसका आपस में जुड़े तार का बहुत बारीकी से विवरण आश्चर्य में डालता है। मजदूरी ,नेतागिरी ,नक्सलवाद ,मार्क्सवाद सब कुछ है यहाँ मणिकर्णिका में भी नक्सलबाड़ी का जिक्र है और अब इस उपन्यास में ।संयोग से एक ही महीने के अंतराल में दोनो पढ़ी मैंने। बहुत जिम्मेदारी से छुआ गया है। चारु मजूमदार या कानू सान्याल दोनो के बारे में दोनो किताबों में लिखा गया है। आपको आश्चर्य होगा इस उपन्यास में सूरज के डूबने और उगने की बेला को तरह-तरह से लिखा गया है जो आपकी उत्सुकता बढ़ाये रखती है कि इस बार कैसे लिखा जाएगा। जैसे बनारस की शाम ढलने का जिक्र इस तरह लिखा गया है कि-
"सूरज देवता गंगा के जल में अपना मुँह डुबो चुके थे"

कहानी की धार को और तेज करते रहते हैं बेहद लय में लिखे गीत जो बिल्कुल सही समय पर अपना राग छेड़ते हैं। टिकुली से टिकुली और तोहरी सुरतिया आवे अँखियाँ में तो तुरंत गुनगुनाने लगेंगे आप। मल्लाह न हिन्दू हैं न मुसलमान, आदमी का सपना और आस मिट्टी पकड़ कर नहीं चलते। ऐसी अनगिनत समेटने वाली पंक्तियाँ हैं जो पाठक को और भी समृद्ध करेंगी। मृत्युंजय जी और भारतीय ज्ञानपीठ को शुभकामनाओं और मुबारकबाद के साथ।