एक मात्र `भात’ शब्द से दर्शन संसार भर का एक ही कविता में समेटना एक विलक्षण कृत है इस पहली कविता से आप एक नये घर में प्रवेश करते हैं जिस घर का दरवाज़ा खुले आकाश में खुलता है जहाँ से आपको धरती पर बीतती घटनाओं का एक कैनवास मिलता है । जोशना उस कैनवास में कविता के रंग भरती हैं और सृजन में उभरता है उनका दूसरा काव्य संग्रह `अंबुधि में पसरा आकाश’ ।
कविता कब पूजा अर्चना में बदल जाती है पता नहीं चलता । उदाहरण के लिए कविता `रतिकान्त रुष्ट हैं हमसे’ पढ़िए मेरी बात आप समझ जाएँगे।अगली कविता में इस आराध्य को बृहस्पत के गुणगान करते पाएँगे और नीलांबर को पीतांबर में बदलते देखेंगे । हल्द में पका रंगा प्रेम आपके ज़ख्मों में सीवन भर देगा ।प्रेम का लेप है यहाँ कविताएँ जिसे इसी के राग में पकाया और गाया जा रहा है । बाउल का वैराग्य मिलेगा यहाँ जिस वैराग्यता में संगीत निहित है ।
एक वैरागनी जैसे मीरा बन जाये और रचे कविता तो वह कविता ` जाने कहाँ है मेरा कुटुम्ब’ बन जाएगी । जैसे खोयी आँखों में बिछड़े प्रेम को ढूँढ़ने निकली है कवियित्री और उस वियोग का योग ब्रह्माण्ड भर के प्रेम के बराबर हो ।
कवि की दृष्टि से दुनिया देखने का सुख अलहदा है । कवि आँखों की पुतलियों की संरचना को मछली के जालों में बदल देती है आकाश से शब्दों की बारिश कर देती है और रंगों की छींट से ऋतुओं की पोशाक में रंग भर देती है। उसे प्रसन्न मानुस का वैराग्य दिखता है चित्रों में देखती है चित्रकार की आँखें और देखती है कलाकार में एक पूरी खाई । कवि कल्पना को अपने रंग देती है और उस रंग में पाठक सराबोर हो रहे होते हैं ।
जोशना की रचनाएँ संदर्भों की ख़ान हैं। अनिल अनलहातू की कविताएँ याद आ रही थीं हालाँकि दोनों का शिल्प बिलकुल भिन्न है पर नाना प्रकार के संदर्भ चाहे देश से हो या विश्व साहित्य से या कि आदि पुराण से। कविताओं की पढ़ते हुए एक बात साफ़ है कि इनकी छाया में किरदार आपको चलते हमेशा मिलेंगे।
कुछ कविताओं में जैसे बचपन का प्यार अपनी तोतली भाषा में अपनी बात अपना प्रेम सामने रख रहा है जिसकी पवित्रता कभी राख़ नहीं बनने पायेगी जब वो लिखती हैं ` आमी तोमाके भालो बाशी’ के बदले में एक बच्चा ` आमी तोमाके भालो दिवाली ‘ बोलकर भाग निकले।
कुछ कविताएँ ऐसी हैं जहां शीर्षक केंद्र में इस तरह है जैसे हर पंक्ति एक नया दृश्य रचे और लौटकर केंद्र की ओर मुड जाए। ऐसा जब हम किसी फूल का चित्रण रेखांकित करते हैं तब भी होता है सारी पंखुड़ियाँ अंत में केंद्र की ओर मुखर होती हैं और अंत में एक डंठल आपके हाथ में रह जाता है फूल के साथ।` निचला ओंठ अधिक चंचल है ‘ को ही ले लीजिए। सारी बातें घूम फिर कर ओंठ पर आ ठहरती हैं।
देशज शब्दों के साथ- साथ पौराणिक शब्दों का प्रयोग सुंदर और अचंभित करेगा आपको।
प्रेम कविता में सकारात्मक पक्ष के साथ नेपथ्य में कहीं कहीं विरोधाभास चलता है और वह एक कला की तरह आता है एक प्रयोग की तरह । एक जगह लिखा गया है ` देव होंगे परन्तु आशीर्वाद न होगा/ अग्नि होगी परन्तु कोई फेरा न होगा/ हमें भिजाये बिना ही मेघ रहेंगे हमारे बीच’ । अब देखिए यह पंक्तियाँ दरअसल सकुचाहट को बयान कर रही हैं पर नेपथ्य में कोईकिसी और को याद कर रहा है । कभी लगता है दृश्य नहीं स्थिति बयान कर रही हैं कविताएँ और कभी दृश्य पर दृश्य। ` ढाँप दो निशानाथ को’ पढ़ते समय भी यही लगा जब अंत में लिखती हैं कि पृथ्वी पूरी तरह पहले जैसी हो जाए और भाषा भी तब लगा जैसे चलचित्र अपनी अंतिम दृश्य पर आकार स्थिर हो गया है ।
कविताओं में संस्मरण है कि कहानियाँ यह एक विस्मयी विषय हो सकता है पर ये सच है कि इन कविताओं में कभी बारी बारी से तो कभी समानांतर दोनों चलते हैं डेग दर देग । अब उदाहरण के लिए ` धितांग’ कविता ही ले लीजिए, लिखा है मेरे जीवन का पहला धितांग था/ मैं हरिप्रिया न बन सकी। या फिर बिरला तारामंडल में अपने बाबा को न देख पाना।
जोशना की कविताएँ प्रेम में बहते आँसू का चित्रण हैं या फिर यूँ कहा जाये कि बहे आँसू के धार की बची छाप की कहानी या फिर गूँगी रुलाई का अंतर्नाद या फिर बिना आँसू के रुदन का कोरस। एक के बाद एक कविताएँ प्रेम और विछोह के बीच पेंडुलम सी कभी इस ओर मिलेंगी तो कभी उस छोर जहाँ लिखा मिलेगा ` आहत होने में असमर्थ रहकर राख हो जाऊँ/ दूर गाँव की कोई औरत मुझे बासन पर घिस दे’ ।
गोया एक विचार की तरह आती हैं कविताएँ, एक हवा की तरह हर बार की लहर में एक अलग ख़ुशबू अपनी पुरानी पहचान लिए मिलेगी। `अर्ध’कविता हो या `हवा’ या कि `तरूण्य’ एक मुड़े पन्ने की अकड़ लिए कविताएँ ख़ुद को याद देने की पुकार लिए मिलेंगी।
कविताओं की आँखें कई बार पहले दृश्य देखती- गढ़ती हैं सब का समाचार सुनाते हुए अंत में अपनी व्यथा पर अपूर्ण खड़ी हैं जिसे पाठक को पूरा करना है ।वे कविताएँ विषय की पुड़िया आपके हाथों में सौप कर कहती हैं इसको अकेले में खोलना किसी में भस्म तो किसी में जादू मिलेगा। माथे पर लगाकर मलंग हो जाना।चाहे ` रवीन्द्र कानन में घूमते हुए’ हो या ` किस आँखों में है आलय मेरा’ हो या उसके मन की छोटी- छोटी `अनुकांक्षा’ जिसे अबिन्द्रनाथ का इंतज़ार है कि वे आकर बदलेंगे उसके माथे की पट्टियाँ।
जोशना को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे वो साधना से सपनों के बीच टहलती कवि हैं। दर्शन उनकी सहेली हैं कविता के एकांत में उनसे मिलने आती हैं । उसी भटकन और तन्मयता के बीच उनकी कल्पना शक्ति जागृत होती हैं और कविताएँ जन्मती हैं जिनमें इन सभी का अंश समाहित है। अनगिनत प्राचीन संदर्भों से यह ज्ञात होता है कि जोशना कितना ज़्यादा पढ़ती होंगी ।समय को साधती हुई आगे बढ़ती कविताओं में समय के ही फूल मिलेंगे , युगों के बदलते मौसम का अनुभव सार मिलेगा।
इन कविताओं का अपना गठन है जिसका शिल्प जोशना के ही बस में है।
`मैं काग़ज़ पर सशरीर गिर पड़ी हूँ’ में जब पढ़ता हूँ जहाँ थी कविताएँ/ अब एक बुलाहट है/ नमक छोड़ गयी हैं कविताएँ/ जिनमें खारे का छींट है/ यहाँ हाथ रखोगे तो/ एक मीन की तरह बिछल उठेगा दुःख/ इस मीन को शांत रहने दो/ इस नमक में इश्क़ है’। इस कविता को इस काव्य संग्रह का भाव सार समझते हुए मैं यहीं रुका रहा और कविता अपने भाव से कहीं ज़्यादा बात करती रही और सच है कि नमक और इश्क़ दोनों को बारहा चखने का आनंद इस संग्रह का हासिल है । जोशना को उसका हासिल मुबारक !
कविताएँ स्त्री मन से गठित हैं और प्रेम में भी स्त्री दृष्टि का पक्ष प्रत्यक्ष अनुभूत ज़्यादा हो रहा है । एक कवि का समान दृष्टांत अनुभव बयान करने से दर्शन की विविधता ज़्यादा प्रेषित होती है।बेहतर यह भी होता कि उन सदर्भों की टिप्पणी साथ साथ नीचे फुटनोट में चलती तो हम जैसे सामान्य पाठक कविताओं का रस ज़्यादा ले पाते। कविताओं की संख्या में थोड़ी कटौती संग्रह को और पठनीय बनाने में मददगार होती।
अंततः जोशना को उसका हासिल मुबारक यह दुःख रचने का सुख मुबारक । सृजन का अनुभव रस और यात्रा मुबारक।