मुर्ग़ीखाना-रेखा कस्तवार

On 16 December 2024 by यतीश कुमार

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आई सेक्ट पब्लिकेशन- 25 छोटी-बड़ी कहानियों का कोलाज।

ऐसा होता नहीं है अमूमन, पर इस किताब को एक दो बार यूँ ही पलटने के बाद अंतिम पन्ने से पढ़ना शुरू किया। पढ़ते हुए लगा जैसे स्त्री मन की परतें खुल रही हैं पन्ना दर पन्ना । गांठें जो सदियों से डाली हुई हैं कहानी में उभर कर दिख रही हैं ।हमारे मन के भीतर परिवेश का प्रभाव कितना घर करके पैठ बना चुका है `आधिपत्य’ के एक पन्ने ने कितने आराम से समझा दिया। "जौवा जौवा मत तोड़ो” इस एक पंक्ति में पूरा लोक है और लोक में घटती दर्द सिक्त घटनाओं का सारा ब्योरा भी। वकील अपनी फीस कभी नहीं छोड़ते, कितना बड़ा व्यंग्यात्मक कटाक्ष है। पन्ने भर की कहानियाँ, पन्नों से भरी किताब पर भारी हैं। `पहचान पत्र’ में छिपा है सदियों के इतिहास का सच, डर का असली अर्थ-अपने बेजा कारण के साथ।

जिसकी आँखों में माँ अपना जिया कैशोर्य जी ले, उसे सयानी देखने की कितनी जल्दी होती है समाज को। कैसे-कैसे प्रयत्न किए जाते हैं ताकि उसके भीतर का बचपन मारा जा सके। किताब का शिल्प, कविता और कहानी के बीच कड़वी सच्चाई को दवाई की तरह परोस देने का है। पढ़ने की शुरुआत मीठी-मीठी और फिर अचानक कड़वी हो जाती है।

यहाँ एक बात अच्छी है की बात एक तरफा नहीं रखी गई है। 'लड़की-तीन' पढ़ते हुए यह एहसास हुआ कि ताली दोनों हाथों से बजने वाली बात को भी रखने में लेखिका नहीं झिझकतीं। हम क्या छोटी-छोटी ग़लतियाँ करते हैं, चाहे माँ के रूप में या बेटी के रूप में या पड़ोसन के रूप में। सब बातों को बहुत अनूठे शिल्प में दर्ज किया गया है इस किताब में।

“दोनों तरफ़ सेंकी तो जल्दी पक जाएगी, जल्दी पक जाएगी फिर और आटा कहाँ से लाऊँगी तब”

पढ़ते हुए अचानक ऐसी पंक्तियाँ आती हैं, जो आपको अंतस् तक भिगो जाती हैं। भूख आँतों को अपना पता दे चुकी है ऐसा कहते हुए पूरा का पूरा दृश्य आँखों के सामने छा जाता है। संवेदना से ओत-प्रोत लेखन, यथार्थ को बहुत शटल तरीक़े से सामने लाता है जैसा काव्य विधा में अमूमन होता है, यहाँ यह प्रयोग मारक साबित होता है।

नदियों को व्यक्त होने के लिए देह की आवश्यकता है, इस किताब के किरदार ऐसी ही देह हैं। समय की करवटों को अपनी पूरी मार्मिकता के साथ बहुत कम शब्दों में लिख देने की अद्भुत कला है लेखक के पास। यहाँ कुछ किरदार ऐसे हैं जो याद दिलाते रहते हैं कि कामनाएँ नपुंसक नहीं होतीं। देह मिलन से परे देहराग को सुनने, जीने वाले किरदार, परिपक्व देह में बच्चों का मन बचाए किरदार, देह-राग में देह और राग की पृथकता ढूँढता किरदार, सरापा भर स्पंदन की चाह लिए स्पर्श की भाषा सहेजने के लिए भटकती लड़की, अँधेरे में आश्वस्ति का सुराख़ ढूँढ़ते किरदार, प्रेम के आलोक की पहली आभा में भीगने को व्याकुल किरदार, बीच भँवर में डगमगाते हुए भी आश्वस्ति का किनारा ढूँढ़ते लोग, संत्रास, आक्रोश और पश्चाताप की लहरों में अप्लावित होती आँखें, झुलसते किरदार की जिजीविषा को सहेजती तस्वीर, घने अँधेरे से टकराती रोशनी की एक किरण। इन कहानियों का यथार्थ जब-जब ज़मीन छूता है जिगर चाक कर देता है। एक दम बिजली सी गिरती है और लगता है जैसे ठीक सीने के बीच का शीशा चनक गया और दर्द उस तिड़कन में अब क़ैद है।

बचपने को मार देने को मैच्योर्ड होना कब तक कहते रहेंगे लोग? पितृसत्ता सत्ता के पक्ष में ख़ुद स्त्रियाँ कब तक खड़ी रहेंगी? स्त्री मन में खनकती तरह-तरह की आवाज़ों को यहाँ क़ैद किया गया है। वह मन जो कभी दादी की खुरूस हरकतों से परेशान है तो कभी पिता के स्पर्श की अनुपस्थिति से तो कभी अपनी ही हरकतों से ख़ुद को बौना महसूस होते हुए देख रहा है। कहानियों में स्त्री का - बेटी का, पत्नी का, माँ का, दादी का, पड़ोसन का, प्रेमिका का, बहन का हर रूप मौजूद है।

कहानियाँ पढ़ते हुए कई बार गला चोक भी हुआ, ख़ासकर `संस्कार’ का अंत पढ़ते हुए, जब जिया के रूप में मुझे अपनी दीदिया याद आ गई। माँ के ख़ाली जगहों को बहन जिस तरह भर देती है कि कोई फाँक किसी को नज़र नहीं आती। बहन बचपन की ढाल होती है और फिर बड़े होने पर आदमी अपने बचपने को नहीं अपनी ढाल की याद को भी बचा रहा होता है।

इसी तरह 'तीन सौ साठ डिग्री का कोण’ पढ़ते हुए भी बरबस आँखें गीली हो जाती हैं और यही कहानी की ताक़त होती है कि आप  डबडब आँखों से इसे पढ़ते रहते हैं, गला चोक करते हुए। पर इन सब किरदारों में विधि सबसे अलग है और `मुर्गीख़ाना’ कहानी से इस किताब का शीर्षक होना उचित निर्णय। एकदम आपकी आँखें, मानवीय रिश्तों में बढ़ते अंधेरे के उस ओर ले जाती कहानी है, जहाँ सामान्य पाठक नहीं जा पाते।

यह किताब स्त्री मन की अनकही आवाज़ों का कोलाज है। रिश्तों में कड़वाहट और कड़वाहट के पीछे छिपी सच्चाई को यूँ रचा गया है, जो कहानी को अपने ही ढंग से अंत करने में मदद करती है। कहानी में पिता-पुत्री के अनकहे को कई तरीक़े से दर्ज किया गया है। लगभग कहानियों में स्पर्श का गुम रहना खासकर पिता का, एक दोहराव की तरह आता है, पर इसी के साथ ऐसा भी लगता है जैसे अपने सवाल, जिसका जवाब नहीं मिल पाया हो उसे दोहराया जा रहा है। पर ऐसा करने से एक ख़ास तरह के पिता का व्यक्तित्व तक ही सिमट जाती है कहनियाँ। इस बात पर गौर करने की भी ज़रूरत है।

अंत में इतना ही कहूँगा कि अत्यंत पठनीय, अलग शिल्प और कथ्य लिए नयी कहानी की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए लिखा गया यह संग्रह मार्मिक, अपने केंद्रीय विषयवस्तु पर केंद्रित, कसा हुआ है। भीतर तक झँझोड़ देने वाली कहानियों के इस गुच्छे के लिए रेखा कस्तवार बधाई की पात्र हैं और इस किताब पर बात होनी चाहिए, बार-बार होनी चाहिए।