बहुचर्चित लेखक देवेश की नई किताब ‘मेट्रोनामा हैशटैग वाले क़िस्से’ की यतीश कुमार द्वारा समीक्षा

On 06 May 2024 by यतीश कुमार

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पहली नज़र में ही यह आईडिया बहुत पसंद आया कि मेट्रो में यात्रा करते हुए एक सजग द्रष्टा बने रहो, तो कहानी के कई द्वार इंतज़ार करते दिखेंगे। चूँकि मैने देवेश के हैश टैग वाले क़िस्से एफबी पर पहले नहीं पढ़े हैं, अतः कोई पूर्वाग्रह के साथ नहीं पढ़ रहा था। पढ़ते हुए लगा, ये क़िस्से नहीं बल्कि फूँक का मलहम हैं, बारिश की फुहार हैं, हौले-हौले चलती बयार हैं, नोक-झोंक की बौछार हैं। कृष्णनाथ कहते हैं, पहले द्रष्टा बनो लिखने की दृष्टि तब ही मिलेगी। दोनों काम एक साथ नहीं। यहाँ देवेश के लिखे वन पेजर कहानियों को पढ़ते हुए यही लग रहा है कि कितनी महीन दृष्टि पायी है देवेश ने। इतनी बारीक बातें तो वही कर सकता है, जो इन परिदृश्यों में अपनी सचेत दृष्टि के साथ कान भी खुला रखता हो।

इन कहानियों के सहारे स्मित अपना विस्तार ढूँढ़ता है। क़िस्सों में मन को छूने वाले दृश्य हैं। एक जगह दो आँखों की ख़ुशी का, पाँच आँखों में फैलने का चित्रण कितना मनभावक है! फलतः फिर से इस बात पर यक़ीन हो उठता है कि मौन की नदी में, प्रेम ज़्यादा तेज़ी से तैरता है।

इन नयी कहानियों में सिर्फ़ फ़ुहार नहीं, थोड़ा मसाला-तड़का भी है। देवेश की लेखनी में हास्य और चुटकीलेपन की मात्रा पूरे संतुलन के साथ, अविकल है। परिहास और हास्य के बीच के अंतर पर नियंत्रण बरकरार रखा है, मसाले का छौंक भी उचित मात्रा में ताकि मर्म भ्रमित न हो और संवेदनाएँ पूरी तरह संप्रेषित हो सकें।

कुछ परिदृश्य रहे-रहे दिल को छू जाते हैं, जिनमें एक अंकल जी का, भरे मेट्रो में, अपनी रुमाल से आंटी जी का सैंडल साफ़ करना है, वो भी एक लड़के को एक लड़की के चेहरे को साफ करते हुए देखने के बाद। चाँदनी चौक के बाहर की घटना, जहाँ एक बेटी अपने पिता से दुलार भर मिन्नत करती है। उसकी शादी के सिर्फ दो दिन ही बचे हैं और वो कहती है, मुझे वो सारी जगहें घुमा दो पापा जहाँ बचपन में घुमाते थे। एक कहानी में गोदना का नाम साथ रह जाने के संदर्भ में मार्मिक ज़िक्र है। एक कहानी में भुट्टे वाले और स्त्री के बीच के संवाद में भूख के ऐसे रूप उभर कर सामने आते हैं, जो पाठक के अंतर्मन को झकझोर कर रख देंगे। एक कहानी में एक लड़की किसी और के कंधे पर सिर रखकर सो जाती है और इस रूमानियत में स्टेशन निकल जाता है। एक क़िस्सा रिक्शा चलाने वाली माँ और उसके बच्चे का है जो आपको भीतर तक भिगो देगा। रोचक क़िस्सों का रेला ऐसा है कि ख़त्म ही नहीं होता। यात्रा के एक ही रूट में क़िस्सों में इतनी विविधता रोचकता के साथ रखना इतना आसान भी नहीं है। देवेश ने इसे बखूबी निभाया है। इन विविधताओं के बीच, जो भी अंश थर्ड जेंडर से जुड़ा है, वो भावुक कर जाता है।

एक और ख़ास बात कि यह सिर्फ़ मेट्रो के भीतर का यात्रा वृतांत नहीं, बल्कि स्टेशन के बाहर और प्लेटफार्म के इर्द-गिर्द ज़िंदगी में घुली कड़वाहट को कम करती प्रेम कहानियाँ भी हैं, जहाँ स्नेहसिक्त अबोली बातों का हलफ़नामा भी है। इन नयी कहानियों की एक और ख़ास बात है, यहाँ ध्वनि नकारात्मकता लिए नहीं है और अंत सुखद होने के साथ कुछ न कुछ सुंदर संदेश लिए है। एक दो पन्नों में यूँ सब बातों को समेटने की कला देवेश को एक अलग पहचान देती है। उनको परसाई की राह पकड़ लेनी चाहिए। उनकी लेखनी में परसाई की एक हल्की सी छवि दिखती है। विट, हास्य, व्यंग्य, कटाक्ष ये सब एक ही दिशा के राही हैं और देवेश में उस विस्तार की संभावना देखी जा सकती है।

इस पूरी किताब का मूल स्वर है प्रेम। इस प्रेम में ग़ुरूर है। स्वावलंबी, स्वाभिमानी, ख़ुद पर भरोसा रखने वाली नायिकाएँ हैं और यह आज का समय है।

कुछ कहानियों में दोहराव है पर खलता नहीं, ख़ासकर गुटखा और ब्रश नहीं करने वाले हिस्सों में। होली केंद्रित कहानी का दोहराव भी अपनी विविधता के साथ है। इन क़िस्सों से गुजरते हुए कोरोना के दिन बार-बार याद आ जाते हैं। उन दिनों की ढेर सारी बातों का ज़िक्र है और उससे जुड़ी यादों से उगती कहानियाँ आपको एक बारगी मुसीबत से उबरने का सबक़ याद दिला देंगी।

कुल मिलाकर एक अलग कलेवर की किताब जो आपको गुदगुदाते-भिगोते रखती है। ऐसी किताबों में प्रयोग की संभावना बनी रहती है और देवेश इसी के साथ अपनी आशा का बार ख़ुद ऊँचा करते चले जाते हैं जिसके लिए वे विशेष बधाई के पात्र हैं। सफ़र में साथ रखने वाली किताब लिखने के लिये देवेश का शुक्रिया।