आशुतोष राणा के व्यंग्य-संग्रह ‘मौन मुस्कान की मार’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 22 October 2024 by आशुतोष राणा

blogbanner

कई बड़े कलाकारों के साक्षात्कार में सुना है कि अभिनय शैली में सबसे मुश्किल है हँसाना, उसी तरह लेखन विधा में सबसे मुश्किल है हास्य का परिष्कृत प्रकार यानी व्यंग्य लिखना। कविताओं के भी अंतर्वस्तु में कटाक्ष छुपा होता है जिसका स्वर बहुत धीमा पर तीक्ष्ण होता है किंतु गद्य में इस धार को बनाए रखना एक मुश्किल प्रयास माना जाता है। आशुतोष के पास यह कला नैसर्गिक हुनर बनकर भरा हुआ है जिसे उन्होंने अपनी ही शैली में आबद्ध किया है ।

अगर लेखक राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक तीनों चेतना को जागृत किए बैठा है तभी आर. के. लक्ष्मण वाली व्यंग्यात्मक धार अपनी लेखनी में पैदा कर सकता है। उनकी लेखनी एक चुहल पैदा करती है जो पढ़ते-पढ़ते मारक में बदल जाती है।

उपहास, मज़ाक या लुत्फ के क्रम में आलोचना का प्रभाव लाना व्यंग्य विधा की विशेषता रही है। महान इतालवी दार्शनिक, कवि दांते की लैटिन में लिखी किताब ‘डिवाइन कॉमेडी’, जिसमें तत्कालीन व्यवस्था का भरपूर मजाक उड़ाया गया है उसे यूरोपीय मध्यकालीन व्यंग्य का महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है। हिंदी साहित्य में भी हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल जैसे व्यंगकार हुए जिन्होंने व्यंग को सर्वश्रुत प्रसिद्धि देने के साथ-साथ हास्य से अधिक ऊपर उठाकर अपने समय का इतिहास बना दिया।

आज आशुतोष की किताब ‘मौन मुस्कान की मार’ को हाथ में लेते समय मन में यह किंचित मात्र भी नहीं था कि मैं एक विशुद्ध व्यंग्य कीधारा में डूबने के लिए निकल रहा हूँ। इस संग्रह में छोटी-छोटी घटनाओं के ज़िक्र में भी रोचकता का विशेष ख्याल रखा गया है। संस्मरण की शैली में व्यंग्य का तड़का लगाया गया है और अंत में एक चम्मच अतिरिक्त दर्शन की ख़ुशबू महक उठती है । पहले ही क़िस्से में आशुतोष संकल्प से ज़्यादा विकल्प की महत्ता की स्वीकृति की बात करते हैं और लिखते हैं- अब स्क्रीम नहीं स्क्रीन का महत्व है। कितना व्यंग्यात्मक कटाक्ष है। लोगों के पास समय नहीं है और सारा समय मोबाइल के कब्जे में है। यहाँ आशुतोष लिखते हैं- गोविंद नहीं गूगल है, जो पूछो मिलेगा।

हर अध्याय में व्यंग्य चित्र (कार्टून कला रेखाचित्रों) का प्रयोग इसे और अलग बनाता है जो क़िस्सों के सार की तरह चित्रित किया गया है। एक-एक व्यंग चित्र को बहुत सोच समझ कर सही जगह पर लगाया गया है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा हिस्से की बात कह सके।

कुछ क़िस्सों में प्रतीकों से संवाद का माध्यम चुना गया है। एक पुराना टूटा- फूटा महल हो या गंधी वृक्ष, हर प्रतीक अपने स्वरूप से ज़्यादा बातें करता है । एक गरीब गाँव के बड़े समृद्ध भाई से दर्शन-ज्ञान की बातें करते हुए कहता है हम सामान्य जन बदलाव नहीं बर्दाश्तको भाग्य समझते हैं। हमें नाम से नहीं काम से मतलब है।

सोशल मीडिया की महिमा गान पर जो व्यंग्य लिखा गया है वह दरअसल वर्तमान वास्तविकता का चित्रण है जहाँ बैठे-बैठे लोग दुनिया की क्रांति में हिस्सा ले लेते हैं। जिस भ्रमजाल में ज्यादातर लोग एक-दूसरे से कट कर जीने के आदी हो गए हैं, आशुतोष ने उस भ्रम की असली मनोवैज्ञानिक वजह पर प्रहार किया है। बातों-बातों में वे सच्चे और अच्छे इंसानों के मर्म को छूते चले जाते हैं। वो लिखते हैं, देश को बदलने वालों से ज़्यादा बनाने वाले भी चाहिए। किरदार चाहे भक्क महाराज हो, डी.वी हो, भुन्नू महाराज, भग्गू या फिर `डॉक्टर लाठी’, सबने अपने तरीके से हँस कर गहन जीवन-दर्शनकी बात कही है। मानो मीठी गोली में कड़वी दवाई हो।

लोग हीरा को शक की दृष्टि से देखते है और पत्थर को विश्वास से, मैंने पत्थर नहीं, उनके विश्वास को बेचा है और वो भी अंग्रेजी में ! दर्शन की बातों में ऐसा पाचक जैसा स्वाद कहाँ मिलेगा। बचपन में एक काला पाउडर वाला पाचक खाते थे जिससे जीभ पूरी काली हो जाती थीं। उसे तेजाब वाला पाचक कहा जाता था। किताब की कई बातें वैसी हैं जो बाहर से कुछ और बाद में कुछ और बनकर खुलती हैं। यहाँ चटकारे को चखने वाली अभिव्यक्ति है, जहाँ मंद-मंद मुस्काने का अपना आनंद है ।

अंधविश्वास को विश्वास में बदलने का नाम विज्ञान है पर शर्त है कि यह अंधविश्वास भी शिद्दत से की जाए, डूब कर किया जाय। इसी संदर्भ में आशुतोष लिखते हैं- हवाई जहाज बनाने वाले को पहले इस बात का अंधविश्वास ही हुआ होगा कि मैं पूरे कुनबे को हवाई यात्रा पर ले जा सकता हूँ । इसी बात को आगे बढ़ाते हुए पात्र भग्गू भैया कहते हैं कि ‘सुख मीठी नींद में है गुरु, सो मेरे काम को तुम माँ कीलोरी मानो, क्योंकि अच्छी नींद लेने वाला बच्चा जब अपने आप जागता है तो वह आनंद और ऊर्जा से भरा होता है।‘ ऐसी अनूठी बातों से लबालब है यह संग्रह।

पढ़ते-पढ़ते `आत्माराम विज्ञानी’ शीर्षक वाली दास्तान पर रुक गया। इसका कथ्य ऐसा है मानो पहले अध्याय से पढ़ते हुए मिली लय को एक ढलान मिल गया हो। कथ्य इतना रोचक है कि लगा मैं खुद हावड़ा मेल के फर्स्ट एसी के उस कूपे में आशुतोष की जगह पर सफरकर रहा हूँ। सब कुछ मेरे साथ ही घट रहा है। हर पंक्ति आगे होने वाली घटनाओं को जानने की बेचैनी बढ़ाता जा रहा था पर मैं रुक कर पहले दो पन्नों को दोबारा पढ़ रहा था। ऐसा इसलिए ताकि पाठ्य प्रवाह की रफ्तार में तेजी कहीं कोई रोचक तथ्य छूट तो नहीं गया!

कथ्य में एक अजीब रौ है। क़िस्सा या तो आशुतोष के बचपन की स्मृति का कोई हिस्सा है या हाल-फ़िलहाल में सोशल मीडिया से जुड़ा संदर्भ। आशुतोष इस किताब में समयांतर और विषयांतर दोनों को अपनी शैली से संतुलित भाव में परोस रहे हैं।सोशल मीडिया के बारे में लिखते समय कटाक्ष और भी तीक्ष्ण हो उठता है।

मंथरा और कैकेयी का शशिकला और जया से तालमेल बिठाने का प्रसंग तो जैसे रबड़ी पर केवड़े की डोरी डालनी हुई। पढ़ते वक्त आपकी आँख विस्मय से फैलती चली जाएँगी। वर्तमान यथार्थ का उल्लेख यूँ किया है- लोग राम को मानते हैं राम की नहीं मानते, लोग गीता को मानते हैं गीता की नहीं मानते और उसी तरह पिता को मानते हैं पिता की नहीं मानते! विडंबनाओं का यह शहर दरअसल असली सहर को तरस रहा है जिसका आभास होना बाक़ी है।

दावा है कि क़िस्सा `बिस्पाद गुधौलिया’ पढ़ते हुए आप हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएंगे। मुझे तो यह क़तई विश्वास नहीं हो रहा था किआशुतोष इस रस में भी इतने माहिर हैं। हास्यरस और कटाक्ष को यूँ मिलाया गया है कि चीनी और दही एकमय हो लस्सी का स्वाद दे।इतना तरल जो अंत में ठंडक प्रदान करके आपको तृप्त कर दे। एक दिन जब भी आशुतोष से मिलूँगा तो पहला प्रश्न यही होगा कि क्यासच में कभी विश्वपाद जैसे किरदार से कोई राब्ता रहा है या यह किरदार पूर्णतः काल्पनिक है।

इस किताब में तंत्र का कच्चा चिट्ठा व्यंग्यात्मक मंत्र से खोला गया है। नोटबंदी, सोशल मीडिया या आज के बदलते माहौल में संवाद के अजीबो-गरीब शॉर्टकट के बदले कटशॉर्ट का प्रयोग इस किताब की पठनीयता में रोचकता बनाए रखता है। बल और शक्ति के अंतर को बड़ी कुशलता से समझाया गया है कि बल हमेशा दिखाई देता है और शक्ति को प्रदर्शन की ज़रूरत नहीं।वैसे तो हर अध्याय का अपना अलग स्वाद है पर गांधी के संदर्भ पर लिखा गया व्यंग्य अलग फ्लेवर का है। चश्मे के फ्रेम को प्रतीक बनाकर सुंदर प्रयोग किया गया है। रिश्वत अन्याय है उसे अन्य आय बताकर या चरखा के कई रूपों में व्यंग्यात्मक विवरण इस कटाक्ष को और भी मारक बनाता है।

एक जगह यह लिखा है कि विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली अंग्रेज़ी है पर मेरे ज्ञान में मंदारिन सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। कुछ जगह, मूलतः दो अध्याय में जहाँ क़िस्सों ने प्रवचन का रूप ले लिया वहाँ मुझे थोड़ी उबाहट महसूस हुई। ऐसा लगा दोहराव की ध्वनि सुन रहा हूँ क्योंकि, प्रवचन भी वहाँ गलबात में बदल गया। उस अध्याय में क्रांतिकारी सूत्र पढ़ते हुए व्यवधान सा महसूस हुआ, परंतु अगले ही पल मौन मुस्कान की मार वाले अध्याय, जिसमें कोई पहुँचा हुआ पुरुष किसी बालक की निःशब्दता से मात खाता है ने मेरे चेहरे पर मुस्कान वापस ला दिया। मुस्कान में कितनी शक्ति है जो मुखर, वाचाल और वाचिक प्रदूषण करने वाले को भी चुप करा देती है।

दिवंगत प्रसिद्ध व्यंग-चित्रकार परमात्मा प्रसाद श्रीवास्तव के बनाए बेहतरीन व्यंगचित्र इस किताब को और आकर्षक व पठनीय बनाता है। उनके बनाए रेखाचित्रों ने हर अध्याय में शब्दों का साथ दिया है इसलिए मेरा सुझाव है कि, आगामी संस्करण में प्रकाशक परमात्मा प्रसाद श्रीवास्तव से जुड़ी संक्षिप्त जानकारियाँ जोड़ने पर भी विचार करें। इसे पढ़ते हुए एक अच्छा बदलाव महसूस होगा। रोजमर्रा के ढर्रे से हटकर कौतुहलता बनाती इस लेखनी में बातों को सुघड़ता से रखा गया है, जिसके पीछे एक सुचिंतित लेखक है जो चिंतन-मनन के बाद दर्शन को रोचक विधा में प्रस्तुत कर रहा है। कुल मिलाकर मेरा सुझाव है कि, इस किताब को एक बार ज़रूर पढ़ा जाये !