गीताश्री के उपन्यास ‘राजनटनी’ पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा

On 13 May 2023 by गीताश्री

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1.
योजनाओं की भी अपनी यात्रा होती है
जो घटने के लिए भटकती हैं

वे ख़ानाबदोश हैं
जो अपने साथ
फूलों और मिट्टियों की खुशबू लिए भटकते हैं

घोर आतप से तपे
देशविहीनों को बताया गया
कि सवाल उठाती मुक्त स्त्रियाँ
एक देश में रहती हैं

निकल पड़े वे
ज्ञान की धरोहर के घर
बस यह जानकर
कि चलेंगे तो पहुँचेंगे

उछाह का रस चखने वालों को
विरह का दृश्य नहीं दीखता
महमह करती गंधिल हवा
ठहरने के इशारे करती है

मीठे बोल और तीखे वाण
यही हैं अजगुत नगरी मिथिला
की पुरानी पहचान

2.
प्रस्तोता नर्तकी
लोच-लय में स्वर की डली मिलाती
हिरनी सी कुलाचें भरती
मीन सी नीली आँखों वाली

मिथिला की बंजारन
गजदामिनी, मोरनी, मोहिनी
भाव नृत्य की उन्मुक्त नटी
देखते-देखते मनबसिया बन गयी

उस अलबेली को पसंद है
मल्लाह का नदी तल में उतरना
और मखान छानना

लोगों की नज़र में
वो सिंगी-मांगुर थी
पर उसे तो कवई मछली बनना था
पेड़ पर चढ़ना था।

3.
नदी से ज्यादा लबालब आँखों में
अनदेखे कोई डूबना चाहता है 

उम्मीद का दिया टिमटिमाता है
आश्वस्त उम्मीद नग की तरह चमकता है
अविश्वास के अन्हरिया में
सघन जुगनू हो जैसे

पैदाइशी चितेरी ने अनगढ़ता में
भित्ती पर उकेरा
एक अनदेखा चेहरा

एक छाया, नृत्य के आह्लाद को
विरह के उदास रंग से रंग रही है

रोग है और कोई उपचार नहीं
ज़ख्म हैं उसके छाप नहीं

किसी के पाश का इंतज़ार लिए
गहरे भँवर में फँसी मूक खड़ी वो
मिट्टी को रेत बनने से पहले
बस एक बारिश का इंतज़ार है

4.
अभिसार दुःस्वप्न सा मिला
खुशी भयावह शक्ल लिए मिली
सौन्दर्यमयी पुष्पा
मूर्तिवत बस ठगी रह गयी

प्रेम के कुरुपावतार को समझना
और उसे बाँह पाश देना
अग्नि से मिलना हो जैसे
और वो अगन से मिल आयी

बदहवासी के बादलों में घिरी
अन्यमनस्कता अब उसका वर्तमान है


उसे पारिजात बनना था
जिसे तोड़ा न जाये
स्वतः गिरे और पूजी जाए

नीलमणि का गुरुर टूटा
कि आकाश का रंग उसकी आँखों से फैला है
आकाश वहीं पर था आज बेरंगा

5.
रात एक चुनौती है
गंध को पार पाना
चुनौती की पहली शर्त

एक नीम बेहोशी से बाहर
स्व की अपनी एक ढाल है

देह और आत्मा का प्रेम
उन आँखों सा है
जो एक दूसरे को नहीं देख सकतीं
एक तीर लगा पर दिखा नहीं

देह का प्रेम
समर्पण की सीढ़ी पर
देश के प्रेम से
दो कदम नीचे खड़ा मिला

6.
किसी ने नदी की धार मोड़ने की कोशिश की
फूल की खेती की चिंता है अब
जबकि ज्ञान की गंगा
अपनी धार मोड़ने से इनकार कर रही है
उसे चुनना है
देह और देश में किसी एक को

मुहाना मुड़ने से बचाना है
डरती है, स्वाभिमान की धार भोथरा न जाये 

उसने निर्वाण चुना
उसने गंगा को चुना
उसने खुद को खोया
प्रेम, देश प्रेम से हारा
और एक वीरांगना के आँचल में
मिथिला के ग्रंथों का प्रासाद छुप गया …