नरेश सक्सेना के कविता संग्रह ‘एक अनाम पत्ती का स्मारक’ पर यतीश कुमार

On 26 September 2025 by नरेश सक्सेना

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इस किताब पर कुछ भी टिप्पणी करने से पहले एक बात यहाँ दर्ज करना चाहूँगा वो है संयम बरतने की कला, धैर्य की चारदीवारी के भीतर रहना और बेचैनी पर नकेल कसना। नरेश सक्सेना का तीनों संग्रह का ग्यारह-बारह साल के अंतराल पर आना एक उदाहरण है हम जैसे नवांकुर के लिए जो छपने की बेचैनी लिए घूमते रहते हैं ।

कवि यात्रा में संचित अनुभव को कविता में ढालने की बात करता है। नदी के स्रोत में नहीं, नदी को यात्रा में मिलते हैं शंख, सीपी, मूँगा इत्यादि। मनुष्य की ऐसी यात्रा और उसमें अर्जित अनुभव से सींची गई कविता की निर्मिति की कथा कवि कह रहा है। 70 साल और तीन किताबें यह बतलाते हैं कि जुनून, साहस और संकल्प के साथ सबसे ज़्यादा जरूरी है धैर्य!

नरेश सक्सेना लय, नाद और ताल पर जोर देते हुए पार्श्व में घटित प्रकृति के संगीत के साथ-साथ सेना के मार्च में लय की महत्ता का उदाहरण देते हैं। सूचना और संदेशों के विस्फोट के इस जटिल समय में संवेदना का मरहम समय की जरूरत है जो सिर्फ कविता ही कर सकती है।

कवि इस बात पर पूरी तरह यकीन करता है कि कविता ऐसी कला है जो पूरा जीवन माँगती है। इसे मेरी समझ से दोहराऊँ तो कहूँगा “कविता पूरा समर्पण माँगती है।” कवि का यह मानना है कि कविता में ‘देखना’ विन्यस्त है। देखने का अर्थ यहाँ अंतस् और बाह्य दोनों से है। ‘दरवाज़ा’ कविता का पाठ सुनने पर कम शब्दों में बड़ी कविता की गूँज पढ़ते समय साफ़-साफ़ सुनाई देती है।

अपनी अस्मिता की तलाश में पंक्तियाँ सन्नाटा बुन रही हैं। सन्नाटे की गूँज लकड़ी की कराह बनकर सुनाई पड़ रही है। अब सोचता हूँ लकड़ी के रूपक में कितने रूप हो सकते हैं जिनके माथे पर कितनी ही कीलें ठुकी हुई हैं और जो अपने स्वरूप को पाने की छटपटाहट के साथ बिंधे पड़े हैं।

नरेश सक्सेना की कविता में पानी का दर्द कई बार अपनी उछाल भरता दिखता है । ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ हो या ‘पानी के बारे में’ या फिर ‘मछलियों को लगता था’ या ‘मछलियों की मंडी में’ या फिर कविता ‘मछलियाँ’। कविताएँ मछलियों के गलफड़ों के गीत से, पानी की बात कहती हैं। यह लिखना कि पानी मछलियों का देश है / लेकिन मछलियाँ / अपने देश के बारे में कुछ नहीं जानतीं…

सोचता हूँ, यह मामला क्या केवल मछलियों तक सीमित है, या इन पंक्तियों का कोई व्यापक अर्थ है, जो पानी को देश में और मछलियों को नागरिक में बदलने में सक्षम है। कवि प्रकृति के विरुद्ध की गई हर हरकत से चिंतित हैं। ‘गिरना’ कविता को हिलने में बदलते देखता हूँ और न हिलते हुए गिरते मनुष्य को भी। देखो, कविता ‘मनुष्यों के दिल’ अपनी बात बिना हिले कह रही है।

कृष्णनाथ की बात याद आती है जो आपको दृष्टा बने रहने की बात करते हैं। नरेश सक्सेना भी उसी दृष्टि और दृष्टा की बात कविता ‘फिर देखना’ में करते हैं, एक सधी हुई चेतावनी के साथ कि जो चाहो देखना नरेश/ किसी छाया को/ छूकर मत देखना।

कवि का काम है उम्मीद जगाना। घने अंधेरे में रोशनी की किरण बनती पंक्तियों का सृजन कई सालों के गंभीर आत्मचिंतन का प्रतिबिंब है। कूड़े के ढेर पर पड़ा मछली का दिल इतने अतिक्रमण के बाद भी धड़क रहा है यह अपने आप में आशा और करुणा की लौ ही तो है, जिसे पढ़ते हुए आप बुद्ध की दिशा में दो कदम आगे बढ़ रहे हैं। सबका भला हो वाला भाव आपके चेहरे की रोशनी को तज रहा है ।

‘घड़ियाँ’ कविता समय के मर्तबान से रेत को टघरते देखने का दृश्य रच रही है। समय और घड़ी का अन्योन्याश्रय संबंध और उस संबंध की विडंबना को रचते हुए कवि ने यह भी लिख दिया है कि बेकार लोगों की घड़ियों में होता है/ बेकार का वक्त। कवि कविता में दर्शन रच रहा है और दर्शन में कविता। ऐसा करते हुए देखने की समझ को समझने की बात कर रहा है। फूल स्मृति में रहना चाहते हैं और काँटे तुम्हारे शरीर में। इस पंक्ति की सार्थकता जीवन की समझ में निहित है। समझ मतलब ग़लत और सही का अंतर स्थापित करना, ताकि बचा सको अपना दामन काँटेनुमा किरदारों से जो आपके इर्द-गिर्द नुकीले दाँतें छिपाए घूमते हैं।

‘हम-तुम’ कविता पढ़ते हुए लगा अपनी बात हो रही है। अपने आस-पास की। सोच, दृष्टि और समझ में समरूपता पाना सच में सुखद लगा। लगा जैसे ऐसा कुछ लिखकर कहीं छिपा दिया था और कवि ने मन को एकदम पढ़ लिया। नरेश सक्सेना कई बार विज्ञान के बीज कविता की ज़मीन पर बोते हैं, जो कभी लता तो कभी विशाल वृक्ष बनकर अर्थ का फल लटकाए प्रतीत होती है ।

आर्यभट्ट का सिद्धांत सूर्य के बदले पृथ्वी के घूर्णन पर अपनी बात रखता है तो कभी गैलीलियो के सिद्धांत को सच के आईने के सामने रखता है कवि। इन सिद्धांतों का उत्तर किसी प्रमेय सूत्रों में नहीं कविता की ऐंठी पंक्तियों के भीतर क़ैद है जिसे खोलने का सरल सूत्र लिखते हुए कवि पंक्तियों को ऐसे चुपके से रख रहा है जैसे फूल रखते हैं। जैसे चाबी रखी जाती है बंद दिमाग़ के तालों के सामने।

कवि की सजग दृष्टि आपकी आँखें खोलने को बेताब है। वो जो सामने है और नहीं दिख रहा, वो जो एक हाथ की दूरी पर है पर हाथ नहीं आ रहा उसे आँखों और हाथों में सौंपते हुए कवि लिखता है “शहद के साथ, टूटा हुआ छत्ता भी था।” ऐसी पंक्तियाँ दिल चीर देती हैं। सोचता हूँ, मुझ-सा पाठक इस दर्द को पहले क्यों महसूस नहीं किया था।

भालू और इंसान में कौन बेहतर है इसे मधुमक्खियों को तय करने दो। समाज में भी ऐसा है जहाँ मधुमक्खी के बदले आम लोग हैं, जिन्हें तय करना है भालू और मुखौटे के बीच का अंतर।

“इतिहास में शब्द कम होते हैं हत्याएँ ज़्यादा” इस पंक्ति के बाद कविता में डिकोड करने को कुछ नहीं बचता। एक पंक्ति अपनी सारी बात कह देती है। कवि बस कविता में उसके अर्थ की गूँज के लिए बिंबों की चमक को टॉर्च की बत्ती की तरह बार-बार जलाता रहता है। कवि का यही काम भी तो है। एक बार में बात भला समझ में किसे आती है। सच और झूठ दोनों को दिमाग़ में बैठाने के लिए दोहराना अब हमारे आकाओं की आदत बन चुकी है। पूछने और नहीं पूछने के बीच समय कितनी बार कब पलट जाता है कि इसके मायने बदल जाते हैं। इसे यूँ महसूस करते हुए मैं कविता पढ़ता हूँ- ‘मत पूछना’।

काले तारे की रोशनी की प्यास रचते हुए एक तारा बन जाने की आस का बीज किसी बच्चे के मन की ज़मीन में बोना असल कविता है। नरेश सक्सेना यह काम बार-बार दोहराते हैं। वह भी इस कदर कि कोई एक तीर तो एक दिन निशाने पर लग जाएगा। ऐसी आशा, जिजीविषा की ज़मीन तैयार करती है। कविता शिशु को पंख और उड़ने का ज्ञान देती है। उड़ना और उड़ते हुए भी अपने पैर ज़मीन पर टिकाए रखना भी एक जरूरी कला है जो इन कविताओं का सार बनकर बार-बार तारे की तरह चमकता है और फिर उस काले तारे को भी प्रकाशित कर देता है जो सूर्य और धरती के घूर्णन का भेद एक दिन दुनिया के सामने जगजाहिर करता है।

सेब हो या आदमी- अपनी अस्मिता की लड़ाई में सब कूद पड़े हैं। भीड़, अपनी बदलती शक्ल की तरह इनके कूदने के मायने बदल रहे हैं। इस भीड़ में बस भोला सा चेहरा है जिसने अपनी आँखों को बंद कर रखा है। बंद करना कभी-कभी ख़ुद को बचाना भी होता है, चाहे लोग कितना भी पूछ लें “कहीं ये सेब तुर्किए के तो नहीं?”

कल्पना, यथार्थ और प्रेम का संतुलन कोई साधक ही साध सकता है। ‘सुनो चारुशीला’ का तेरह साल पुराना टेर आज भी ज़िंदा है और प्रेम के गीत गा रहा है। उस टेर में एक बूँद को समुद्र बना देने का जादू है। उस समुद्र की लहर उछाल भरते हुए कहती है- “सुनो चारुशीला, प्रेम में ऐसा होना कोई जादू नहीं बल्कि प्रेम का असल यथार्थ है, यथार्थ है शक्ति का स्मरण और शव का शिव होना।”

उम्मीद जगाती कविताओं के बीच डिबरी बनी कविता अपनी लौ में फड़फड़ाहट महसूस करती है, जब उम्मीद की लौ ‘उम्मीद’ कविता से टकराती है। यहां छनकर आता है- “अपनी हवा, पानी, मिट्टी, और आकाश सब कुछ नष्ट कर चुकने के बाद हमारे बचे रहने की कितनी उम्मीद है डॉक्टर?”। इसी के साथ एक पंक्ति चीत्कार करती हुई बौराती है -“भारत माता! अपनी खैर मना…”

पेड़ को बचाते हुए एक पेड़ बन जाने की इच्छा नरेश सक्सेना की कविताओं की आत्मा है। ख़ुद को ख़त्म करके भी प्रकृति को बचाने का आह्वान किसी मुर्दे में प्राण फूंकने के बराबर की बात है। इन कविताओं में पेड़, पक्षी, पानी, मछली, पहाड़ या यूँ कहें पूरी प्रकृति के बारे में सजग गहरी चिंता है और ऐसी कविताएँ इन्हीं गहन चिंतन-मनन की उपज हैं।

‘पुल पार करने से/पुल पार होता है/नदी पार नहीं होती’ की ध्वनि ‘मरना तो है ही एक दिन’ गीत की ध्वनि में सुनाई पड़ती है जहाँ लिखा है- भेद नदी का पाना हो तो पुल पर पांव न धरना/ कसना कमर और धीरज धर/ धारा बीच उतरना। यहाँ गीत में कई संकेत निहित हैं। आगे आप पढ़ते हैं “बिन डूबे कैसे जानोगे, क्या है पार उतरना”, तब गीत की शक्ति का एहसास होता है। इस गीत में मौत की नदी को बिना डरे हुए पार करने की ललकार है जो आपको पढ़ते-पढ़ते आंदोलित कर देगी।

“मनुष्यों और पेड़ों में बस एक फर्क होता है

पेड़ अपनी जड़ों से कटकर

ज़िंदा नहीं रह सकते

मनुष्य रह सकते हैं”

कुछ पंक्तियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं होती। ये सीधे दिल में दाखिल होती हैं और दिमाग़ की नसों में फ़ैल जाती हैं। दिल के भीतर पैठ कर गई बातों को दिमाग़ भी नहीं भूलता!

क़िताब पेड़ की याद है, यह याद आया जब पढ़ा “ कविता नहीं है ये पंक्तियाँ/ एक अनाम पत्ती का स्मारक हैं।” कितनी बड़ी बात कह गई यह कविता। इसे पढ़ने के बाद जब भी किसी पत्ती को देखोगे, असंख्य पत्तियों की धड़कन सुनाई देगी। बाँसों का रोना सुनने के लिए बाँसुरी की आत्मा में उतरना होगा। कीड़ों के ऐसे हस्तक्षेप को यूँ शब्द देना ही दरअसल असली मायने में कविताई है।

कई बार लगा नरेश सक्सेना को एक पंक्ति की कविता लिखनी चाहिए। ज्यादातर कविताओं में एक ऐसी पंक्ति अवश्य आती है जो सर्वाधिक मर्म समेटे है। फिर क्यों नहीं एक पंक्ति की कविता की शृंखला बनाई जाए। उदाहरण के लिए कुछ ऐसी पंक्तियाँ देखिए-

“ पत्तियाँ अनाम पत्ती का स्मारक हैं”

“ इतना हरा वृक्ष कि छाया भी हरी हो जाती है”

“ चट्टानें चट्टानों को नहीं बनातीं”

“ हमारे बचे रहने की कितनी उम्मीद है डॉक्टर”

“ झड़ती हुई पत्तियों से उगती हुई कोपलों की संख्या कहीं ज़्यादा होती है”

“ पत्थर बोने से पहाड़ नहीं उगते”

कई कविताओं में चारुशीला का नाम बिना लिखे भी शामिल है। प्रेम का विछोह अपनी वेदना की टेर गा रही है। ‘छूट गए व्रत, टूट गई क़समें’ हो या आँगन के पीपल की बहसें।

कवि विचार और संवेदना को एक साथ परोसता है। अदीठ को दृष्टि के सामने लेकर आता है। संप्रेषण की धार बनाता है। कवि प्रश्न भी रखता है और समाधान भी। गढ़ता है अँधेरा उजाले के मायने समझाने के लिए। प्रेम के मायने समझाने के लिए विरह के गीत पिरोता है। स्मृतियाँ कुलबुलाती हैं सन्नाटे को,  शब्द देता है कवि। अंततः कवि समाज का प्रतिबिंब रचता है जिसमें समय की धौकनी की आवाज शामिल होती है।