हृषिकेष सुलभ के 'दातापीर' उपन्यास पर यतीश कुमार की समीक्षा 'फकीरों वाली रूहानियत का रोचक आख्यान'

On 23 October 2024 by हृषिकेष सुलभ

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बहु संस्कृतियों, बहु धर्मों, बहु बोलियों और भाषाओं वाला अपना यह बहु देश है भारत। अपने आप में एक महाद्वीप को समेटे इस देश का अंदाज ही अलबेला है। एक साथ फकीरी भी और अमीरी भी। हिन्दू और मुसलमान एक साथ हजारों सालों से जीते, रहते आ रहे हैं। इनमें झगड़े भी होते हैं और प्यार भरा अपनापन भी होता है। हृषिकेष सुलभ साहित्य और फिल्म की दुनिया में जाना माना नाम है। उन्होंने अतीत में पटना के जिस दौर को देखा, महसूसा और जिया है, उसे अपने रोचक उपन्यास 'दातापीर' में सहज तरीके से ढाल दिया है। राजकमल प्रकाशन से छपा यह उपन्यास अपनी ढब का है, जिसे सरसरी तौर पर नहीं, बल्कि थम कर पढ़ना पड़ता है। आज हृषिकेश सुलभ का जन्म दिन है। उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं 'दातापीर' उपन्यास पर यतीश कुमार की समीक्षा 'फकीरों वाली रूहानियत का रोचक आख्यान'। मुजाविरों की दुनिया और वो भी आज की! फ़क़ीरों और उनके इर्द-गिर्द घुमती ज़िंदगी से रूबरू होना हो तो इस किताब को उठा लीजिए। मैयतों का राग-विराग है, हज़रत दाता पीर मनिहारी की दास्तान है। एक अलग अनजानी दुनिया है, जिससे पर्दा उठा रहे हैं हृषीकेश सुलभ इस उपन्यास में। पढ़ते हुए पटना का प्राचीनतम मोहल्ला फिर से आपके सामने जी उठेगा। लेखक का पता ही है- पीर मुहानी, मुस्लिम क़ब्रस्तान के पास, कदमकुआँ, पटना। लेखक ने अपने इर्द गिर्द को समेटते हुए एक शोध सृजन यात्रा की है। सांप्रदायिकता से परे मुस्लिम समुदाय को जन-जीवन में पूरी उपस्थिति के साथ रचा गया है और यह उनके जीवन संघर्षों को धार्मिकता के आईने से परे एक आख्यान का रूप देता उपन्यास है। लेखक रचनाक्रम में रह-रह कर इतिहास की गलियों में घूमने निकल पड़ता है। प्रश्नों को खड़ा करता है फिर उसके उत्तर भी देता है। पटना के वे तंग मुहल्ले और उनका जनक कौन रहा? कौन? कब? कैसे? समय के साथ बदलता गया? किसके हाथों में कौन सी ज़मीन कैसे आयी? यह सब यहाँ दर्ज है। इसी सिलसिले में सोलहवीं शताब्दी के अफ़ग़ानी बहार ख़ाँ का ज़िक्र है। शाह अरजाँ के क़ब्रिस्तान का इतिहास और बादशाह जहाँगीर से जुड़ते इसके तार, बुद्ध और वैष्णव मठ के अवशेष यह सब लेखक के शोध का प्रतिफल है, जो पढ़ते हुए बहुत सीमित जगह घेरता है पर अपनी महत्ता को बरकरार रखता है। भाषा इस किताब की जान है। उर्दू, चूँकि मूल कहानी जिस समुदाय के इर्द गिर्द है, के बिना मौलिक परिवेश नहीं बुना जा सकता था पर, बज्जिका की छौंक आपको कई बार पुलकित कर देती है। काजल से आँजना जैसी अभिव्यक्तियाँ उचित प्रयोग सिखाती हैं। 'दोज़ानू' जैसे शब्दों का समुचित प्रयोग विस्मित करता है। ‘हमको मैयत दफ़नाने के सिवा और कुछ नहीं आता साहेब’- जैसी मार्मिक पंक्तियाँ आपकी आँखें नम करती रहेंगी। ‘खौलते हुए पानी की आवाज़ आने वाले समय-सी थी’- जैसी पंक्तियाँ आपको थोड़ी देर रोक लेंगी। देसी मुहावरों का छौंका, पढ़ने के ज़ायके को बनाये रखता है। एक जगह लिखा है - ‘घायल पंडुक की आँखों की तरह उसकी आँखों में काँपते पानी को वह साफ़-साफ़ देख पा रहा था’। ऐसी व्यंजनाओं से भरा है यह उपन्यास। ढेरों किरदार हैं इस उपन्यास में और उन सबकी कई छोटी-बड़ी कहानियाँ समानांतर रेंगती हैं फिर अंत में वापस लौट आती हैं, पीर मोहानी और उसमें बसे क़ब्रिस्तान के इर्द-गिर्द। किरदारों में दो ऐसे किरदार हैं जिनका व्यक्तित्व पन्ना दर पन्ना खुलता, सुलझता- उलझता है, वे हैं अमीना और साबिर। अमीना का रसीदन के रूप में ढल जाना, माँ की तरह अदृश्य पीर से बतियाना यह सब आपको अलौकिक दुनिया की सैर सा भी लगेगा। इन किरदारों के बीच एक किरदार है जो अपने आप में अजूबा है। उसका नाम है सत्तार मियाँ, जो पहले पन्ने से लगभग आख़िरी पन्ने तक अपनी करतूतों के साथ मिलेंगे। ऐसे किरदार मुझे साक्षात मिले हैं और ये अजूबे होते हैं। इस किरदार के बारे में ज़्यादा यहाँ नहीं लिखूँगा पर जब भी आप इस किताब को पढ़िएगा इसको याद रखियेगा, आप भूल नहीं पाइयेगा। मुहल्ले में सौ मकान और सौ मकानों की दो सौ दास्तान। इस किताब का मामला भी कुछ ऐसा ही है। चुन्नी की कहानी का सिरा कब बबीता के सिरे से मिल जाए पता नहीं चलता। बबीता की कहानी में अलग सौ पेंच। इन सभी सर पेंचों के चारों ओर घूमती कहानी की चकरघिन्नी घूम-घूम कर अंत में क़ब्रिस्तान के मुहाने पर ही ला कर आपको खड़ा कर देगी। क़ब्रिस्तान का मुहाना कब फ़क़ीर की आपबीती में बदल जाये पता नहीं चलता पर कहानी चलती रहती है जानने और मानने के बीच, समद और समदू फ़क़ीर के बीच, समद और ज़ूबी के बीच, इश्क़ और मुश्क के बीच। एक दृश्य है जब काले फ़क़ीर और समदू फ़क़ीर आमने सामने बैठे हैं और रसीदन उन्हें ख़्यालों में देख रही हैं। इस अलौकिक दृश्य को इस तरह गढ़ा गया है कि आप भी थोड़ी देर के लिए यह सब कुछ देखते हुए गुम हो जाएँगे। यही दृश्य अंतिम दृश्य में बिलकुल अलग तरह से रचा गया है जब आते हुए काले फ़क़ीर समदू फ़क़ीर में बदल जाएँगे। यहाँ ज़ियारत और हम्द के बीच मोहब्बत के सूरज डूबने के निशान मिलेंगे। एक दृश्य में अमीना महसूस करती है उसके दिल का ग़ुबार पीठ का कूबड़ बन चुका है। कलेजे में बसने वाला पीठ पर सवार भारी बोझ-सा हो चुका है। स्थितियों- परिस्थितियों में बदलाव अमेठेन की तरह बदलते हुए मिलते हैं। आपका मन अंत तक उपन्यास छोड़ने का नहीं करेगा। एक विशुद्ध रोचकता है इस उपन्यास में, जो रिश्तों के टूटते बनते गिरहों के लोबान से मुश्क की तरह पन्ने दर पन्ने फैले जा रही है। किरदार के शख़्सियत में होते बदलाव मन मोह लेते हैं चाहे साबिर हो या चुन्नी या फ़क़ीर समदू! बारीकियों का ख़्याल यूँ रखा गया है कि शहनाई सालों पहले कलकत्ते की किस कम्पनी और किस गली (मार्क्विज स्ट्रीट) से ख़रीदी गई उसका भी बखूबी ज़िक्र है। मुहल्ले का स्वरूप और धर्म की पकड़ सामाजिक बदलाव और राजनीति का असर, सभी का विस्तार यहाँ इस उपन्यास में सिमट आया है। क़ब्रिस्तान की एक तरफ़ की ईंट गिरने से जो कुव्यवस्था का रूप और कोर्ट का सामाजिक कवच वाला रूप रचा है हृषीकेश सुलभ ने, वह काबिले तारीफ़ है। उपन्यास साज यानी शहनाई की भी यात्रा गढ़ता है। एकबारगी रणेन्द्र की लिखी ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ याद आ गया। इस उपन्यास में तीन पीढ़ियों की संगत की यात्रा और हिंदुस्तानी तहज़ीब जिसमें, राम सिंगार महाराज एक मुसलमान साबिर को रक्षा सूत्र, रोली अक्षत डाल कर गंडा-बँधाई का रस्म करते हैं, का ज़िक्र एक सुकून से कम नहीं। उपन्यास में संगीत और संगत की बारीकियाँ, वादी-संवादी के बीच आरोह और अवरोह से गुजरते हुए कोमल और तीव्र मुरकियाँ और तानें कैसे उठती और गिरती हैं, देखने-सुनने को मिलेंगी। इश्क़ और मौसीक़ी के बीच किसी एक को चुनने की कश्मकश है, विडम्बना का पूरा जाल है कहाँ मौसीक़ी से इश्क़ करने का फ़रमान है, इसी विडम्बना के उहापोह में अमीना साबिर से कहती है ‘यह कबरगाह है यहाँ आ कर सिर्फ़ मुर्दे रुकते हैं दूसरे नहीं!’ यहाँ एक और दृश्य है जो बहुत ही मार्मिक है, जब दरगाह के नल पर एक सुग्गा बार-बार आता है फिर उड़ कर वापस अपने कोटर में चला जाता है। यह दृश्य नगरपालिका की बदस्थिति को दर्शाता है, जो अत्यंत मार्मिक प्रतीत होता है साथ ही सिस्टम पर कटाक्ष भी है। मार्मिकता अपनी पराकाष्ठा पर मिलेगी जब एक माँ, एक पूरी नदी को भीतर बांधे, अपने बेटे का कब्र खोद रही होगी और एक बहन माँ का साथ दे रही होगी, अपनी चुप्पी में ख़ुद को घोले उपन्यास का अंत लिखना लेखक की परिपक्वता का द्योतक है। हृषीकेश सुलभ ने इस परिपक्वता का शानदार परिचय देते हुए एक बेहतरीन अंत को अंजाम दिया है। दुःख और सुख की कसमसाहट पूरे उपन्यास में रचते-रचते अंत में आप फ़क़ीरों वाली रूहानियत को महसूस करेंगे जहाँ न दुःख है न सुख। बस हम्द की लोरी है जो एक लंबे निर्वात को रचते हुए बीत राग सुना जाती है। एक अत्यंत पठनीय और संग्रहणीय कृति रचने के लिए हृषीकेश सुलभ जी को बहुत-बहुत बधाई। बस एक खटका पूरे उपन्यास में लगा कि जब चुन्नी लापता हुई तो उसका भाई फजलू भर पेट ख़ाना कैसे खा सकता है वो भी इतने दिनों का भूख लिए! यह लेखक से पूछना है मिल कर।