लेखक-पत्रकार गीताश्री के उपन्यास ‘क़ैद बाहर’ पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा

On 12 May 2023 by यतीश कुमार

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1.
क़ैद इंसान हो सकते हैं
ख्वाहिशें नहीं
ख्वाहिशें सपनों की सहेलियां हैं
और सपने पराधीन नहीं होते

एक नदी बहती है
एक नदी के भीतर
जिसकी लहरें शिराओं से गुजरकर
आसमान छूना चाहती हैं

इज़ाडोरा ने पुनर्जन्म लिया आज
और फल्गु नदी बन गई
जहां कुरेदते ही पानी छलछलाता है
और फिर किसी चुल्लू में नहीं समाता

2.
ताप बौराता है बिना फुँफकारे
गेहुँआ मन कत्थई हो जाता है

जब वह रोती
तो भीतर के सारे परदे हिलते
वह बसंत लिये घूमती सावन में
फूलों को समझ नहीं आता रोना है या हँसना

सपनों से लैस आँखें
बसंत ढूँढ़ती है
जबकि उसे नहीं पता
उसके भीतर का पतझड़ उसका पीछा कर रहा होता है

विडंबना है कि आज प्रेम चूहा है

और नज़रें जाल बुन रही हैं
जाल प्रेम का हो या धर्म का
छटपटाती स्त्री ही है 

3.
फ़ासले आँख का धुआँ होते हैं
पनियाली आँखें उम्र के फ़ासले धो देती हैं

चश्मे का काम है दूरियाँ घटाना
हम प्रेम में अक्सर
एक दूसरे का  चश्मा पहन लेते हैं
अगर एक चश्मा उतार दे तब दूरियाँ बढ़ने लगती हैं

नहीं जानते कि मोह और फ़ैसले की
आपस में कभी नहीं बनती

फ़ैसला फ़ासलों की गिनती भूलने से
और बेहतर होता है

और यह भी सच है
कि उदास बाती भी
फ़ैसले के बाद
समुंदर की उछाल पर थिरकना चाहती है 

4.
दो ग्रहों की तरह बार बार नज़दीक आना
और न मिल पाना
मिलना और अपने रास्तों पर निकल जाना
प्रेम में अदीठ कसैलापन  की निशानी है

एक ग़लती
स्वर्ग के द्वार बंद कर देती है
दिल के द्वार
स्वर्ग के द्वार से कम नहीं होते

टूटी पत्तियों को जोड़कर
फूल बनाया जा रहा है
सदियां बदल रही हैं
स्त्रियों का चारा बनना नहीं बदलता

केंचुए स्वतंत्र रहते हैं तब तक
जब तक मछली का चारा न बन जाये
विडंबना है कि
स्त्री कभी चारा बनती है तो कभी मछली

5.
शक्ति संग सत्ता
प्रेम नहीं कर सकते
वे शिव और शिवा नहीं हैं

दोनों नहीं जानते
कि अधीन होना ग़ुलाम होना नहीं होता
और रिसना
टपकने से फटने तक की यात्रा है

प्रार्थना है
प्रेम और युद्ध में सब जायज़
बस प्रेम में युद्ध न हो 

पर सच यह है कि इस खराबा में
जो भी संवेदनशील होगा मारा जाएगा

6.
कभी कभी हम ट्रेन पर जानकर नहीं बैठते
तो कभी बस इंतज़ार में रहते हैं और ट्रेन निकल जाती है
पर कभी ऐसा भी होता है
कि ट्रेन ख़ुद यह निर्णय लेती है
कि इस प्लेटफार्म पर ही नहीं आना है

सूनेपन के चारों ओर हरियाली होती है
कई बार सूनापन विस्तार ही नहीं चाहता

कुछ बाहर से बंद और भीतर से खुले होते हैं
और कुछ भीतर से बंद और बाहर से खुले
दोनों के बीच के समीकरण की गाँठ खोलने से
भीतर बाहर दोनों खुल जाते हैं

7.
मन मिलने से पहले
दो आँखें भी एक-दूसरे से गले मिलती हैं

निकलने के मायने
सुबह और शाम में बदल जाते हैं
जबकि उसके आने और जाने से
भोर और साँझ का होना लिखा है

मंदिर के शोर के बदले
उसे दरगाह की शांति भाती है
पर सबसे ज़्यादा शांति मिलती है
वहाँ की मिट्टी चेहरे पर पोत कर 

चाँद इस वक़्त के इंतज़ार में
हर रोज़ निकलता है

8.
सपनों  से गिरो
तो चोट भी बेआवाज़ लगती है
हिम्मत और भरोसा दोनों डगमगाता है

मेल डिलीट करने से
स्मृति होम नहीं होती

मन की गुफाओं से जब गुजरना हो
तो बेआवाज़ चलो
सपनों को जागने की
और हमें ख़ुद को जगाने की बीमारी है

क़ानून उदार हो रहा है हुकूमत नहीं
हम सब के भीतर एक न्यायाधीश बैठा है
और हिदायतों का सिलसिला जारी है

9.
विलाप जब शोर बन जाये
इंद्रियाँ भोथरा जाए
और शोर निर्वात में बदल जाए
डर लगता है

सुबह की रोशनी प्यारी हो
पर हर पल रात की ख़ुमारी हो
ख़ुमारी जब रौशनी को ढक दे
डर लगता है

ख़ुमारी बेवजह बड़बड़ाती हो
अकुलाहट तिश्नगी बढ़ाती हों
जमी ख़ामोशी बर्फ़ मानिंद
टपटपाती हो
तब डर तो लगता है

बेचैनियाँ चहलकदमी करे
अंधेरा प्यारा लगे
और रोशनी चुभने लगे
तब डर लगता है

आत्महत्या के लिए कोई कूदे
और नीचे पानी नहीं
सिर्फ़ कीचड़ हो
तब डर लगता है

10.
ख़ूबसूरती गरीब की ज़िंदगी की कालिख है
जिसे हीरा बनने से पहले
कोयला बनना पड़ता है

विडंबना यह है
कि सबके भीतर अहिल्या है
और द्रौपदी की लड़ाई है

समय का बवंडर नृत्य कर रहा है
और नृत्य कर रहा है मन
इस लड़ाई में कभी कोई नहीं जीतता
समय को छोड़कर

समय का झोंका अकसर अचानक आता है
और सारी परछाइयाँ ग़ायब हो जाती हैं

पर किसी की स्मृति में आज भी
नृत्य में मग्न इजाडोरा है
और उसे पता है
मशाल जलाती स्मृतियाँ अजर होती हैं।।