ममता कालिया की संस्मरणात्मक पुस्तक 'अंदाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा' पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा

On 27 December 2024 by ममता कालिया

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यह सुखद संयोग है कि “ग़ालिब छुटी शराब” कुछ महीने पहले ही पढ़ी मैंने। सारे किस्से अभी भी ज़ेहन में चलचित्र की तरह जैसे रिकार्डेड हैं, और मुझे याद है मैंने ममता कालिया जी को सीधा फोन घुमा दिया, बिना उनकी सुने बस एकरागा बना कहने लगा, मैम! मेरी बहुत इच्छा है आपका वर्जन सुन सकूँ, आपका पक्ष आपकी जुबानी। संस्मरण का ऐसा भूत सवार था कि मुझ में बेचैनी छाई रही और नादानी ऐसी कि उनकी बात ही नहीं सुन रहा था।


 

जब मेरी एकसुरा बात खत्म हो गयी तब ममता जी ने बस एक इशारा सा दिया कि जल्द ही कुछ आने वाला है और तभी से इस संस्मरण का पहला पाठक बनना चाह रहा था। शुरुआत से ही संस्मरण से गुफ़्तगू होने लगी और लगा यह ज़रूर कुछ लिखवा लेगा। पूरी किताब धारा प्रवाह पढ़ते चला गया और सोचता रहा इस अद्भुत प्रेम रस में डूबे संस्मरण के बारे में…

स्मृति सरिता का अविरल बहाव प्रेम कथा बन बहता और बहाता जा रहा था और पढ़ते-पढ़ते इन पंक्तियों ने अपना स्वरूप लेना शुरू कर दिया।

“उसने मुझे मजनूँ की तरह चाहा

और लैला बना दिया….”- ममता कालिया

1.

यह दास्तान-ए-इश्क़

अजस्र सोता लिए

यादों का फ़व्वारा है

स्मृतियों के असंख्य फुग्गे हैं

जो मन के आसमान में

रह-रह कर फूट रहे हैं

और आसमानी आतिशबाजी जारी है

स्मित की लकीर इतनी लम्बी है

कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही

बस इतनी ख़्वाहिश है, पूरी ज़िंदगी

इन लकीरों के इर्द-गिर्द घूमती रहूँ



 

2.

अकस्मात ही साँझ ढले

हिचकोले भरी यात्रा में

वो एक गीत की तरह मिला

जिसे मैंने अपनी ही धुन में गुनगुनाया

धमनियों में भरा संगीत अबोले

मौन में मिश्री घोलता मिला वो

अनजाने ही सही

जाने पहचाने राह पर चल निकले हम

अज्ञेय और निर्मल के स्टेशन को छोड़

हेमिंग्वे के स्टेशन पर घंटों वक़्त बिताया

और नेत्र-संवाद की चादर ओढ़े

एक दूसरे को निहारते रहे


 

3.

अंधेरा और पिल्लों की पें-पें के बीच

रात, ठंड और ठिठुरन के आपसी होड़ में

साँस और उसाँस आपस में बतियाती रहीं

उसदिन की बात

आज भी याद है मुझे

कि दो निःशब्द प्रवाह के बीच

दोआब बना था सूटकेस

स्वप्नविहीन नींद की तलाश में

नींद में विचरते या नींद को ही यात्रा पर भेज देते ?

इसी पेशोपेश को चुगते-चुगते

रात भोर के संग करवट लेने लगी

उनींदी यात्रा में

हमने एक दूसरे को ढूँढा

बिना तैरने की चाह लिए

चाहना बन डूबते-तिरते रहे

4.

नापास दुनिया थी

या सबकी आँखों में थे हम मिसफिट

इससे बेफिक्र

एक दूजे की आँखों में झूमता समंदर बने रहे हम

सच को थोड़ा हँसाते हुए कहने से

असर का दायरा बढ़ जाता है

वो समझाता

तो मैं हरबार

फाहे सी हल्की हो जाती

मैंने कहा

सब का सुनना ज़रूरी है

उसने कहा

उम्मीद का बचे रहना ज़रूरी है

5.

नौकरियाँ की और छोड़ी दी

सच्ची दोस्ती सिर्फ की ….

समय यूँ गुज़ारा

कि याददाश्त और बर्दाश्त दोनों बनी रहे

दवा से कम

हमदर्दी से ज़्यादा क़रार आया

उसने हर बार

ख़्याल का मरहम पहले लगाया

हाथ पीले होने के बाद

अकस्मात जो भी हुआ

जीवन पर्यन्त साथ रहा

कुछ एक पीली यादों को छोड़कर

वक़्त की गुत्थम गुत्थी में

जंजाल से संजाल की यात्रा

उसने ही करवाई

अक्खड़पन और अल्हड़पन

साथ-साथ बहते रहे

खामियों और खासियतों को

तड़फड़ और तेवर को

गुणों और अवगुणों को

पैर और हाथ-सा अपना समझना आसान नहीं

6.

जनवरी से कई जनवरियों का सफर

पलक झपकने-सा ही तो है

सच यही है कि इन पलकों में बंद है

सितम-ज़रीफ़ी पचासा

उस दिन

गिर गई अंगूठी का वापस लाना

उसका पूरा का पूरा आना रहा

तर्जनी से चलकर हृदय तक

नशों में आज भी गुज़र रहे हो तुम

जबकि मुझको छोड़कर सबको ख़बर है

कि तुम कहीं नहीं हो …

यहीं कहीं है वो

दैनंदिनी की गुफ़्तगू में

किसी जुमले के इर्द-गिर्द

चहलकदमी करता एक चुहल-सा

 7.

खूबसूरती और ख़ुश-मिज़ाजी

मनमानियत और मस्तमौलापन

इतनों का संगत एक ही इंसान में

यह ठीक नहीं है यारा

परेशानियाँ पेशानियों को झकझोरती हैं

हज़ारों साँकल एक साथ बज उठते हैं

वह उसे संगीत समझ कर

बस मुस्करा देता है

बाधाएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं

आदमी ख़त्म हो जाता है

समय ऐसा आता है

कि बस थिर-सा जाता है

पुतलियाँ पनीली ही पथरा जाती हैं

और फिर संकट हर बार

कोई मसीहा जन्मता है

8.

लिखने का शौक़ पढ़ने से शुरू होता है

जानते सब है पर मानते विरले हैं

दरअसल लेखनी दिमाग़ का ऑक्सीजन है

जिसे बस अदीब ही समझते हैं

फकीरों की पीढ़ी में वह एक संत था

जिसे पता था कि

हर किसी के पास

हर चीज़ नहीं होती

कल्पना और अनुमान पर टिकी

दुरस्त दाम्पत्य की दूरी

समय को देखती है

काल को नहीं देख पाती

हर बुरे काल को

उसने संगीत सुनाया

दोस्ती खूब की

और हर हाल में एल.पी. बाजाया

 9.

एक पैग लेने की सलाहियत

डॉक्टर से मरीज़ को मिले तो

दोनों ऐसे मिलते हैं

जैसे बिछड़े दोस्त मिलते हैं

मर्ज का चक्रव्यूह है

और वहअभिमन्यु ही बना रहा

प्रार्थनाएँ और अनगिनत हम्द

व्यूह को तोड़ नहीं पाए

देखते-देखते

मर्ज ऐसे पिलच गया

जैसे जलेबी से मक्खी



 

10.

शहर के लोग बोलते कम

और चिल्लाते ज़्यादा हैं

और यह तो दिल्ली है

यहाँ मरते को भी रास्ता नहीं मिलता

तबियत कुछ कम ठीक है, यह कहना

धैर्य की लाठी पकड़े

बिना किसी शोर के

अंतिम ढलान तक उतर जाना है

सूरज डूबता दिखता है

असल में अस्त कहाँ होता है

सब आँखों और दृश्यों का भ्रम ही तो है

स्मृतियों की सरिता

नहर पोखर नदी से गुज़रती हुई

समंदर से जबतक मिलती रहेगी

रवि तब तक अस्त नहीं हो सकता

हर लिखी किताब

एक स्मृतिसरिता ही तो है।।