गीताश्री के उपन्यास ‘अंबपाली’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 13 May 2023 by गीताश्री

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रचनाकार गीता श्री ने इस उपन्यास को लिखने के पहले अपने मन मस्तिष्क को उस काल के साँचे में ढाला है ताकि वहाँ की आवाज़ हम सुन सकें। भाषा को समय के अनुकूल रखा गया और मनोविज्ञान को समझते हुए वे आगे बढ़ी हैं। इसे लिखते हुए यह भी लगता है कि उन्होंने हिम्मत के साथ जोखिम भी उठाया है।
शुरू में ही वे साफ़ कर देती हैं कि मेरी अम्बा रामवृक्ष बेनीपुरी और आचार्य चतुरसेन से अलग हैं। तो कैसी है गीता श्री की अम्बे ! कैसा है अपूर्व सुंदरी से तेजस्वी साध्वी तक का सफ़र ? आइए जानते हैं।

गीता श्री को पहले भी पढ़ा हूँ पर, भाषा पर जो काम यहाँ दिखा उसे पहले नहीं देख पाया। ऐतिहासिक उपन्यास राजनटनी भी पढ़ा पर दोनों उपन्यासों के बीच भाषा-शिल्प, शब्द संयोजन व विन्यास पर जो मेहनत समय-काल को देखते हुए यहाँ दिख रही है वह अम्बपाली को उनकी ही किताबों से अलग बनाती है।

यहाँ विस्मृति लोक के साथ-साथ विभिन्न व्यक्तित्व का अपना आलोक भी है। शर्तों की धार पर किरदार अपने कदम रख रहे हैं।यहाँ एकांत इतना ठोस है जिसकी व्यथा को रचने के लिए लेखिका को भी उसे जीना पड़ा होगा। उतनी ही ठेस महसूस हुई होगी। ऐसी रचना दुनिया जहाँ स्मृति मरण हो, उसके लोक और वातावरण को उकेरने के लिए वैसी मनःस्थिति तैयार करना कोई आसान काम नहीं।

जनसत्ता और राज सत्ता माने वैशाली और मगध दोनों की अपनी कार्यशैली, अपना पराक्रम।दोनों की कहानी के साथ बुद्ध का एक अपना सफ़र भी, इन सबको जोड़ते हुए रची गयी यह कृति स्त्री पक्ष के कई पहलुओं को समेटते हुए बुनी गयी है।

गीता श्री ने तथागत और अम्बा के बीच का संवाद बहुत रोचक लिखा है, ख़ासकर जब अम्बा बालहठ करते हुए तथागत को वरदान और नियम के बीच के दुर्लभ अंतर पर अपनी बात रखती है। वे अम्बा के साथ और भी सह भिक्षुणियों की कहानियाँ बुनती हैं जो स्त्री पक्ष की समस्याओं को केंद्र में लाने का एक ज़रूरी और सफल प्रयास है। यहाँ आपको थेरी गाथाएँ मिलेंगी और सारी गाथाएँ अलग अलग रास्तों की । जैसे सिंहा का चरित्र, उसकी कहानी, उसकी यात्रा बहुत रोचक बन पड़ी है, विमला का संघ से जुड़ना और इसे रचते हुए एक विकट मनोविज्ञान से गुजरना गीता श्री के अच्छे रचनात्मक प्रयोग हैं। किरदार निर्मित करते समय किरदार को ख़ुद भी जीना होता है । कहानी में तरुणाई, यौवन और साधना के बीच की यात्रा और साथ में उनके मन डोलने का क्रम इसे और रोचक बनाता है साथ ही मृत्यु और पलायन के बीच मध्य मार्ग की तलाश, किताब को पठनीय भी बना रहा है । गद्य के बीच पद्य थेरी गीत की तरह आता है और फिर कहानी आगे बढ़ जाती है । इन गीतों का रुक-रुक कर आना फ़ुहार सा है।

अम्बा का तथागत पर पूर्ण विजय पाने वाली आकांक्षा वाली बात की कल्पना मैं नहीं कर सका पर, यहाँ वर्णित पाता हूँ तो आश्चर्य होता है। काम्या का चुनाव असली बदलाव का बिगुल है। जातिवाद पर सीधा प्रहार। स्त्री शक्ति के लिए पहली ज़रूरी शर्त है ख़ुद को  आडम्बरों से दूर रखना। काम्या को चुनकर अम्बा निरपेक्षता की अग्रसर दिखती हैं और यही लेखिका के मन की बात है जो सम्भवतः अनायास स्वतः रच गयी हो।

इस उपन्यास के केंद्र में बुद्ध हैं न कि विम्बिसार या अजातशत्रु। किरदारों में कब मुख्य कौन बन जाता है कहना मुश्किल हो जाता है। यही इस किताब की विशेषता भी । मंजरिका, देवी शिव्या, आचार्य दिव्य, विमला, सींहा या वर्षकार नाम है कि ख़त्म ही नहीं हो रहा।

बुद्ध, संघ और स्त्री के संघ में आगमन का प्रावधान और बुद्ध-अम्बे संवाद इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। एक अपूर्व सुंदरी का साध्वी में परिणत होना और फिर एक क्रांतिकारी व ऐतिहासिक परिघटना की शुरुआत करना एक असाधारण बात थी। संघ के द्वार स्त्रियों के लिए खुलवाने वाली पहली मुक्तिकामी के सारे आयाम एक के बाद एक खुलते पाएँगे आप। एक स्त्री में कितने गुण विद्यमान हो सकते हैं जैसे वह पृथ्वी,अम्बर,आकाश,तारे सारे नक्षत्र, नदी सबको खुद में समेटे हो।

ठीक इसी तरह आचार्य दिव्य और देवी शिव्या के बीच का संवाद जो महज एक रात्रि का है जिसमें मौन ज़्यादा और संवाद कम है जो प्रेम का दर्शन की ओर उठा एक कदम है, इस उपन्यास को और भी उत्कृष्ट बनाता है।

पढ़ते हुए आपको यह भी लगेगा कि यह उपन्यास 1500 वर्ष आगे फलाँगता हुआ यह प्रश्न उठाता है कि आज क्या बदला है। कितनी अम्बा बची हुई हैं जिनका आत्मविश्वास उनकी पहचान है जो अडिग हैं जिन्हें परतंत्र होते हुए प्रेम पर भरोसा है और स्वतंत्रता की राह पर चलना एक दिन के लिए नहीं छोड़ती।

स्मृतियों का इतिहास रचना आसान नहीं और यह प्रयास सराहनीय है। अम्बा के भिक्षुणी बनने के बाद राजनर्तकी बनने की होड़ और चयन प्रक्रिया भी काफ़ी रोचक ढंग से लिखी गयी है। इस उपन्यास में अक्सर ऐसा हुआ है कि कहानी मुख्य किरदार से अलग होकर कुछ और स्वतंत्र बातें करने लगती है जो पूरा परिदृश्य समझने में अंततः सहायक सिद्ध होता है।

उपन्यास में बार-बार स्त्री का अस्तित्व व अस्मिता की लड़ाई का पक्ष मुखर हो उठता है । उपन्यास का एक चरम यह भी है जब दासी पुत्री कम्या और वृज्जि कुमारी रत्नकमल के बीच की प्रतिस्पर्धा में नृत्य और उसी के संग उन दोनों के बीच की मौन वार्ता है। स्त्री द्वारा स्त्री का सम्मान, जातीयता से ऊपर उठकर गुरु शिष्य परम्परा का निर्वाह, योग्यता और कला को किसी धर्म या जाति से न जोड़ने का संदेश यह सब इस हिस्से में बहुत ख़ूबसूरती से रचा गया है।

भाषा इस उपन्यास का प्रबल पक्ष है जो आपको काल में विचरित करने में सक्षम बनाता है। शब्दों का सही और सार्थक चयन उपन्यास को प्रामाणिक बनाने में एक मदद है। कई पंक्तियाँ आपको रोक लेंगी, थोड़ी देर के लिए या तो चिंतन मनन करवाएँगी या आप मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाएँगे। जैसे एक जगह लिखा है `निद्रा में स्त्रियाँ देवी की भाँति लगती हैं और देवियाँ स्त्रियों की तरह’ यह पंक्ति कोई पुरुष रचनाकार के बजाय स्त्री रचनाकार रच रही है जो दर्शाता है कि लिखते समय किरदार में बदल जाता है रचनाकार और लिख बैठता है – `प्रेम संकेतों में आता है और शूल बनकर धँस जाता है’।

अम्बपाली के जीते जी बुद्ध का वैशाली से महाप्राण से महानिर्वाण की ओर जाना और लिच्छ्वियों के पास भी भस्मावशेष का बचा होना, अम्बे का प्रण वैशाली में स्मृति स्तूप के निर्माण का आह्वान इत्यादि बहुत ही रोचक जानकारियों से लैस है यह उपन्यास। इसका अंतिम भाग अनुभवी तरीक़े से लिखा गया है जैसे होना चाहिए जहाँ उपन्यास अपना प्रस्थान बिंदु अंकित करता है …

बस एक सलाह : पृष्ठ संख्या 240 पर अगुत्तर निकाय पृष्ठ 54 का जिस तरह संदर्भ दिया गया है उसी तरह अगर और भी संदर्भों का ज़िक्र होता तो एक किताब दूसरी किताब की राह बेहतर दिखा पाती। गीता श्री को एक रोचक ज्ञानवर्धक पठनीय उत्तरगाथा रचने के लिए बधाई ।