ममता कालिया की संस्मरणात्मक किताब ‘जीते जी इलाहाबाद’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 22 October 2024 by ममता कालिया

blogbanner

'शहर- पुड़िया में बाँध कर हम नहीं ला सकते साथ' तो क्या! यह एक पंक्ति कई प्रश्नों के सिरे एक साथ छूती है और फिर हर सिरा अपना छोर ढूंढ़ने एक ही दिशा की ओर निकल पड़ती हैं- स्मृतियों के रेशों में कैद शहर इलाहाबाद! इस संस्मरण में ममता कालिया ने उन रेशों के गुच्छे को एक-एक कर अलग करने का असाध्य प्रयास किया है। स्मृतियों को चुना है, गुना है और फिर इस तरकीब से बुना है कि वितान का पूरा ताना-बाना इस किताब की शक्ल में आपके हाथों में पहुंचे और इसे एक सांस में पढ़ जायें।
लेखिका ने तकरीबन पचास साल जिस शहर इलाहाबाद को जिया है उसे महसूस करने की कोशिश में कई बातें, यादें यूँ रची हैं कि सब पाठक मन से जुड़ती चली जाती हैं। यादों के रोशनदान से कितनी रोशनियां या यूं कहें कितने लोबान की खुशबू तैरती चली आई और शब्दों के इस सुंदर संयोजन में ऐसे बिखर गई जैसे आपको भी इस शहर की सैर कराने निकली हों। ठीक वैसे ही जैसे शायर बशीर बद्र पुरानी दुलाइयाँ ओढ़े भटक रही हवेलियों में ख़ानदान की ख़ुशबू तलाश लेते हैं, ममता कालिया ने इस संस्मरण में इलाहाबाद के 'शरीर' के साथ-साथ उसकी 'आत्मा' को तलाशा है।

अदीबों, शायरों, कलाकारों, रचनाकारों का शहर, न दैनयं न पलायनम् थीम वाला मक़बूल शहर, हिन्दी, उर्दू, अवधी और अंग्रेज़ी का मिला जुला नूर शहर, अदावतें, नफ़ासतें, चुहलबाजियाँ, तुनकमिजाजी, दुचित्तापन, कहकहे, वाक-वैदग्धय ,शरारतें, हसरतें इन सब को मिलाकर जो वाग्मिता बनती है उस संगम तीर पर बसा शहर का नाम है इलाहाबाद। ऐसे शहरो में बिताए  दशकों का अनुभव संस्मरण में ढ़लकर पढ़ने को मिले तो जानिए इन सब का जायका भी मिठास और झांस के साथ आपको जस का तस मिलने वाला है।

पढ़ते हुए इसे अदावतों का शहर भी कहा जाए तो कम नहीं, जहाँ  प्रतिभाओं की शातिर जवाबी का सानी नहीं मिलता । 'अंतिम अध्याय' का जवाब 'चेहरे अनेक' लिखकर देने की कला यूँ किसी और शहर में कहाँ ! पढ़ते हुए यह भी लगता है कि हमारे वरिष्ठ लेखकों की शब्दों की दुनिया कितनी सुंदर है, जहां हर पड़ाव पर, हर यात्री के सीखने के लिए कुछ न कुछ नया है। तमाम सामाजिक-व्यवहारिक जानकारी के साथ-साथ यह किताब पढ़ते हुए आप न सिर्फ गंगा-जमुना मिलन बल्कि गंगा-जमुनी तहजीब की झांकी भी देखते जाएंगे।

हम सब में ज्यादातर नौकरी शुदा या नौकरी की खोज में शहर दर शहर भटके या भटकते  लोग हैं पर बीती घटनाओं को यूँ याद रखना और करीब-करीब क्रमबद्ध रोचक संस्मरण लिख देना इतना आसान नहीं। ममता कालिया ने इसे अपनी विशिष्ट भाषा शैली और निराले अंदाज में सजाया है, जिसमें चुहल बहुतायत मात्रा में है। एक जगह इलाहाबाद में कवियों की उपस्थिति की स्थिति कुछ यूं बयां करती हैं- "उनके प्रखरता का आलोक और आतंक दूर-दूर तक फैला था।" ममता कालिया ने बेबाकी को भी कम शब्दों के तड़के में इस तरह परोसा है जो रुक रुक कर झांस और छौंक का काम करती है।आपकी  इंद्रियां जागृत हो जाती हैं एक पल को भी आप पढ़ते हुए  सुसुप्ता या उनींदी अवस्था में नहीं जाते ।

एक और बात जिसने ध्यान खींचा, वह इलाहाबाद और इसकी त्रयी का विवरण। इसमें जितने भी प्रमुख त्रयी नामों का लेखिका ने जिक्र किया है उसमें मुझे मार्कण्डेय, दुष्यन्त और कमलेश्वर के त्रियक की बात सबसे निराली लगी। यह जानना और भी सुखद आश्चर्य भरा था कि 'नई कहानी ' शब्द किसी कहानीकार का नहीं हिन्दी कवि-ग़ज़लकार दुष्यन्त का दिया हुआ है । ऐसी कई रोचक बातों का  गुलदस्ता है जीते जी इलाहाबाद।

स्थापित इयत्ता के नेपथ्य में संस्कृत और साहित्य की क्या भूमिका होती है। एक शहर की आत्मा के भीतर, खुद को कैसे बचाये रखते हैं इसे समझने के लिए यह संस्मरण पढ़ना जरूरी है। एक जगह दीप्ति सिंह का जिक्र एक बेहतरीन पंक्ति के साथ आबद्ध है कि 'बेटियाँ होती हैं ग़मों की पेटियाँ'! इस पंक्ति को पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि लेखिका को कितनी बारीक और पुरानी बात, जस के तस कैसे याद है और वो भी उस जरूरी पंक्ति के साथ और शायद यही गुण इस संस्मरण को अलग नजरिये से देखने की अपील भी करता है।

ममता कालिया ने इस संस्मरण में  इलाहाबाद के साहित्यिक माहौल  के साथ-साथ वहां के विशेष स्वाद को भी भरपूर स्थान दिया  है।हर छोटी मोटी दुकान का जिक्र है वहां की विशेषता के साथ चाहे सिविल लाइंस स्थित मुरारी की चाय का जिक्र हो या छप्परवाले हलवाई की दुकान या लोकनाथ की गली और हरि नमकीन की दुकान, चुन्नीलाल का ढाबा और ढाबे का राजमा और कोफ्ता, नानकिंग का मेथी गोली के साथ लज़ीज़ रोग़नजोश का जिक्र, हर दुकान की दास्तां ऐसे सुनाई-बताई गई है कि जीवन में एक बार इस महबूब शहर इलाहाबाद को देखने-जीने का मन करने लगता है। किताब पढ़ते हुए कई गली, नुक्कड़ औऱ दुकानों पर खुद को ढूंढने लगना यह बताता है कि लेखिका ने इस शहर को कितना डूबकर जाना है।

इलाहाबाद से कई बार गुजरा और ठहरा भी,लेकिन इस किताब से गुजरने के बाद लगा कि इलाहाबद की यात्राएं अभी अधूरी है और अब जब भी इलाहाबाद जाना हुआ, शहर को इसी किताब के जिक्र की तरह डूबकर देखूंगा। इन सभी जगहों और गलियों से गुजरते हुए  यह भी देखना है कि यह जीरो रोड भी किस बला का नाम है जो मटियानी जी के लिए पत्रिका के विज्ञापन का स्त्रोत रहा। स्लो कुकर का जिक्र भी काफी रोचक है।  मुझे सोलर का ज्ञान था लेकिन स्लो कुकर नई तकनीक सी लगी। ऐसी तकनीक कि आपका खाना रात भर बनाते रहे और सुबह दाल- चावल तैयार।

इस किताब की एक और विशेषता यह है कि इसमें लिखे संदर्भ आईने की तरह दिखता है। जैसी सूरत वैसा विवरण। कई व्यक्तित्व के विविध पहलुओं को पूरी साफगोई के साथ लिख दिया गया है, जो एक अच्छे संस्मरण की पहली शर्त भी है। कुछ पंक्तियाँ जीवन-दर्शन और मार्ग-दर्शन दोनों को जोड़ती हैं, जैसे लिखा है  ' हिंसा में सबसे बड़ी हानि विश्वास की होती है'।  मैंने 'ग़ालिब छुटी शराब' और 'रवि कथा'  दोनों पढ़ी है और दोनों में इलाहाबाद मौजूद है, लेकिन इस संस्मरण का कलेवर एक दम हटकर है । साथ ही, साहित्य के कुछ ऐसे विशिष्ट नामों का जिक्र जैसे लेखक-सम्पादक शम्सुर्रहमान फारुकी का जिक्र और सुधांशु उपाध्याय को जानना सुखद व रोचक रहा। यही नहीं, ‘रवि कथा’ में रवींद्र कालिया जी के बारे में जो बातें और उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलू रह गए थे, वो भी यहां आपको मिल जाएगा। आप कई अनछुए तारों के सिरे को जोड़ पाएंगे जो इस किताब की सार्थकता को और बढ़ाती है।

यह किताब पढ़ते हुए एक बात और समझा जा सकता है कि कितना मुश्किल होता होगा उनके बेटों के लिए उस माहौल में पढ़ना जिसमें गप्प-सरक्का का कोई कोई टाइम टेबल नहीं हो। खिलाने पिलाने की  कोई समय सीमा नहीं हो। कविता और शायरी देर रात जाम दर जाम चले। इसी संदर्भ में देवी प्रसाद त्रिपाठी जी वाले हिस्से में ममता जी ने इस समस्या की सच्चाई का जिक्र भी किया है। अन्नू और मन्नू की पढ़ाई करने में आने वाले व्यवधान और इसी माहौल से बेहतर करने की प्रेरणा का भी जिक्र मिलेगा। इलाहाबाद को लेखिका दोस्तों की नगरी कहती हैं, जिसकी कमी कालिया दंपत्ति दिल्ली में भी महसूसते रहे। समस्याएं आयी और उसे सुलझाने के उपाय भी और दोनों का जिक्र रोचकता को बनाये रखता है।

कई नई जानकारियों से पटा यह संग्रह बार-बार आपको आश्चर्य में डाल देता है। सुभद्रा कुमारी चौहान एवं उनकी बेटी व प्रतिच्छवि सुधा राय कथा-सम्राट प्रेमचंद के बेटे अमृत राय की पत्नी थीं। यह किताब हम जैसों के लिए ऐसी आश्चर्यचकित कर देने वाली बातों से पटी पड़ी है। इसे पढ़ते वक्त कई बार मन में यह प्रश्न भी कौंधा कि क्या कोई ऐसे भी साहित्यकार होंगे जिनके तार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर से इस शहर से न जुड़े हों। कितनी ही पत्रिकाएं इलाहाबाद से निकलीं और बंद हो गयीं, इन सबकी लम्बी फेहरिस्त लिखी जाए तो आधी समीक्षा सिर्फ उनके नामों से भर जाए।

सोचता हूँ क्या ही अजूबा शहर है यह । निराला, अज्ञेय, शिव मंगल सिंह सुमन और दारागंज की वो चर्चित गली जिसको निराला का नाम मिलने का आज भी इंतज़ार है। कितनी ही बातें हैं जिसे पढ़ कर मन करता है आज ही देखने को निकल पड़ूं।

गुदगुदाते हुए यह संस्मरण कई जगहों पर आंखे नम कर जाता है। एक घटना जिसे पढ़ते हुए मन विचलित हो गया वह मटियानी जी के बेटे मनीष से जुड़ा वाकया। सिविल सर्विसेज की लिखित परीक्षा पास कर चुके मटियानी जी के बेटे मनीष का चाय की दुकान पर बैठना, पीठ पर किसी की गलतफहमी के कारण बम का गिरना और उसके अंतिम शब्द  "मेरे घर पर बता देना, पापा फिक्र करते होंगे।" काल के इस भूचाल को पढ़ते वक्त झेलना इतना मुश्किल है तो जिस परिवार पर यह गुजरी वे कैसे इसे झेल पायें होंगे, यह सब सोच भर के ही सिहर उठा हूँ। ममता जी लिखती हैं 'विकल्प' जो उनका संकल्प था, कल्प बन कर ही रह गया और पहाड़ का आदमी अस्त और पस्त होकर वापस पहाड़ का और पहाड़ सा हो गया। ठीक ऐसी ही पीड़ा महसूस हुई जहां छप्पनछुरी जानकीबाई की दास्तान का वर्णन है। संभवतः उनकी दुर्लभ सुंदरता के कारण बचपन में उनपर छप्पन बार छुरी से वार किया गया। इसी तरह कुछ आत्महत्या और नदी में युवा लड़कों के डूबने का हृदयविदारक चित्रण है। इसे पढ़ते हुए सांस बर्फ सी जम जाती है, खासकर जहां लिखा है "Wait, I am coming"। इन मन विचलित करती घटनाओं का चित्रण करते समय ममता कालिया के लेखनी की परिपक्वता को आप देख सकते हैं। शब्दों को बरतना और बिल्कुल सधे शब्दों का प्रयोग नए लेखकों को बहुत कुछ सीखा जाता है।

ममता कालिया जब इस संस्मरण को लिख रही होंगी तो सिर्फ स्मृति की नदी पर तीर रही होंगी, जो किसी रेल के माफ़िक क्रमवद्ध प्लेटफार्म से नहीं गुजरती। यहां वो खुद लिखती हैं कि जो कुछ लिखा जा रहा है, वह इलाहाबाद की याद में घटित हो रहा है । लिखते समय उन्होंने इस शहर पर रचित कविताओं और शहर के नाम में आते गए बदलाव पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया भी रखी है। संदीप तिवारी की कविता हो, रुचि भल्ला की, यश मालवीय, जयकृष्ण तुषार की या फिर श्री लाल शुक्ल का पोस्टकार्ड हो, ममता कालिया ने सब को यहां उचित स्थान दिया और इंगित किया है।

इस उपन्यास की एक और विशेषता कि  दूधनाथ सिंह और ज्ञानरंजन जी को भी लगभग केंद्र में ही रखा गया है  जिसका पन्ना संस्मरण के अंत में और विशेष बन जाता है।

प्रयाग-कुम्भ-अर्ध कुम्भ-नगर अभिराम योजना-सफाई कर्मी और कवि अंशु मालवीय इन सब को जोड़ता यह संस्मरण आपको स्मृति की उड़ान से यथार्थ के जमीन पर पटकता है और पता चलता है कि लेखिका जमीन से भी कितनी जुड़ी हुई हैं। रसूलाबाद के बारे में पढ़ते हुए मुझे अपना लिखा संस्मरण ‘मोक्ष-धाम’ याद आ गया, जो राउरकेला में है। यह देखना भी रोचक होगा कि आज 'साहित्यकार संसद भवन' की हालत कैसी होगी और आज के इलाहाबाद के साहित्यकार इस बारे में क्या सोचते हैं। 370, रानी मंडी का मार्केट में तब्दील होना साफ-साफ बाजारवाद का सूचक है। आज तकनीक बदल रही है, तरीका बदल रहा है, देखने वाली बात है कि यह शहर असल में कितना बदला।

लेखकों के पेरिस कहे जाने वाले इस शहर इलाहाबाद के संस्मरणों से गुजरना खुद की साहित्यिक समझ को समृद्ध करने जैसा है। भीष्म साहनी और शिला जी वाले एपिसोड में साहनी दम्पत्ति का एक ही सिगरेट से कश भरना और शाम की महफ़िल में देवी प्रसाद जी का बिदेसिया गाना आपको हिंदी साहित्य के असली रस का दर्शन बिना रसरंजन के करवाता है। हालांकि यह किताब यह भी समझाती है कि रसरंजन साहित्य की दुनिया का सह-तरंग वाला हिस्सा है जिसके बिना कोई भी आयोजन अधूरा ही समझा जाता है।

इस किताब में रह रह कर छोटे-बड़े साहित्यिक धमाके होते रहते हैं। उसी श्रृंखला में नीलाभ और नामवर जी वाला वाकया जोरदार है। पढ़ते ही अमिताभ का एंग्रीमैन वाला रूप सामने आने लगा।

ममता कालिया की लेखनी को, साधारण और असाधारण की काया में समुद्र की तरंगों की तरह बदलना आता है। कई संदर्भों को लिखते समय शब्दों की गजब जादूगरी देखने को मिलेगी। एक जगह अन पिया शराब का गिलास के साथ -साथ बात को पीना और रूठे पिया को लिखकर गजब की जुगलबंदी रची गई है। उसी तरह कल्प, विकल्प और संकल्प का सुंदर प्रयोग है। एक जगह कालिया जी को खुद के जवाब देने के सलीके की व्याख्या में लिखती हैं कि उस समय मेरी आवाज़ में गद्य था। ऐसा लिखना आपको विस्मय में डालता है कि क्या बातों को ऐसा सुंदर रूप देना इतना आसान भी रहा होगा।

इसी तरह सीढ़ी पर एक-एक कर कबाब के खाली प्लेटों के गिरने को, हाथ से कबूतरों के उड़ने से जोड़ना भी उनकी लेखनी की जादूगरी ही है। नरेश मेहता की लेखनी का जिक्र करते हुए लिखती हैं "शब्द अगरबत्ती हो गए हैं और उनमें से सुगंध आ रही है।"

लिखता जाऊँगा तो बस लिखता ही रहूँगा क्योंकि इसे यूँ पढ़ा जैसे खुद इलाहाबाद को जिया हो। यह संस्मरण सिर्फ इलाहाबाद ही नहीं साहित्य के विविध समीकरणों को समझने में भी सहायक कुंजी की तरह है। कुल मिलाकर यह अति- संग्रहणीय, पठनीय कृति है और इसके लिए ममता कालिया जी को  बधाई एवं शुभकामनाएं।