इस किताब की भूमिका पढ़ते समय दो लेखकों, संजीव और राजेंद्र अवस्थी का स्मरण हो आया। दोनों की किताबों पर कविताई हुई है कभी। पहली किताब ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ और दूसरी किताब ‘जंगल के फूल’। इन दोनों किताबों में लेखक ने जंगल को जिया है। इसके दर्द को शिद्दत से महसूस किया है और यहाँ मनीषा की कलम से निकलकर वही दर्द अपनी शक्ल बदल कर नार्थ ईस्ट और रेगिस्तान के जंगलों में घूमता फिरता मिल रहा है, रूबरू हो रहा है।
‘नर्सरी’ कहानी में ‘शुक्र तारा’, जो चंद्रमा के बाद रात्रि में आकाश का सबसे चमकीला तारा है, एक रूपक की तरह मिलता है। चाय बाग़ान अपनी कड़वी सच्चाई कह रहा है कि जंगल को चाय बाग़ान खा रहे हैं। यहाँ यह सब देख रहा है गेंद, पर असल में यह गेंद नहीं लेखिका का मन है, जो बेचैन है। उसकी बेचैनी के केंद्र में है चाय बाग़ान का जीवन। गेंद, ऊपर आकाश में, बड़ी गेंद माने चाँद को देखती है और बच्चों की आँखों में बदलते चाँद की तस्वीर को। लगता है गेंद नहीं समय की आँख है, जो एक महल से निकल कर जंगल में उन्मुक्तता को ताके जा रही है। एक मूक द्रष्टा चाय के पूरे बाग़ान के हर कोने का मुआयना कर रहा है, हर कोने में सुख के घटते घूँट को देख रहा है। सारी अंदरूनी समस्याएँ एक के बाद एक नज़र आयेंगी। व्यवस्था और व्यविचार का मिला जुला प्रबंधन।इन सब के बीच शुक्र तारा का चमकना जारी है, तेंदुओं से बचने का इंतज़ाम हो रहा है। गेंद थोड़ी सी हँस देती है, कहानी बहुत सारे सवाल छोड़ती हुई अगली गली में मुड़ जाती है। मनीषा ने यहाँ क्लाउड फ़ैक्ट्री वाली बात जीतनी प्यारी है उसे उतनी ही ख़ूबसूरती से दर्ज किया है।
अगली कहानी तोसीरो, मिति और याबोम के त्रिकोणात्मक रिश्तों की अनकही कहानी है, जहाँ प्रेम अपनी अलग करवट लिए हुए बैठा है। कहानी का अंत अपनी प्रेम की अलौकिकता लिए, जहाँ जंगल जीवन का लोबान बन अपनी ख़ुशबू फैला रहा है और अतुलनीय प्रेम के आगे झुक कर सलाम कर रहा है। इन सबके बीच ‘नीला घर’ अंत में गुलाबी होता दिखता है ।
‘ज़मीन’ कहानी में लिखा है, दो-तीन इंद्रियाँ और जगा लेती सुरमन, जो सुनने और सूँघने के बीच जैसा कुछ, त्वचा पर महसूस करने और धुँधलके में देखने से भी आगे जैसा कुछ है । इल्हाम स्त्रियों को आदमी से बेहतर अता होती है, इस बात का सबूत है ये पंक्तियाँ, पर यहाँ मामला सतर्कता का है। माहौल पल-पल सजग होना सिखाता है। कहानी पढ़ते हुए पंकज मित्र याद आते हैं, कहानी ‘प्रेत मुक्ति’ याद आती है।
संग्रह ‘वन्या’ में आज के जंगल या आदिवासी समाज का संगीत है। यहाँ कहानी में मोबाइल है, मतलब समाज इतना आगे जा चुका है फिर भी वहाँ प्रकृति की गोद में यह कैसा कुतूहल है। क्या अब भी कुछ नहीं बदला? और बदला है तो प्राकृति से या समाज से या ख़ुद से बदला लेने का तरीक़ा बदला है। कहानियाँ असल में प्रतिबिंब हैं समय की। कहानियों में रह-रह कर विभिन्न पेड़ों के नाम, चिड़ियों के नाम, फूलों के नाम, फसलों के नाम सब वन्या की प्रवाह लेकर मिलते हैं। ये आपको नाम के साथ ख़ुशबू भी देंगे, लेखन की ख़ुशबू। कहानियों में पूसा ज्वाला मिर्ची जैसे तीखे स्वर भी हैं। सुरमन और दादोसा, दादा-पोती की अपनी सुंदर दुनिया भी है और इसी के साथ दादा और पाकड़ पेड़ का अलौकिक रिश्ता भी। मनीषा इस संग्रह में अपनी नयी भाषा शैली लेकर आयी हैं। कथ्य और भाषा जंगल के दर्द को समेट रहे हैं और समेटते हुए कुहुकते भी हैं। ऐसा करते हुए वे पथरीले जीवन को उचाट की चादर नहीं, रोचकता का मलमल चढ़ा रहे हैं। पोई और मोगरे की ख़ुशबू, संतरे के रस जैसी धूप के साथ, कीकर की लकड़ी के धुएँ में मिचमिचाती आँखें लिए, भाषा आपको आपका वही पुराना जंगल, अपनी नयी आँखों से दिखा रही है।
कोई कहती है कि हम औरत नहीं ज़मीन बन कर रह गए हैं, तो उसी बात को कोई यूँ कहती है कि औरत ज़मीन हैं तो हमारा बचना ज़रूरी है। एक और अलग बात है कि मनीषा कहानियों के अनुसार भाषा बुनती हैं। शिल्प, मानो कहानी के कोकून में अपना फैलाव ढूँढ़ते हैं। सब कुछ बहुत सायास प्रतीत नहीं होता।
‘एक थी लीलण’ कहानी की शुरुआत दहला देने वाली है। जैसे पहले ‘नर्सरी’ कहानी में पूरा चाय बाग़ान और उसके भीतर का सच एक गेंद की नज़र से देखा और लिखा गया, यहाँ जंगल का कड़वा सच, एक खुली रह गई आँख, जो एक लड़की की है, के माध्यम से उजागर किया जा रहा है। दर्द और उसकी टीस मिलकर एक लौ बनाती है, जिसके उजियारे में जंगल का घुप्प भयानक अंधेरा दिखाया जा रहा है। इस कहानी में नीला आकाश पहले लाल फिर काला हो जाता है। नदी बहती हुई, मुड़-मुड़ कर पीछे आतंकित होती होते हुए देखती है और कराहते हुए कहती है “अब मैं पीड़ा से पकी जाँघ हूँ”।
यह एक पंक्ति काफ़ी है दर्द के ज़लज़ले को समझने के लिए। इस बेहद मार्मिक हिस्से को रचते समय लेखिका को कितने दर्द से गुजरना पड़ा होगा, मैं इसका अंदाज़ा लगाने की कोशिश में हाँफने लगता हूँ। पढ़ते हुए लगता है जैसे छिलनी से कोई आपकी त्वचा छील रहा हो, कच्चे आलू की तरह।
इस दर्द भरी कहानी में कम से कम एक मोड़ थोड़ी साँस अता करता है, जब वह सोचती है, वनराज नहीं अगर उसका कुत्ता लालू ही होता तो हर हाल में बचा लेता। यहाँ कहानी का डायमेंशन बदल जाता है। कहानी में इंसान जानवर बन जाता है और जानवर एक भरोसेमंद इंसान और इनसब के बीच ‘अपमान’ शब्द अंत में ख़ुद पर हँसता हुआ मिलेगा।
‘आर्किड’ कहानी का शुरू में ओर-छोर समझ नहीं आता कि ये किस ओर ले जा रही है, पर थोड़ी देर में ही यह आपको ग्रिप में ले लेती है। समस्या जितनी बड़ी हो उसमें क्लिष्टता उतनी ज़्यादा। यह कहानी भी बहुत जटिल नार्थ ईस्ट की समस्या को लेखिका के द्वारा अपनी तरह से समझाने की एक पहल है, जहाँ इंडिया अब भी उनकी सीमा से बाहर है।
‘कुरज़ां’ तक आते-आते जंगल रेगिस्तान में बदल जाता है पर दर्द का रंग वही सुर्ख़ ही रहता है और फिर यही ‘रेत का शहर’ कहानी में एक भील आदिवासी हॉस्टल के पास ले जाता है। वहाँ भी दर्द का रंग वही है, पर सुर्ख़ में भूरा भर दिया है, घुटन का भूरा, मारने के बाद फंदा पर लटकाने का भूरा। अब भी कहानी में एक डोर लटकी हुई है कि कोई कथाकार इस प्लॉट को बदल कर ऊन वाले गुलाबी फंदे की बात करे। कब तक यह लटकता फंदा अपनी बात करता रहेगा, कब तक स्कूल जाती लड़कियों पर ख़ौफ़ का साया रहेगा, कब तक घाटी में लड़कियाँ मज़हबी क़ानून के पाश में बंधी बेचैन रूह बनी फिरती रहेंगी। कभी तो उनके होंठ बैगनी से गुलाबी हो जाएँगे, सदा के लिए!
ऐसी सदाओं की कहानी लिखने के लिये मनीषा कुलश्रेष्ठ का शुक्रिया। ढेर सारी शुभकामनाएँ इस आशा के साथ कि अगली किताब में दर्द का मरहम भी मिलेगा।