आशुतोष राणा के उपन्यास ‘रामराज्य’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

On 22 October 2024 by आशुतोष राणा

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कुछ उत्तर प्रश्नों का विस्तार करते हैं तो कुछ निस्तार, पर यहाँ प्रश्नों की लड़ियाँ उसके प्रतिबिम्बित उत्तर के साथ खड़ी मिलेंगी। असार से सार पृथक करने का यह अथक प्रयास आशुतोष राना ने रामायण के टुकड़ों के माध्यम से यूँ रचा है कि 320 पन्नों का ‛रामराज्य’  पढ़ते हुए लगेगा सम्पूर्ण रामायण पढ़ लिया। किरदार, उसकी सोच, आचरण और व्यक्तित्व पर यूँ ख़ास जोर दिया गया है कि पढ़ते हुए लगता है  रामायण उन किरदारों की नज़र से दिखाई जा रही हो। हर किरदार के मिथक अंश पर शोध किया गया है और जन मानस के मन में बसे स्मृति अंश का यहाँ दार्शनिक और वैज्ञानिक विश्लेषण भी मिलेगा।

महर्षि वाल्मीकि की रामायण हो या तुलसीदास रचित रामचरितमानस, हम रामकथा विभिन्न रूपों में पढ़ते आ रहे हैं।  संस्कृत, प्राकृत, पालि और अन्य भाषाओं के महाकवियों के अलावा लोक परंपरा, बोलियों में भी रामकथा के अनेकानेक रूपों को दर्शाया गया है। बचपन में ही माँ, नानी-दादी की सुनाई गई कहानियों से रामायण के किरदार निकलकर मिथकीय छाप लिए मन के कोने में घर कर लेते हैं।

यहाँ आशुतोष ने रामकथा की एक अलग तरह की व्याख्या करने की सफल कोशिश की है। खलनायक के तौर पर चित्रित पात्रों के चरित्र को लेखक बहुत ही सुंदर शब्द संयोजन के साथ विस्तार देते हुए यह कहने की कोशिश करते हैं कि राम को राम बनाने में खलनायक माने जाने वाले चरित्रों ने भी अहम भूमिका निभाई। आशुतोष इसकी पूरी व्याख्या बखूबी करते हैं।

रामकथा से जुड़े मिथकों, संकेतों और सवालों को इस किताब ने बिल्कुल ही नए तरीके से उठाया है। साथ ही, जगत में कुमाता की पर्याय बन चुकी कैकेयी जैसे चरित्र को भी नए नजरिए से देखने और कई रूढ़ व क्लिष्ट विषयों को अलग तरीके से छूने की कोशिश की है। कुम्भकर्ण के व्यक्तित्व को विज्ञान से जोड़ते हुए मिथक का वैज्ञानिक विश्लेषण भी पाठक के लिए नया अनुभव होगा।

यहाँ सिर्फ सीता और राम के प्रेम के बारे में ही नहीं बल्कि मंदोदरी और रावण का भी वर्णन बखूबी मिलेगा जिससे एक और बात सीखने को मिलती है कि अविकसित ज्ञान प्रेम कहलाता है और पूर्ण विकसित प्रेम ज्ञान बन जाता है। यह उपन्यास जीवन-दर्शन की कुंजी है जिसे रचने के लिए निमित्त स्वरूप कर्ता बने आशुतोष और कैकेयी व बाकी किरदार कारक, धारण, कारण और तारण लिखते हुए संदर्भ की सुमधुरता को आशुतोष यूँ रचते हैं जैसे गद्यात्मक पद्य पढ़ रहा हूँ। इस लेखनी में कविता भाव रह-रह कर दुलकी की तरह गम्यता बरकरार रखते हुए उभरता है। हेतु और आधार, माँ और मातृत्व, ज्ञान और प्रेम सब कितने सुलझे तरीके से समझाया गया है। लेखनी ऐसी कि गांठें शब्दों से खुल रही हों। चरित्र-विश्लेषण ऐसा कि मानो किरदार प्रत्यक्ष अदाकार बन गया हो।

दृष्टि ही अखंड को खंडित करती है और इसी का संतुलन जीवन व समाज की उपलब्धि है। एक-एक पंक्ति लरजते हुए एक-दूसरे से यूँ जुड़ी हुई हैं कि भाव के प्रबल प्रवाह सा प्रतीत होता है और पढ़ते हुए हमें ऐसा लगता है जैसे हम नाव पर सवार होकर भवसागर पार करने निकले हैं। चिंता त्वरा को मंथर बना देता है। हर किरदार जैसे एक नई और बेहतर पहचान लिए मिलता है। एक जगह क्या ही सुंदर वर्णन है-

‘अश्वपति की बेटी और सात भाइयों की इकलौती लाडली, योद्धा, नर्तक व सिद्ध शरीर कैकेयी घोड़े पर सवार है और पवन दुलकी की चाल पर बह रहा है।’

यहाँ दुलकी जैसे शब्दों का यथोचित सुंदर प्रयोग सीखने का द्वार खोल देता है। राजा और राज्य का जो सुंदर विश्लेषण कैकेयी और राम संवाद के रूप में किया गया है वो आज भी उतना ही उपयुक्त है। इसी विवेचना से इस किताब के शीर्षक ‘रामराज्य’ की महत्ता समझ में आती है।

चेतना का परिष्कार और अहेतुकी प्रीति, निज से परे ले जाता है। सत, रज और तम के सुंदर संतुलन उपरांत सनद्ध मर्यादित रहना राम (ज्ञान) को उस परम-सूत्र से जोड़ता है जो विश्वामित्र की सीख से निकल सदा के लिए राम के व्यक्तित्व का हिस्सा हो गया और राम को पुरुषोत्तम राम तक ले गया। दशरथ नंदन के जन-जन नंदन बनने की इस मुश्किल यात्रा की मुकम्मल दस्तावेज़ है यह किताब।

विवाद से संवाद की ओर ले जाने को प्रेरित करती आशुतोष की लेखनी आपको इसे पूरे पाठ में बाँध कर रखती है। सभ्यता और संस्कृति का तारतम्य समझाते हुए मनुष्य के पास क्या और वो कैसा है के उदाहरण के साथ आशुतोष बहुत साधारण शब्दों में गूढ़ दर्शन का रहस्योद्घाटन करते हुए कहते हैं- ‘साधना साधनों में नहीं मिलती।’

यह किताब अनुकरणीय उपदेशों का खज़ाना है। पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि अधीन से स्वाधीन की ओर जाना आपको संस्कृति की ओर ले जाता है जहाँ, देना लेने से कहीं अधिक प्रमुखता रखता है और देने के क्रम में प्राप्य आनंद में सिक्त आदम दुःख से निवारण की राह पकड़ लेता है।

राम और कैकेयी संवाद के मार्फत लेखक नगरों और नागरिकों के विकास के अंतर को समझाते हैं जो आज भी उतना ही उपयुक्त है कि नगरों का विकास नागरिकों का विकास नहीं होता। सुविधा, दुविधा का कारण न बने और समाधान समस्या न बन जाए इतनी शिक्षा अनिवार्य है और मुझे लगता है इस संदर्भ में आज भी कहीं हम चूक गए हैं और पूरा विश्व दुविधा के कुचक्र में फंस चुका है।

स्वयं के शक्ति अर्जन से कहीं ज्यादा महत्व समाज के शक्ति सृजन का है। इस उपन्यास के हर पंक्ति में जीवन-दर्शन ज्ञान है इसलिए यह जितनी रोचक है उतने ही शांत चित्त की आकांक्षा रखती है ताकि, पढ़ते वक्त आपका मन नहीं भटके और आप ज्यादा से ज्यादा ग्रहण कर सकें।

आशुतोष ने हर किरदार में एक आश्चर्यजनक संतुलन रखने की कोशिश की है। हर किरदार के मनोभाव को बाहर आने दिया है ताकि दृश्य की व्यापकता बनी रहे और असल मर्म का रास्ता खुला रहे। पढ़ते हुए आप इस सच को जान पाएंगे कि मानसिक, वाचिक, और कायिक तीनों में एकरूपता और संतुलन अनुशासन के निमित्त को पूरा करता है। राम होना इन तीनों की एकरूपता का वरण करना ही है।

दूसरे अध्याय के शुरुआत में ही सुपर्णा और उसका मेघ प्रेम, संगीत की ओर उन्मुख अभिरुचि का विवरण इतना सुंदर है कि जिस तरह से प्रथम अध्याय पढ़ते-पढ़ते कैकेयी के बारे में जो पूर्वाग्रह पाठक के मन से मिट जाता है उसी तरह सुपर्णा के भी एक बिल्कुल नए व्यक्तित्व से परिचय होता है। आप इस सत्य से वाकिफ होंगे कि अगर बुद्धि का साथ विवेक न दे तो गुण अवगुण से, सुरक्षा भय से, दीनता हीनता से आच्छादित हो जाता है। अश्व और विचार दोनों पर दक्षता से नियंत्रण अत्यंत जरूरी है। साथ ही दक्षता और सिद्धता के अंतर को समझना भी जरूरी है। अगर राम को समझना हो तो- प्रेम और पूजा का अंतर समझना भी अत्यंत जरूरी है। किसी अन्य के हृदय में रमण करना प्रेम है और अपने भीतर रमण करना आस्था में लिप्त चिंतन-मनन। सुपर्णा और शूर्पणखा के दैहिक और बौद्धिक अंतर को समझने में यह कथ्य तो सहायक है ही, साथ ही रोचक भी कि सुपर्णा का भूत उसके भविष्य से कैसे जुड़ा हुआ है, कैसे उसके पति विद्युतजिह्व की मृत्यु उसके खुद के मनोकांक्षा के कारण हुई और जिसकी सुलगन सुपर्णा को शूर्पणखा बनाने में सहायक।

शूर्पणखा का अर्ध निद्रा में डूबे स्वप्न में पिता विश्रवा के साथ किये गए संवाद में भी जीवन-दर्शन समाहित है। लेखक ने सुपर्णा और शूर्पणखा नाम को उसके बदलते व्यक्तित्व की मानसिक स्थिति का दर्शन  कराते हुए एक अद्भुत प्रयोग  किया है। राम को समझते हुए सुपर्णा में आये बदलाव को भी उतने ही सुंदर तरीके से लिखा गया है। विश्रवा पिता होने के बावजूद अपनी बेटी को अपने पुत्र रावण के खिलाफ जाने को कहते हैं और राम-रावण युद्ध में दोनों को उकसाने का कार्यभार देते हैं। यहाँ ज्ञान को रिश्तों से बहुत ऊपर रखा गया है और समझाया गया है कि विस्मृति और चिरस्मृति के बीच सत्य मार्ग ही असली रास्ता है जहाँ से मुक्ति संभव है। ऊर्जा का प्रतिरोपण क्या है यह भी उतने ही सरल भाव से बताया गया है। देह और देहान्तर के प्रेम का अंतर समझना कहाँ आसान है। विवेक की झीनी चादर सुपर्णा और शूर्पणखा के व्यक्तित्व को पाटती हुई यहाँ दिखलाई गयी है। एक सर्व सुंदर धर्मपूरक नारी जब विवेक खोती है तो कैसे शब्दों के मायने उसके खुद के लिए बदल जाते हैं और शिव भक्तनि को राक्षसी में बदलने में पल भर का भी समय नहीं लगता।

इस बात को लिखते समय आशुतोष मानव के अपने व्यक्तित्व में होने वाले नकारात्मक बदलाव के बारे में भी चेताते हैं कि हमें स्व का विस्तार करना चाहिए, न कि स्वयं में सिमटना। स्व का विस्तार इतना कि कालांतर में संसार और हम एक दूसरे के प्रतिबिम्ब बन सकें।

विपन्नता और सम्पन्नता के कारण और अंतर दोनों को समझाते हुए राजा की नैतिक जिम्मेदारी का बार- बार उल्लेख किया गया है। शासन और अनुशासन को साधन और साधना से जोड़कर देखने को कहा  गया है। आवेग और भीतरी प्रकम्पन से रोष उपजता है जिसे विवेक की चादर शीतलता प्रदान करती है। ‘रामराज्य’ में आपको किरदार के भीतर भावनाओं और सोच की आपसी लड़ाई का क्रंदन सुनाई पड़ता है। सुपर्णा तो शुरू से इस अंतस में छिड़ी लड़ाई की शिकार है।

युद्ध में स्वयं शक्ति से जीत हासिल नहीं होती, लड़ाई भय और ज्ञान की होती है। खर-दूषण की विशाल सेना (जो शूर्पणखा के भाइयों को भड़काने का दुष्परिणाम था) से लड़ने के पहले राम की रणनीति की चर्चा करते समय लेखक सापेक्ष शक्ति प्रदर्शन से ज्यादा विरोधियों के मन में भय उत्पन्न करने की रणनीति अपनाते हैं। प्रकृति को अपना शस्त्र बनाते हैं और  पर्वत और मंदाकिनी नदी को अपना सहायक बनाते हैं। यहाँ सीधा सोच पर प्रहार की प्रमुखता बताई गई है जो वर्तमान संदर्भ में लाजिमी है। एक और सीख जो आज के परिपेक्ष्य में भी सही है वह है आस्था का चमत्कार के प्रति अवलम्ब होना। इसलिए ही आस्था का केंद्र नित नए चमत्कार की ओर मुड़ता रहता है और नए नायक उभरते रहते हैं।

यहाँ दोनों ओर से लड़ने वालों के आराध्य एक ही हैं- भगवान शिव! पर साधना रावण का मार्ग है तो साधन राम का। किताब पढ़ते हुए कई रोचक जानकारियाँ मिलेंगी  जैसे इंद्र के बेटे जयंत की आँख राम ने फोड़ दी थी, रावण ने पहले कौशलपति महाराज दशरथ को हराया था। रावण को छह मास वानरराज बाली ने अपनी काँख यानी बाजू में दबा रखा था।

सहस्रार्जुन ने रावण को अपने शैया के पाए से बाँध दिया था और दादा पुलस्य के कहने पर छोड़ा था। न जाने और भी कई बातें जो सुलभ रूप से कहीं उपलब्ध नहीं है यहाँ वर्णित मिलेंगी। कई रोचक संदर्भ रचते समय लेखक ने इस बात का विशेष ख्याल रखा है कि दर्शन का कूट पर्याप्त मात्रा में रहे जिससे  सुधी पाठक लाभान्वित होते रहें। यहाँ लक्ष्मण और हनुमान के किरदार में तुलनात्मक व्याख्या के जरिये सीख दी गयी है। महारुद्राभिषेक यज्ञ का जिक्र है जहाँ आचार्य बनाने के लिए लंकापति रावण को न्योता देने पहले लक्ष्मण को भेजा जाता है और लक्ष्मण रावण के सुंदर आचरण और व्यवहार से चकित रह जाते हैं और साथ ही रावण के अकाट्य तार्किक जवाब से कि सपत्नीक यजमान की पूजा में ही वे आचार्य बन सकते हैं और अगर राम की इच्छा हो तो सीता को साथ लेकर वे पूजा में शामिल होना चाहेंगे। यहाँ लक्ष्मण-राम-रावण के संवाद में अहंकार के विसर्जन का रूप और राह दिखाई देगी। जिस कार्य में लक्ष्मण विफल रहे वही कार्य हनुमान ने अपने भक्ति भाव से आसानी से कर दिया, जहाँ अहंकार लेशमात्र भी  नहीं था। रावण अगर तंत्र में विश्वास करता है तो कुम्भकर्ण यंत्र पर और तंत्र व यंत्र की यह जुगलबंदी ही उनको अपरिजेय बनाती है। कुम्भकर्ण को यहाँ एक वैज्ञानिक और शोधकर्ता की तरह प्रस्तुत किया गया है जो छह महीने दुनिया के लिए सोता है पर असल में वह दुनिया से छुप कर शोध करता है और वे आविष्कार रावण के लिए युद्ध सहायक सिद्ध होते हैं। लड़ते वक़्त भी उसे एक रोबोट सा लौह मानव के भीतर बैठ कर संचालित करता दिखाया गया है। भली भांति इस बात पर यहाँ जोर दिया गया है कि विलक्षण शत्रु क्रोध का नहीं अपितु शोध का विषय है और शोध के प्रतिफल से ही निवारण सम्भव है।

इस किताब में हर दूसरी पंक्ति पर कोई न कोई सूक्ति मिलेगी जो सोचने व सीखने का द्वार खोलती है। जैसे एक जगह लिखा है ‛अग्नि तारक भी होती है और मारक भी’ और इनमें भी  सर्वाधिक घातक है कामाग्नि! अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष, काम-क्रोध-मद-लोभ, चतुष्टय में जगह मिले काम के बारे में लिखते समय लेखक इस संदर्भ पर विशेष टिप्पणी की ओर आकर्षित करते हैं कि काम अगर धर्म और अर्थ का अनुसरण करता है तो मोक्ष में सहायक होता है पर अगर वो अनुगामी के बजाय अग्रगामी का रूप ले ले तो स्व, स्वयं में सिमट जाती है और विनाश उसका अनुगामी बन जाता है। इस बात को और बेहतर तरीके से समझाने के लिए वे राम की ओर से कहते हैं कि कामहंता  महादेव शिव को साधने के बाद भी रावण काम को नहीं साध पाया इसलिए परमानंद से भरे ब्रह्मानंद के बदले विषयानंद के भँवर में फँस गया।

पुरुष को कर्म और स्त्री को धर्म की संज्ञा देते हुए कहा गया है जिसके गर्भ में मांस पिंड में शक्ति संचार होता हो वही धर्म का पर्याय बन सकती है और वही धारण करने वाली जरूरत पड़ने में तारण भी बन सकती है। किताब आलम्बन से स्वाबलंबन बनने की भी सीख देती है।

राम-सीता संवाद में छाया-गुण पर अनूठी चर्चा की गई है। कई बार जो आप सशरीर नहीं कर पाते सुप्त  छाया का जागृत हुआ भाव कर लेता है और फिर परिस्थितियाँ अनुकूल होते ही छाया सुप्त हो जाती है। छाया के साथ ही साथ प्रतिबिम्ब और बिम्ब के आपसी प्रभाव और समाज के दुष्प्रभाव पर भी विशेष टिप्पणी है। विपरीत परिस्थितियाँ छाया और बिम्ब की सहभागिनी सहपाठी होती हैं जो एक दूसरे को समझते हुए अपना रूप बदलती हैं। सत्य को समझने से पहले असत्य और मिथ्या से परिचित होना जरूरी है जैसे प्रकाश से परिचय अंधकार कराती है। देह का मिथ्या होना परम सत्य है जिसे समझने में जीवन बीत जाता है।

इस किताब को पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि आचरण अकेला तप, तपस्या, साधना, पराक्रम पर कैसे भारी पड़ जाता है और विनाश की ओर मोड़ देता है। अधीरता ज्ञानी को भी कमजोर कर देता है जिसे विभीषण और लक्ष्मण दोनों के आचरण का हिस्सा दिखाया है। विभीषण को हर बार यह संदेह होता है कि क्या राम यह युद्ध जीत भी पायेंगे?

पूरी किताब शब्दों के उचित और सुंदर प्रयोग को सीखने के लिहाज से भी पढ़ा जा सकता है। इतना तय है कि इसे पढ़ने के बाद आपके व्यक्तिगत शब्दकोश में जरूर वृद्धि होगी। एक जगह बिल्ली और वानर के बच्चे की प्रवृति और उसका उसके माँ के प्रति विश्वास में भिन्नता को बहुत ही सुंदर तरीके से समझाया गया है। बिल्ली अपनी माँ के छोड़े जगह से नहीं हटती चाहे कितनी भी विषम परिस्थिति हो जबकि बंदर अपनी माँ की छाती से अपने बल पर चिपटा रहता है और माँ उसके गिरने पर उसके खुद उठने का इंतजार करती है।

कथ्य में फ्लैशबैक शैली इसे और भी रोचक बनाती है। “प्रजा व्यक्तिपूजक नहीं, विचारपूजक हो”  ऐसे कई संदेशों के साथ आशुतोष एक सफल प्रयोग करते दिखते हैं। ज्ञान और वैराग्य व प्रेम और निर्भयता के अंतर को समझाते हुए इस किताब में इच्छा से संकल्प, भोग से योग,अर्पण से समर्पण, कामना से कृतज्ञता, द्वैत से अद्वैत, मोह से प्रेम, त्याग से परित्याग, हलाहल से अमृत, राम से सीताराम की यात्रा को भलीभांति समझाया गया है और अगर इतना सब कुछ एक ही किताब में पढ़ने को मिले तो ऐसा संयोग कौन छोड़ना चाहेगा। वर्तमान में रावण का चेहरा बदला हुआ है, कृत्य नहीं और रामराज जारी है जिसे “रामराज्य” में बदलने के लिए राम की तलाश जारी है।

अंत में एक सुझाव, प्रकाशक को इसके मूल्य (500 रुपये) में कुछ कमी करने पर विचार करना चाहिए ताकि यह अत्यंत पठनीय किताब जन सुलभ हो सके।